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कर्ज लेकर घी पीने से नहीं बनेगी बात - डॉ. भरत झुनझुनवाला

चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा बढ़ता जा रहा है। हमने चीन से 54 अरब डॉलर के आयात किए, जबकि निर्यात मात्र 17 अरब डॉलर के किए। इस घाटे को पाटने के लिए सरकार ने चीन से आग्रह किया है कि वह भारत में विदेशी निवेश बढ़ाए। गत वर्ष शी जिनपिंग की भारत यात्रा के दौरान चीन ने गुजरात तथा महाराष्ट्र में औद्योगिक क्षेत्रों, हाईस्पीड ट्रेनों तथा दिल्ली-चेन्न्ई कॉरिडोर में निवेश करने में रुचि दिखाई। भारत चाहता है कि चीन से बढ़ते आयातों के भुगतान के लिए जिस विदेशी मुद्रा की जरूरत है, उसे चीन से निवेश के माध्यम से हासिल करे।

हमारी विदेशी मुद्रा के मुख्य स्रोत निर्यात तथा विदेशी निवेश हैं। निर्यातों का भुगतान हमें डॉलर में मिलता है। विदेशी निवेशक भी भारतीय बैंकों में डॉलर जमा कराते हैं। इन मदों से मिले डॉलर का उपयोग भारत द्वारा माल का आयात करने के लिए किया जाता है। इसी रकम का उपयोग अपने विदेशी मुद्रा भंडार को बनाने में भी किया जाता है। भारत की पॉलिसी है कि विदेशी निवेश से डॉलर अर्जित किए जाएं और इनका उपयोग तेल, चीन में निर्मित खिलौनों अथवा अमेरिकी उत्पादों के आयात में किया जाए। अत: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति से आग्रह किया है कि वे भारत में निवेश बढ़ाएं।

भारत की तरह चीन को भी डॉलर निर्यातों तथा विदेशी निवेशों के माध्यम से मिलते हैं तथा इनका उपयोग आयातों तथा विदेशी मुद्रा भंडार को बनाने के लिए किया जाता है, लेकिन चीन की दिशा भिन्न् है। चीन खपत को हतोत्साहित करता है। आयातों को महंगा बनाने के लिए चीन ने अपनी मुद्रा रेनमिनबी का दाम न्यून बना रखा है। इससे चीन के लिए वॉशिंगटन के उत्पाद महंगे पड़ते हैं, जबकि भारत के लिए चीन के उत्पाद सस्ते पड़ते हैं। इनसे मिली रकम का उपयोग बैंक आफ चाइना द्वारा विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। वर्ष 2014 के पहले पांच माह में चीन ने 107 अरब डॉलर के अमेरिकी ट्रेजरी बिल की खरीद की। इस रकम की विशालता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत का कुल विदेशी मुद्रा भंडार 300 अरब डॉलर का है। चीन द्वारा अमेरिकी ट्रेजरी बिल खरीदने का उद्देश्य सामरिक दृष्टि से अमेरिका पर दबाव बनाना है। चीन चाहे तो अमेरिकी ट्रेजरी बिलों की बिक्री करके अमेरिकी अर्थव्यवस्था को नष्ट कर सकता है, जैसे बैंक द्वारा गिरवी रखे मकान को बेचकर ऋण को नष्ट कर दिया जाता है।

चीन और भारत की नीति में गहरा अंतर है। चीन द्वारा निर्यातों को बढ़ावा देकर तथा आयातों को महंगा बनाकर घरेलू जनता के द्वारा विदेशी माल की खपत को कम किया जाता है। निर्यातों से अर्जित डॉलर का उपयोग अमेरिका पर वर्चस्व बनाने के लिए किया जा रहा है। अपनी जनता की खपत कम करके चीन अमेरिका पर अपना दबदबा बना रहा है। दुर्भाग्यवश भारत की नीति इसके विपरीत है। भारत विदेशी निवेशकों को अधिकाधिक मात्रा में आकर्षित करके अर्जित किए गए डॉलर का उपयोग खपत में यानी खिलौने, सेब और तेल खरीदने में कर रहा है।

