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करोड़ों अकेले-बेबस लोगों का देश - पुण्य प्रसून वाजपेयी

देश में 50 करोड़ से ज्यादा वोटर किसी राजनीति दल के सदस्य नहीं हैं. ये वोटर अपनी-अपनी जगह अकेले हैं. लेकिन, एक-एक वोट की ताकत साथ मिलकर जब किसी राजनीतिक दल को सत्ता तक पहुंचा देती है, तब वह दल अकेले नहीं होता. 

हां, उसके भीतर का संगठन एक होकर सत्ता चलाते हुए वोटरों को फिर अलग-थलग कर देता है. यानी जनता की एकजुटता वोट के तौर पर नजर आये और वोट की ताकत से जनता नहीं, बल्कि राजनीतिक दल एकजुट हो जाएं, इसे ही लोकतंत्र करार दिया जाये, तो इससे बड़ा धोखा क्या होगा!

एक वक्त कांग्रेस ने यह काम वोटरों को बांट कर सियासी लाभ देने के नाम पर किया, तो अब बीजेपी अपनी सदस्य संख्या 11 करोड़ बताने से लेकर स्वयंसेवक होकर काम करने के नाम पर कर रही है. सत्ताधारी के लिए ऐसा सिस्टम बना हुआ है, जो झटके में जनता का नाम लेकर सत्ता के लिए काम करता है. पुलिस जनता के लिए होकर भी सत्ताधारी के इशारे पर काम करेगी. तमाम संस्थान जनता के लिए बनाये गये, पर सत्ता के इशारे पर काम करेंगे. 

न्यायपालिका और संवैधानिक संस्थानों को सत्ता से अलग उनकी स्वयत्तता के आधार पर परिभाषित तो किया जायेगा, पर इनके काम करने के तरीके भी बिना सत्ता के इशारे के चल नहीं सकते. कोई सत्ता चाह कर भी जनता को उसके अपने दायरे में एक सोच से एकजुट कर नहीं सकती, क्योंकि सत्ता की एकजुटता जनता के बिखराव पर टिकी है और जनता की एकजुटता सत्ता के विरोध पर.
जनता की सत्ता और राजनीतिक पार्टी की सत्ता में अंतर है. जन का नाम लेकर उसे भावनात्मक तौर पर सत्ता के विरोध में खड़ा कर सत्ता पाने के तरीके को ही देश में संघर्ष और आंदोलन का नाम दिया जाता रहा है. इस वक्त नरेंद्र मोदी और केजरीवाल इसकी बेहतरीन मिसाल हैं. केजरीवाल ने सत्ता का विरोध आंदोलन के जरिये किया, तो मोदी ने सत्ता का विरोध चुनावी तौर-तरीकों से किया. 

दोनों ने सत्ता के लिए लकीर अलग-अलग जरूर खींची, लेकिन दोनों के निशाने पर वही सत्ता रही, जिसे कभी जनता ने चुना था. दोनों ही उस दिल्ली को पराजित कर दिल्ली पहुंचे, जिस दिल्ली की सत्ता को डिगाने की ताकत पारंपरिक राजनीति में नहीं थी. इसलिए मोदी में बीजेपी का अक्स और केजरीवाल में पारंपरिक राजनीति का अक्स किसी ने नहीं देखा. पर, दोनों सत्तावान बने तो अपनी सत्ता बचाने और दूसरे की सत्ता ढहाने के लिए उन्हीं सांस्थानिक ढांचे का खेल शुरू हुआ, जिनका कोई चेहरा तो होता नहीं. 

झटके में दोनों ही इतने बचकाने हो गये कि सत्ता का खेल व्यवस्था को अपनी सत्ता के अनुकूल करने में खेला जाने लगा-पुलिस किसके पास रहे, संवैधानिक संस्थानों पर अपनों की नियुक्ति कैसे हो, जांच एंजेसी अपनी नाक तले रखे बगैर भ्रष्टाचारियों को कैसे पकड़ा जायेगा, अस्पताल, स्कूल, सड़क, पानी, सस्ता खाना- सबकुछ सियासी बिसात के मोहरे कैसे हो सकते हैं और विकास के लिए विदेशी पूंजी से लेकर राजनीतिक दल चलाने के लिए जनता का चंदा कैसे लिया जाये.

ऐसे राजनीतिक गोरखधंधे में पुलिस हो या नौकरशाह या फिर कोई अदना सा अधिकारी, वह अपनी सुरक्षा के लिए सत्ता को ही देश मानने से क्यों हिचकेगा! तो क्या वाकई कोई वैकल्पिक सोच किसी के पास नहीं है? या फिर वैकल्पिक सोच तभी लायी जा सकती है जब समूचा तंत्र सत्ताधारी के इशारे पर काम करने लगे? या फिर पहली बार देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह सत्ता की परिभाषा बदल दे?

