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कहां चूक गये हम ? - श्रीश चौधरी

आजादी के 66 वर्षो बाद भी शिक्षा जैसे बुनियादी विषय पर समाज की ऐसी दयनीय स्थिति चिंता व खेद का कारण है. हमारी गरीबी, हमारा पिछड़ापन, शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में हमारे उत्साह एवं प्रयास के अभाव का ही परिणाम है. स्वतंत्रता के बाद ही ऐसे कदम उठाये जाने चाहिए थे, ऐसी नीतियां बननी चाहिए थीं, जो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को सर्वव्यापी बनाते. परंतु वैसा नहीं हुआ. परिणाम सामने है - जिस समाज की जनता अपने मंत्री-संतरी का नाम भी नहीं जानेगी, वहां प्रशासन में उसकी भागीदारी क्या होगी, वहां का प्रजातंत्र कैसा होगा? पेश है लेख की पहली कड़ी.

कहते हैं शिक्षा हो तो सब-कुछ है. कहते हैं कि कुछ नहीं बचता है, तो शिक्षा बची रह जाती है. शिक्षा एक ऐसा धन है जिसे आप से कोई नहीं छीन सकता है. जब अन्य कोई साधन नहीं काम करता है, शिक्षा तब भी काम करती है. शिक्षा है, तभी हम मनुष्य हैं. तथापि, स्वतंत्र भारत में, स्वतंत्र बिहार-झारखंड में विशेषत: सामान्य रूप में से शिक्षा का क्षेत्र उपेक्षित रहा एवं गलत नीतियों का शिकार रहा.

जापान, सिंगापुर, हांगकांग एवं यूरोप के क ई देशों की समृद्धि एवं सत्ता उनके प्राकृतिक साधनों के कारण नहीं है, वह उनके नागरिकों की शिक्षा के कारण है. इन देशों में हर नागरिक कम से कम प्राथमिक शिक्षा तो प्राप्त कर ही चुका है. साथ ही इन देशों में शिक्षा का स्तर भी बहुत ऊंचा है. इन स्कूलों के बाद यदि वे और शिक्षा नहीं भी प्राप्त करते हैं, तब भी दैनिक जीवन की आवश्यकताएं पूरी करने लायक लिखना-पढ़ना-बोलना-सुनना एवं सामान्य ज्ञान तो इन्हें आ ही जाता है.

ब्रिटिश पूर्व तक के भारत में कम से कम इतनी शिक्षा की व्यवस्था तो प्राय: हर गांव में थी. 19वीं सदी के पूर्वार्ध में विलियम आदम के द्वारा गवर्नर जनरल की काउंसिल के आदेश पर किये गये सर्वेक्षण ने इस बात की एक बार फिर पुष्टि की थी. पारिवारिक व्यवसाय की शिक्षा परिवार से मिल जाती थी, परंतु उन दिनों भी लिखने-पढ़ने की शिक्षा सबों को उपलब्ध नहीं थी. यह एक प्रधान कारण है कि क्यों आकार एवं संख्या में विशाल होते हुए भी भारत पिछले एक हजार वर्षो में एक शक्तिशाली देश नहीं रहा है.

हमारे यहां न्यूनतम शिक्षा भी सर्वव्यापी नहीं रही है. हिंदुओं में भी नहीं. मुसलमानों में भी नहीं. महिलाओं को लिखना-पढ़ना नहीं सिखायेंगे, तो आधी आबादी तो यूं ही वंचित रह गयी. आश्चर्य की बात यह है कि ब्राह्मण तथा अन्य कथित ऊंची जातियों ने भी अपनी बेटियों को शिक्षा से वंचित रखा. वेद और कुरान में इसकी कोई मनाही नहीं है. फिर भी इन दोनों ही समुदायों में ऊंचे, धनी, तथा अन्य प्रकार से शिक्षित परिवारों में भी लड़कियां बस घर पर कौड़ी खेलती रहीं. पता नहीं हम कैसे भविष्य की कल्पना कर रहे थे. पिछड़ी जातियों में स्त्री-पुरुष में पारिवारिक व्यवसाय के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता नहीं समझी गयी. मिला-जुला कर समाज का बहुत बड़ा अंश सदियों तक अशिक्षित रहा. बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश आदि में कुछ ज्यादा ही.

जिस समाज में यह शिक्षा सबों को उपलब्ध थी, उनमें समृद्धि, सत्ता, प्रगति आदि सब कुछ स्वत: आयी. देश की आबादी का पांच प्रतिशत से भी कम होते हुए ईसाई समाज का जो वर्चस्व एवं जो इसकी प्रतिष्ठा है, वह इस समाज में सर्वव्यापी शिक्षा के अवसर के कारण ही है. कुछ यही स्थिति, यही कारण सिख, जैन तथा बोहरा समाज की सफलता एवं प्रतिष्ठा के साथ भी है.

जैसा मैंने पहले कहा है हांगकांग, सिंगापुर, जापान, दक्षिण कोरिया एवं अब मलयेशिया में भी है. कुछ देशों में प्राथमिक शिक्षा के अवसर से संबंधित आंकड़े (बाक्स में देखें) देखे यदि 461 जिलों का अखिल भारतीय औसत देखें, तो एक सामान्य प्राथमिक पाठशाला में प्रति स्कूल 3.70 शिक्षक ही होते हैं. केरल में 9.85 का औसत भारत का श्रेष्ठतम एवं बिहार के स्कूलों में मुश्किल से दो शिक्षक प्रति स्कूल का औसत इसे भारत की प्राथमिक शिक्षा का न्यूनतम सुविधा वाला राज्य बना देता है. अखिल भारतीय स्तर पर सरकारी प्राथमिक पाठशालाओं में 3,160,000 शिक्षक मात्र हैं, जबकि दस वर्ष में कम आयु के बच्चों की संख्या करोड़ों में है.

स्वतंत्रता के 65 वर्षो बाद भी शिक्षा जैसे बुनियादी विषय पर समाज की ऐसी दयनीय स्थिति चिंता एवं खेद का कारण है. हमारी गरीबी, हमारा पिछड़ापन, शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में हमारे उत्साह एवं प्रयास के अभाव का ही परिणाम हैं. स्वतंत्रता के बाद ही ऐसे कदम उठाये जाने चाहिए थे, ऐसी नीतियां बननी चाहिए थीं जो शिक्षा के गुण एवं मात्र दोनों को सर्वव्यापी बना देते. परंतु वैसा नहीं हुआ. परिणाम सामने है - जिस समाज की जनता अपने मंत्री-संतरी का नाम भी नहीं जानेगी वहां प्रशासन में उसकी भागीदारी क्या होगी, वहां का प्रजातंत्र कैसा होगा? खेद की बात यह है कि देश की स्वतंत्रता के बाद स्थिति इस दिशा में बिगड़ी ही है. आबादी के अनुपात में शिक्षा के अवसर नहीं बढ़े हैं, और शिक्षा की क्वालिटी, इसकी गुणवत्ता तो जैसा उर्दू में कहते हैं काबिल-ए-जिक्र, चर्चा करने योग्य भी नहीं है. ऐसा क्यों हुआ है और यह स्थिति कैसे बदलेगी व शिक्षा विशेषत: प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में जो गुण व अवसर का ह्रास हुआ है, उसके कारण क्या हैं, उसका निदान क्या है? इस लेख में सरकार एवं समाज का ध्यान आकर्षित करने के लिए मैं कुछ विचार रखना चाहता हूं.
जारी..
(लेखक आइआइटी मद्रास में मानविकी एवं समाज विज्ञान के प्रोफेसर है)