विदेशी निवेश एक प्रकार का कर्ज है। भारत सरकार निवेशकों को सुनिश्चित करती है कि वे अपनी सुविधानुसार अपनी फैक्ट्री अथवा शेयरों को बेचकर पूंजी को अपने देश वापस ले जा सकते हैं। भारत सरकार देश को गिरवी रखकर जनता को अमेरिकी सेब खिला रही है, जबकि चीनी सरकार अपनी जनता की इच्छाओं पर अंकुश लगाकर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में अपनी पैठ स्थापित कर रही है। इस विलासितापरक नीति को नरेंद्र मोदी का संरक्षण प्राप्त है। अत: वे चीन से आग्रह कर रहे हैं कि भारत में निवेश बढ़ाएं। डर है कि मोदी का देश को सुपरपावर बनाने का सपना कहीं देश को सुपर ऋणी बनाने में तब्दील न हो जाए।

हमें अपना ढर्रा बदलना होगा। हमें अपनी करेंसी रुपए का अवमूल्यन होने देना चाहिए। रुपया यदि 75 रुपए प्रति डॉलर पर गिर जाएगा तो आयात स्वत: घटेंगे और निर्यात बढ़ेंगे। वर्तमान में विश्व बाजार में कोयले और तेल के दाम घट रहे हैं। इन गिरे हुए दामों का उपयोग जनता द्वारा खपत बढ़ाने के लिए नहीं करना चाहिए। सरकार की सोच केवल अल्पकालिक राजनीतिपरक न होकर देश के दीर्घकालीन हित पर केंद्रित होनी चाहिए। इस माल पर भारी ऊर्जा टैक्स लगाकर इनके मूल्य बढ़ाना चाहिए। जैसे चीन ने अपनी जनता को विश्वास में लिया है, वैसे ही मोदी को जनता को विश्वास में लेकर खपत कम करने का आह्वान करना चाहिए।

इस टैक्स के कारण डीजल और बिजली के दाम चढ़ेंगे। तेल और कोयले के बढ़े दाम का छोटे किसान तथा गरीब मतदाता पर विपरीत प्रभाव न पड़े, इसके लिए ऊर्जा टैक्स का वितरण करना चाहिए। देश के हर परिवार के बैंक खाते में हर माह 1000 से 2000 रुपए जमा करा देना चाहिए ताकि गरीब महंगे माल को पूर्ववत खरीद सकें। इससे मोदी की साख और लोकप्रियता बढ़ेगी। सरकार ऊर्जा टैक्स से अर्जित रकम का उपयोग चीन के साथ साझा रणनीति बनाकर अमेरिकी ट्रेजरी बिल खरीदने के लिए करे।

मोदी को चीन द्वारा आकर्षित किए जा रहे विदेशी निवेश से भ्रमित नहीं होना चाहिए। चीन द्वारा जितनी मात्रा में विदेशी निवेश लिया जाता है, लगभग उतना विदेशी मुद्रा भंडार बनाया जाता है। जबकि भारत विदेशी निवेशकों से मिली रकम का उपयोग जनता की खपत बढ़ाने के लिए कर रहा है। अतएव भारत ऋण से दबता जा रहा है। भारत की अर्थव्यवस्था विदेशी निवेशकों के हाथ गिरवी रख दी गई है। पूर्व में कई बार ऐसा हुआ है कि विदेशी निवेशकों ने बिकवाली की है। फलस्वरूप हमारे शेयर बाजार और रुपया, दोनों टूटे हैं। मोदी को विदेशी निवेशकों के सम्मोहन से बाहर आना चाहिए। विदेशी निवेश के प्रस्तावों का तकनीकी व सामाजिक ऑडिट कराना चाहिए। उन्हीं प्रस्तावों पर अमल करना चाहिए जिनसे देश को अग्रणी तकनीकें मिलें और जनता पर विपरीत प्रभाव न पड़े। कर्ज लेकर घी पीने से देश सुपरपावर नहीं बनेगा। सुपरपावर बनने के लिए विश्व अर्थव्यवस्था पर अपना वर्चस्व बनाने की रणनीति बनानी चाहिए।

-लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं