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कश्मीर को कारागार नहीं स्कूल चाहिए-- शशिशेखर

जो एक स्कूल के दरवाजे खोलता है, वह एक जेल का द्वार बंद भी करता है।
- विक्टर ह्यूगो

कश्मीर घाटी में इसका उल्टा हो रहा है। वहां स्कूलों की इमारतें फूंकी जा रही हैं। राज्य-कर्मचारियों को काम करने से रोका जा रहा है। मंत्रियों, विधायकों और जनता की नुमाइंदगी का दम भरने वाले नेताओं के घर क्षतिग्रस्त किए जा रहे हैं। यह प्रायोजित हिंसा का दूसरा जानलेवा प्रहसन है। इससे पहले हम सरपंच और ग्राम प्रधानों के हत्याकांड देख चुके हैं।

यह देख-सुनकर क्या आपको नहीं लगता कि जम्मू-कश्मीर की सभ्यता, संस्कृति और लोकतंत्र को परत-दर-परत उखाड़ फेंकने की साजिश रची गई है? 21वीं शताब्दी के हिन्दुस्तान में, जब समूचे देश के नौजवान आर्थिक महाशक्ति बनने का सपना संजो रहे हों, तब ‘भारत का मुकुट' कहा जाने वाला यह प्रदेश पीछे की ओर क्यों जा रहा है? क्या स्थानीय जन नहीं जानते कि बंदूकें सिर्फ नुकसान पहुंचाती हैं?

कश्मीरी आज से नहीं, बल्कि बरसों से इस सच को जानते हैं, पर वे हालात के आगे विवश हैं। अनंतनाग में कभी एक ग्रामीण ने मुझसे विलाप करते हुए कहा था कि हमारे यहां फौज की वर्दियां पहनकर दहशतगर्द और दाढ़ियां बढ़ाकर फौजी घुस आते हैं। या खुदा। हमारे ऊपर यह अजाब कहां से टूट पड़ा! जिलाधिकारी कार्यालय पर जान-माल के लिए गिड़गिड़ाते उस शख्स की पीड़ा दिल में छेद कर गई थी।

एक और अनुभव सुन लीजिए। कामकाज के सिलसिले में मैं श्रीनगर गया हुआ था। वहां के संवाददाता ने कहा कि गुलमर्ग चलिए। इतनी बर्फ देखने को मिलेगी कि आप सब भूल जाएंगे। कभी पर्यटकों से गुलजार रहने वाला यह खूबसूरत इलाका उस रोज खेदजनक वीरानगी के हवाले था। सर्दी हो या गरमी, गुलमर्ग कभी हरदम गुलजार हुआ करता था। आतंकवाद ने उसे निर्जन बना छोड़ा था। प्रकृति की एक खूबी है। वह एकाकीपन में और खूबसूरत हो बैठती है। उस दिन भी क्या नजारा था! हर तरफ बर्फ से लदी चोटियां, दरख्त और हवा की रोमांचक सांय-सांय। उस चोटी पर गोंडोला (केबल कार) कर्मियों के अलावा सिर्फ एक शख्स था। मैला-कुचैला, दयनीय।

थोड़ी देर में वह शख्स खुद-ब-खुद रेंगता सा हमारे समीप सरक आया और पूछा, ‘पराठे खाओगे?' पराठे, यहां? इस बर्फ में? अपने फिरन में एक स्टोव सहित समूचा सामान दुबकाए वह शख्स खासा जरूरतमंद लग रहा था। हाड़कंपाऊ ठंड और पैदाइशी गुरबत ने उसे दीन-हीन बना रखा था। उसकी कुछ आमदनी कराने की नीयत से हमने हामी भर दी। मैं टोह भी लेना चाहता था कि कश्मीर के ग्रामीण किस हाल में जी रहे हैं? उसने जो बताया, उससे बेस्वाद पराठा कुछ और बेमजा हो गया। बदहाली उसका और उसके गांव वालों का नसीब बन गई थी।
पराठों की कीमत लेकर वह वापस चला, पर थोड़ी दूर बढ़कर अचानक मुड़ा और कश्मीरी में कुछ चिल्लाया। मैंने अपने संवाददाता से पूछा, तो पता चला कि वह कह रहा है- हमें आजादी नहीं, रोटी चाहिए। गोंडोलाकर्मी उसकी आवाज दबाने के लिए चिल्ला उठे थे। मुझे इस हरकत पर आश्चर्य नहीं हुआ, पर दुख देने वाली बात यह थी कि मेरे संवाददाता महोदय खामोश खड़े थे। उसने अपने बैग से कैमरा निकालने तक की कोशिश नहीं की थी, जबकि मेरी नजर में वह लोगों की आंखें खोलने वाली ‘स्टोरी' थी।

