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कम नहीं हो पा रहा कुपोषण- संदीप कुमार

सरकार का दावा है कि लोगों में कुपोषण घटा है. नेशनल सैंपल सर्वे आर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) की 66वीं अध्ययन रिपोर्ट में बताया गया है कि दो तिहाई लोग पोषण के सामान्य मानक से कम खुराक ले पा रहे हैं. योजना आयोग का मानना है कि हर ग्रामीण को न्यूनतम 2400 किलो कैलोरी व हर शहरी को न्यूनतम 2100 किलो कैलोरी का आहार मिलना चाहिए. जमीनी हकीकत क्या है, यह भी सरकारी आंकड़े ही बताते हैं.

1972-73 में एक ग्रामीण को रोज औसतन 2266 किलो कैलोरी का आहार मिल रहा था, जो 1993-94 में घट कर 2153 और 2009-2010 में और कम होकर 2020 किलो कैलोरी रह गया. शहरी इलाकों में प्रति व्यक्ति रोज का यह औसत 1972-73 में 2107, 1993-94 में 2071 और 2009-2010 में 1946 किलो कैलोरी रहा. यानी स्थिति सुधरने की बजाए और बिगड़ती जा रही है. विशेषज्ञों का मानना है कि यह सीधे-सीधे तेजी से बढ़ रही गरीबी की वजह से भुखमरी और कुपोषण का संकेत है.

20 करोड़ से ज्यादा सोते हैं भूखे पेट
इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार भारत में अनाज की कोई कमी नहीं. फिर भी 20 करोड़ से ज्यादा लोग भूखे पेट सोते हैं, जो पूरे विश्व के आंकड़ों से सबसे ज्यादा है. केंद्र सरकार ने कुछ महीने पहले देश में कुपोषण की बढ़ती समस्या को शर्मनाक बताया था. एक सर्वे के मुताबिक देश में 42 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट हैं. कुपोषण और भूख से लड़ने के लिए सरकार खाद्य सुरक्षा विधेयक लागू करने जा रही है. मगर सिर्फ खाद्य सुरक्षा बिल लाने भर से इस समस्या का हल नहीं होने वाला. गरीबों को खाने के साथ-साथ उन्हें रोजगार व शिक्षा भी मुहैया कराना भी जरूरी है. पब्लिक हेल्थ सिस्टम इस बात का ख्याल रखे कि हर जरूरतमंद नागरिक को सही चिकित्सा सुविधा मिले. कुपोषण से ग्रस्त बच्चे और गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों को मुफ्त चिकित्सीय सुविधा मिले. लगभग 22 हजार लोग हर साल आयरन की कमी से मौत के मुंह में चले जाते हैं. 87 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं और 75 प्रतिशत पांच साल से कम उम्र के बच्चे एनिमिया से ग्रस्त होते हैं. विटामिन ‘ए‘ और आयरन की कमी कुपोषण का कारण बनती है. बच्चों को मुफ्त भोजन मिले. खासकर किशोरियों को जिससे वे बड़ी होकर कुपोषण की शिकार न रहें और देश को ऐसा नागरिक दें जो सबल और स्वस्थ हो. मिड डे मिल की व्यवस्था को और कारगर बनाने की जरूरत है. हालांकि यह कड़वा सच है कि उससे बच्चों का कुपोषण तो नहीं मिटेगा. उल्टे घटिया खाने से उनकी तबीयत जरूर खराब होगी. कुपोषण एक चुनौती की तरह है जिससे इस देश को मुक्ति चाहिए और इसके लिए ठोस पहल जरूरी है.

देश के 50} कुपोषित बच्चे बिहार में
देश का नौनिहाल स्वतंत्रता प्राप्ति के 60 वर्षों बाद भी यदि कुपोषण से संघर्ष करता नजर आए तो यह एक शर्मसार कर देने वाला विषय है. यह समस्या इस मौके पर और भी अधिक गंभीर हो जाती है जब हम अपनी आजादी की वर्षगांठ मनाते हुए अपनी उपलब्धियों पर गौरवाविंत हैं परंतु लाख टके का सवाल तो यह है कि जिस देश का भविष्य 60 वर्षो के लंबे संघर्ष के बाद भी कुपोषण से मुक्त नहीं हो पाया है तो आगामी वर्षो में उसका भविष्य क्या होगा? तमाम विकासशील योजनाओं के बावजूद आज भारत में 2.3 करोड़ बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. भारत सरकार के आंगनवाड़ी प्रोग्राम के एक रिपोर्ट में ये आकंड़े सामने आए हैं. इस रिपोर्ट के अनुसार, देश भर में आगंनवाड़ी योजना से जुड़ने आने वाले आठ करोड़ बच्चों में से 28 प्रतिशत बच्चे कुपोषित होते हैं. रिपोर्ट में हर राज्य के अलग अलग आंकड़ें भी बताए गए हैं.

कैलोरी की मात्र नहीं के बराबर
पोषण का आधार तय होता है लिए गए भोजन में कैलोरी की मात्र से. 2004-2005 से 2009-2010 के बीच, यानी योजना आयोग ने जिस दौरान गरीबों की संख्या कम होने का दावा किया, ग्रामीण इलाकों में प्रति व्यक्ति कैलोरी की दैनिक खपत 2047 से घटकर 2020 और शहरी इलाकों में 2020 से घटकर 1946 रह गई. नेशनल इंस्टीट्यूट आफ न्यूट्रीशन के मुताबिक साठ किलो तक वजन के 18 से 29 साल के हर भारतीय पुरु ष को औसतन रोज 2320 किलो कैलोरी लेनी चाहिए.