समूचा तंत्र ही जब सत्ता के इशारे पर काम करने लगता है तब क्या होता है, यह किसी से छुपा नहीं है. गुजरात में पुलिस नरेंद्र मोदी की हो गयी थी, तब 2002 के दंगों ने दुनिया के सामने राजधर्म का पालन न करने का सबसे वीभत्स चेहरा रखा. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद खुलेआम नरसंहार हुआ. शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश में शिंकजा कसा, तो लाखों छात्रों की प्रतियोगी परीक्षा धंधे में बदल गयी.

रमन सिंह ने छत्तीसगढ में शिंकजा कसा, तो आदिवासियों के हिस्से का चावल डकारने से सत्ताधारी नहीं चूके! लेकिन, वही नरेंद्र मोदी गुजरात से दिल्ली आते हैं, तो केंद्रीय जांच एजेंसियां बीजेपी अध्यक्ष को क्लीन चिट देने की दिशा में बढ़ने से नहीं कतराती हैं. दिल्ली के जख्मों को दिल्ली पुलिस थाम नहीं सकती, तो केजरीवाल को लगता है कि दिल्ली पुलिस उनके मातहत आ जाये तो वह दिल्ली में कोई जख्म होने नहीं देंगे. पूर्ण राज्य का दर्जा मिले तो दिल्ली को स्वर्ग बना देंगे! 

पर, दिल्ली को स्वर्ग बनाने की दिशा में वह खुद को और पार्टी कार्यकर्ताओं को सबसे बड़ा देवता मान जिस राह पर चल पड़ते हैं, उसमें सुविधाएं बटोरने की होड़ से लेकर आम से खास होकर सत्ता चलाने की नायाब जिद साफ दिखाई पड़ती है. यह जिद बौद्धिक सहनशीलता को इस रूप में बार-बार प्रकट करती है, जिसमें सामनेवाले को अंगुली उठाने का हक देना भर ही खुद को लोकतांत्रिक करार देने का निर्णय होता है. यानी करेंगे वही जो खुद के लिए होगा सही, क्योंकि जनता ने बहुमत दिया है.

तो केजरीवाल हों या मोदी, अपने-अपने घेरे में अपने कैडर को ही देशभक्त मान कर सियासत साधने निकल पड़ते हैं. और यहीं से सवाल उठता है कि सत्ता किसी के पास हो, या फिर सत्ता के लिए टकराते जो भी चेहरे वैचारिक तौर पर अलग-अलग दिखाई देते हों, लेकिन सत्ता ही सत्ता के लिए लड़नेवालों को एकजुट कर देती है और 80 करोड़ वोटर अपनी जगह अलग-थलग होकर न्यूनतम पाने की लड़ाई में ही उम्र गुजार देता है. लेकिन, मौजूदा वक्त में सियासी चक्रव्यूह ने पहली बार मोदी और केजरीवाल के जरिये आम जनता में जिन आकांक्षाओं को जगाया है, उसकी बेचैनी हर किसी में है.

आम आदमी की बैचेनी परेशानी से जूझते हुए है, तो खास लोगों की बेचैनी सत्ता सुख गंवाने के डर की है. विरोध में उठे हाथ गुस्से में हैं. गुस्सा जीने का हक मांग रहा है. सत्ता को यह बर्दाश्त नहीं है, तो वह गुस्से में उठे हाथों को चिढ़ाने पर आमादा है. 

तो गुस्सा सत्ता में भी है और सत्ता पाने के लिए बेचैन विपक्ष में भी. तो गुस्सा ही सत्ता है और गुस्सा ही प्यादा है. गुस्सा दिखाना भय की मार सहते-सहते निर्भय होकर सत्ता को डराना भी है और सत्ता का गुस्सा भ्रष्टाचार व महंगाई में डूबी साख बनाने का खेल भी है. किसानों, मजदूरों, ग्रामीणों, आदिवासियों के संघर्ष का रास्ता इसी दौर में हाशिये पर है, जब गुस्से और संघर्ष का सबसे तीखा माहौल देश में बन रहा है. 

वही आवाज इस दौर में सत्ता को चेता पाने में गैर जरूरी सी लग रही है, जो सीधे उत्पादन से जुड़ी थी. देश की भूख से जुड़ी थी. बहुसंख्यक समाज से जुड़ी थी. तो क्या पहली बार देश को यह समझ में आ रहा है कि सत्ता की परिभाषा बदलने का वक्त आ गया है!