मैंने सख्त लहजे में कैमरा निकालने को कहा। उसने हिचकिचाते हुए कैमरा निकाला, पर देर हो चुकी थी। तब तक पराठे वाले को गोंडोलाकर्मी कश्मीरी में ‘समझा' चुके थे। मैंने संवाददाता से कहा कि अपने ‘पीस टू कैमरा' में बोल दो कि उसने पहले क्या कहा था? लौटते वक्त मेरे सहकर्मी ने उलाहना दिया कि आप तो कल दिल्ली लौट जाएंगे, हमें यहीं रहना है। वह गलत नहीं था। कश्मीर के तात्कालिक हालात ज्यादा जीदारी दिखाने की इजाजत नहीं देते थे।

उसी लम्हे में मेरी समझ में आ गया था कि अरबों रुपये खर्च करने के बावजूद हम कश्मीरियों की असली पीड़ा को देश और दुनिया तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं। जिन जन-प्रतिनिधियों, नौकरशाहों, पत्रकारों और एजेंसियों पर इसकी जिम्मेदारी है, वे या तो चुप हैं या फिर अर्द्धसत्य बोलने को मजबूर हैं। जम्मू-कश्मीर आजादी के बाद से अब तक अर्द्धसत्य जीते-जीते आजिज आ चुका है। वर्दीवालों से ज्यादा सितम ‘अपनों' ने उनके साथ किया है।
जुल्म का यह सिलसिला जारी है।
जरा इस आंकडे़ पर गौर फरमाएं, मेरी बातों का भरोसा हो जाएगा। पिछले कुछ महीनों में घाटी में तकरीबन 30 स्कूलों को आग के हवाले किया जा चुका है। यह अलगाववादियों का आजमाया हुआ नुस्खा है। पाक की स्वात घाटी में यह तमाशा बार-बार दोहराया जाता रहा है। वहां तालिबान ने 2007 से 2009 के बीच 200 से ज्यादा स्कूलों को आग लगा दी थी। यूनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि दर्द का यह सिलसिला भारत, पाकिस्तान अथवा अफगानिस्तान तक सीमित नहीं है। बोको हराम की बर्बरता के चलते नाइजीरिया के 10 लाख से ज्यादा बच्चे स्कूल जाने से वंचित हो गए हैं। बता दूं, बोको हराम का शाब्दिक अर्थ है- पश्चिम की शिक्षा हराम है। क्या वाकई? यह सिर्फ कायराना बहाना है। अगर ऐसा होता, तो वे घाटी के सरकारी स्कूलों को तबाह नहीं करते। वहां कश्मीरियत और इंसानियत पढ़ाने की कोशिश की जाती है। वहां के पाठ्यक्रम को कश्मीरी नेताओं ने गढ़ा है, मगर पाकिस्तान के इशारे पर काम करने वाले आतंकवादियों को यह मंजूर नहीं। वे कश्मीरियत और इंसानियत के हमदर्द नहीं, हत्यारे हैं।

कश्मीर के संकेत साफ हैं। अलगाववादी वहां बच्चों को इसलिए स्कूल जाने से रोक रहे हैं, ताकि उनका मनचाहा इस्तेमाल किया जा सके। स्कूली बच्चे भविष्य के सपने संजोते हैं, वे सैनिकों पर पत्थर नहीं बरसाते। एक उदाहरण। इस हफ्ते की शुरुआत में पुलवामा जिले की तीन बच्चियों की आंखें पैलेट गन के प्रहार से खराब हो गईं। तय है, सुरक्षा बलों के जवानों ने उनके घर में घुसकर उन पर प्रहार नहीं किया। मासूम किशोर छोटे-मोटे लालच, दबाव अथवा बहकावे में आसानी से आक्रामक बन जाते हैं। जब उन्हें चोट लगती है, तो पूरी दुनिया को जताने की कुत्सित कोशिश होती है कि दिल्ली की हुकूमत हम पर बर्बरता कर रही है।

अलगाववादी अशिक्षा, गरीबी और जहालत को हम पर थोप देना चाहते हैं, ताकि असंतोष की लपटें ज्यादा से ज्यादा जोर पकड़ सकें। यह एक ऐसा चक्रव्यूह है, जिसे तोड़ना होगा। इसके लिए लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार से बेहतर कोई विकल्प नहीं हो सकता। महबूबा मुफ्ती इसके लिए प्रयास कर रही हैं, पर हालात काबू में नहीं आ रहे। उन्हें रणनीति बदलनी होगी, क्योंकि घाटी में शांति का रास्ता स्कूलों से होकर गुजरता है। 21वीं सदी के जम्मू-कश्मीर को सिकंदर बुतशिकन की बेलगाम संतानों नहीं, शिक्षित नौजवानों की जरूरत है।