प्रोटीन की कमी
एनएसएसओ की रिपोर्ट के मुताबिक देश में प्रति व्यक्ति प्रोटीन की खपत भी कम होती जा रही है. 1993-94 में ग्रामीण इलाकों में यह प्रति व्यक्ति 60.2 ग्राम दैनिक थी जो 2009-2010 में घट कर 55 ग्राम रह गई. शहरी इलाकों में प्रोटीन की दैनिक खपत प्रति व्यक्ति 1993-94 में 57.2 ग्राम थी जो 2009-2010 में 53.5 ग्राम रह गई. यह कमी पूरे देश में आई है लेकिन सबसे ज्यादा गिरावट राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और पंजाब में आई जहां हर व्यक्ति रोज नौ से बारह ग्राम कम प्रोटीन ले पाया. 1993-94 से 2009-2010 के बीच के सोलह साल में भोजन में चरबी की मात्र सभी मुख्य राज्यों के ग्रामीण इलाकों में करीब सात ग्राम और शहरी इलाकों में करीब छह ग्राम ही बढ़ पाई. देश के ग्रामीण इलाकों में चरबी की खपत प्रति व्यक्ति औसतन 38 ग्राम और शहरी इलाकों में 48 ग्राम रही. यह आंकड़े पूरी आबादी के हैं. कुल आबादी के सबसे गरीब दस फीसद लोगों में से 90 फीसद लोगों को औसतन 2160 किलो कैलोरी से भी कम का आहार मिल पाता है. ग्रामीण इलाकों में यह औसत प्रति व्यक्ति 1619 किलो कैलोरी है तो शहरी इलाकों में 1584 किलो कैलोरी. आबादी के सबसे अमीर दस फीसद लोगें में यह खपत 2922 (ग्रामीण इलाकों में) और 2855 (शहरी इलाकों में) औसतन है.

पोषण की जरूरत को ऐसे करते हैं पूरा
एनएसएसओ की रिपोर्ट इस व्यापक धारणा को गलत साबित करती है कि भारतीय, खास तौर से शहरी इलाकों में रहने वाले लोग अपनी पोषण जरूरतें पूरी करने के लिए डेयरी उत्पादों जैसे गैर दलहन आहार की तरफ मुड़ रहे हैं. हालांकि 1993-94 से 2009-2010 के बीच कैलोरी के लिए दलहन का इस्तेमाल ग्रामीण इलाकों में 71 फीसद से घटकर 64 फीसद और शहरी इलाकों में 59 फीसद से घटकर 55 रह गया.

देश में 40 फीसद से ज्यादा आबादी कुपोषित
जुलाई 2011 से जून 2012 तक की नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) की रिपोर्ट के मुताबिस ग्रामीण इलाकों के लोग जहां 2004-05 में जहां दलहन पर 18 फीसद खर्च करते थे, 2011-12 में बारह फीसद ही खर्च कर पाए. शहरी इलाकों में तो यह 2004-05 के 10.1 फीसद से घटकर 2011-12 में 7.3 फीसद रह गया. ओड़िशा, झारखंड, मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में तो यह खर्च राष्ट्रीय औसत से काफी कम रहा. शहरी इलाकों में सबसे पिछड़ा राज्य बिहार रहा. कनाडा के गैरसरकारी संगठन- ‘माइक्र ो न्यूट्रिएट इनीशिएटिव' के अध्यक्ष एमटी वेंकटेश मन्नार ने ‘मातृत्व और बाल कुपोषण' पर अपनी रिपोर्ट में कहा है कि कम वजन के बच्चों व कुपोषित आबादी का 40 फीसद से ज्यादा हिस्सा भारत में है.

देश में आंगनबाड़ी के 13 लाख केंद्र
इन आंकड़ों के अनुसार, भारत में रहने वाले शहरी गरीब और ग्रामीण इलाकों की स्थिति में कोई ज्यादा फर्क नहीं हैं. वहीं, उत्तरपूर्वी राज्यों में हालात काफी सामान्य हैं. असम, त्रिपुरा और मेघालय को छोड़कर पूरे उत्तरपूर्व में 10 प्रतिशत से भी कम बच्चे कुपोषित हैं. महाराष्ट्र और तमिलनाडू भी इस श्रेणी में आतें हैं. महाराष्ट्र में जहां 11 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं, वहीं तमिलनाडू में 18 प्रतिशत. 2011 जनगणना के मुताबिक, भारत में छह वर्ष के कम के लगभग 16 करोड़ बच्चे हैं. लिहाजा, इन 16 करोड़ में से लगभग 50 प्रतिशत बच्चे आंगनवाड़ी योजना के अंर्तगत आते हैं. जिनमें से ज्यादातर बेहद गरीब इलाकों से आते हैं. लेकिन फिर भी कई बच्चे ऐसे हैं, जो इन प्रोग्राम का लाभ नहीं ले पाते हैं. भारत में आंगनवाड़ी के 13 लाख केंद्र हैं, जो बच्चों की देखभाल करते हैं एवं अतिरिक्त पोषण उपल्बध कराते हैं.