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कमजोर मानसून की कीमत चुकाती खेती- सुरुचि भड़वाल

अपने देश में मानसून की शुरुआत पश्चिमी और उत्तरी समुद्री तट से जून के महीने में होती है, फिर बारिश धीरे-धीरे देश के दूसरे हिस्सों में पहुंचती है।

यह पूरी प्रक्रिया चार महीनों की होती है, और इस दौरान देश के अधिकतर हिस्सों में 80 फीसदी से अधिक बारिश होती है। लेकिन चूंकि सभी जगह कम दबाव का क्षेत्र एक समान नहीं बनता, इसलिए सब जगह बारिश भी एक जैसी नहीं होती।

बहरहाल, एक कृषि प्रधान समाज होने के साथ ही हमारे देश की बड़ी आबादी खाद्यान्न के लिए कृषि पर निर्भर है। लेकिन बेहतर कृषि उत्पादन के लिए हमारी निर्भरता आज भी अच्छे मानसून पर है।


खरीफ की पैदावार तो मानसून पर निर्भर करती ही है, रबी, और कहीं-कहीं इससे पहले बोई जाने वाली फसल की पैदावार भी अच्छी बारिश के बाद मिट्टी तक पहुंची नमी पर निर्भर करती है।

लिहाजा कमजोर मानसून देश भर में फसलों की पैदावार को प्रभावित करता है। यह कृषि पर निर्भर लोगों अथवा किसानों की आमदनी को ही प्रभावित नहीं करता, बल्कि देश की समग्र अर्थव्यवस्था में कृषि की हिस्सेदारी को भी कम करता है।

बेशक बदलते वक्त के साथ अर्थव्यवस्था में कृषि की हिस्सेदारी कम हुई है, पर यह भी सच है कि जिस साल मानसून कमजोर हुआ, उस वर्ष सकल घरेलू उत्पाद की दर भी कम हुई।

मानसून के आने में देरी होने से खरीफ की फसल पर बुरा असर पड़ सकता है। इसके अतिरिक्त बुआई की जाने वाली फसलों की सिंचाई में पानी की कमी होने से देश का कुल फसल उत्पादन भी कुप्रभावित होगा। खरीफ की खेती करने वाले किसान सिंचाई के लिए बारिश पर निर्भर हैं।

लिहाजा वक्त पर बादलों का बरसना फसलों की बुआई और रोपाई के लिए महत्वपूर्ण है। बेशक देश के ज्यादातर हिस्सों में बारिश हो रही है, लेकिन किसानों का यह अनुमान है कि देर से बारिश शुरू होने का खामियाजा उत्पादन में कमी के रूप में भुगतना पड़ सकता है।

इससे जहां फसलों की पैदावार घटेगी, कृषि पर निर्भर आबादी प्रभावित होगी, वहीं कमजोर मानसून बाजार में खाद्यान्न की उपलब्धता घटाएगा, जिससे अनाज की कीमतें बढ़ सकती हैं।

मानसून की इस अस्थिरता से लड़ने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने की जरूरत है। मसलन, जिस मौसम में जिस फसल की पैदावार की जाती हो, उससे संबंधित व्यापक फसल योजना बनानी चाहिए। साथ ही, मौसम के पूर्वानुमान की सटीकता सुनिश्चित करनी चाहिए।

इस पूरी प्रक्रिया में स्थानीय समूहों को शामिल किया जाना चाहिए, जिससे मौसम विशेष में फसलों की उपज और खेती में पानी की जरूरत चिह्नित की जा सके। इससे किसान तय कर सकेंगे कि किस वर्ष, किस मौसम में उन्हें किसकी खेती करनी चाहिए। देश के कुछ हिस्सों में देखा गया है कि अगर किसानों को कमजोर मानसून की सूचना पूर्व में दे दी जाती है, तो वे फसलों के चयन में बदलाव कर तिलहन, दलहन, चना, ज्वार या बाजरा जैसी पारंपरिक फसलों की पैदावार करते हैं। लिहाजा हमें अपने सूचना तंत्र को मजबूत करना होगा।

इससे स्थानीय स्तर पर एक मजबूत अर्थव्यवस्था के निर्माण में तो मदद मिलेगी ही, बाजार पर पड़ने वाले दूसरे प्रतिकूल प्रभावों को भी खत्म किया जा सकेगा।

(लेखिका टेरी में एसोशिएट डाइरेक्टर हैं)