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कहां पहुंची यह मूक क्रांति!- कमल नयन चौबे

प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री क्रिस्टोफ जेफरलॉट ने अपने लेख ‘कास्ट एंड राइज ऑफ माजिर्नलाइज्ड ग्रुप्स' में राजनीतिक रूप से शक्तिशाली रही अभिजन जातियों के वर्चस्व को चुनौती देते हुए मध्यवर्ती जातियों के उभार को सत्ता के हस्तांतरण के तौर पर देखा है और इसे एक मूक क्रांति की संज्ञा दी है.

 

लेकिन क्या यह मूक क्रांति वास्तव में अपने लक्ष्यों को लेकर आगे बढ़ रही है? क्या जाति आधारित राजनीति में साधन यानी सत्ता ही साध्य तो नहीं बन गयी है? क्या अस्मिता की राजनीति सिर्फ चुनाव जीतने का अस्त्र मात्र बन कर रह गयी है? इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच द्वारा उत्तर प्रदेश में जाति आधारित रैलियों पर लगाये गये अस्थायी प्रतिबंध के बाद उठ रहे ऐसे ही सवालों के जवाब खोजने की कोशिश कर रहा है आज का नॉलेज..

 

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दलों द्वारा जाति आधारित सम्मेलनों पर अस्थायी रूप से रोक लगाने का आदेश दिया है. इस आदेश से राजनीति में जाति की भूमिका और इसकी सीमाओं के बारे में कई सवाल खड़े हो गये हैं.

 

बसपा जैसी पार्टियों की दलील है कि जाति आधारित रैलियां या सम्मेलन सदियों तक शोषण और दमन का शिकार हुई जातियों को एकजुट होने और अपने हक के लिए राजनीतिक गोलबंदी का आधार देती हैं. मायावती ने अपने ब्राह्मण सम्मेलनों को सामाजिक समरसता लानेवाला कदम करार दिया है. दूसरी ओर, जाति को एक पुरातन सामाजिक रूढ़ि मानने वाले लोगों ने उच्च न्यायालय के इस आदेश का स्वागत किया है.

 

यह दलील दी जा रही है कि असल में जाति की आड़ में लोगों की असल समस्याओं की उपेक्षा की जाती है और लोकतांत्रिक राजनीति अजीब-अजीब तरह के जातिगत समीकरणों और जातिगत रैलियों का खेल बनकर रह जाती है. यहां कुछ सवालों पर विचार करने की आवश्यकता है.

 

मसलन, क्या राजनीति में जाति को गोलबंदी का आधार बनाने को जातिवादी राजनीति की संज्ञा देना ठीक है? क्या जाति आधारित राजनीति का प्रयोग हालिया परिघटना है या इसकी जड़ें अतीत से जुड़ी हुई हैं? क्या सच में इस तरह की राजनीति ने जनता से जुड़े असली मुद्दों को पीछे करने का काम किया है?

 

भारतीय समाज की खासियत

 

इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं है कि जाति भारतीय सामाजिक व्यवस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है. इसमें ऊंचे से ऊंचे और नीचे से नीचे व्यक्ति को अलग-अलग हैसियत मिल जाती है. यह सभी को जातिगत पहचान के जरिये संगठित होने का मौका भी देती है.

 

इसी कारण, आज भारत की लोकतांत्रिक राजनीति के विश्लेषण में जातिगत समीकरणों की बात की जाती है और उसके आधार पर चुनावी राजनीति का विश्लेषण किया जाता है. इसलिए कई बार भारत के उदारवादी लोकतंत्र की आलोचना की जाती है और कहा जाता है कि असल में यह उदारवादी लोकतंत्र का एक विकृत रूप है.

 

लोकतंत्र के लिए खतरा!

 

आमतौर पर जाति और राजनीति के संबंधों को संदेह की नजर से देखा जाता रहा है. राजनीति में जातिवाद की शिकायत करते हुए अक्सर इसे लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरा माना जाता रहा है. लोकतांत्रिक राजनीति को आधुनिकता और जाति को परंपरा का प्रतीक मानते हुए दोनों के विरोधाभासी संबंध पर जोर देने की प्रवृत्ति रही है.

 

मालूम हो कि अनेक रानजीतिक सिद्धांतकारों ने जाति और राजनीति के संबंध में बहुत गहराई से विचार किया. मसलन, रूडोल्फ और रूडोल्फ ने 1967 में प्रकाशित अपनी किताब ‘मॉडर्निटी ऑफ ट्रेडिशन' में यह तर्क दिया कि जाति एक पारंपरिक संरचना है, लेकिन आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसका आधुनिकीकरण हो गया है.

 

इस लिहाज से उन्होंने इसे जाति के लोकतांत्रिक पुनर्जन्म और परंपरा के आधुनिकीकरण की संज्ञा दी. लेकिन राजनीति में जाति की भूमिका के परीक्षण के बारे में रजनी कोठारी ने सबसे महत्वपूर्ण योगदान दिया.

 

वर्ष 1970 में इन्होंने अपनी संपादित किताब ‘कास्ट इन इंडियन पॉलिटिक्स' में देश के विविध राज्यों के अध्ययन से हासिल अनुभव के आधार पर यह बताया कि किस तरह लोकतांत्रिक राजनीति में जातियां जबरदस्त भूमिका निभा रही हैं. उनके अनुसार, लोकतांत्रिक राजनीति ने जातियों का राजनीतिकरण किया है और जातियां संगठित होकर अपने हक के लिए लड़ रही हैं.

 

आज सत्ता पर कब्जा करने के लिए विभिन्न जातियों में गठंबधन कायम हो रहा है. इसने जाति को पारंपरिक कर्मकांड पर आधारित व्यवस्था के बजाय एक समस्तरीय और प्रतियोगी व्यवस्था में तब्दील कर दिया है. यह जाति के पारंपरिक रूप के कमजोर होने का प्रमाण है.

 

इतिहास है पुराना

 

असल में, भारत में औपनिवेशिक दौर में और आजादी के बाद भी जाति को आधार बनाकर परिवर्तनकारी राजनीति करने की कोशिशें हुईं. दक्षिण भारत में रामास्वामी नायकर पेरियार के नेतृत्व में ब्राह्मण विरोधी आंदोलन चला. अंबेडकर ने दलितों में राजनीतिक चेतना भरने की पुरजोर कोशिश की.

 

उन्होंने जाति पर जोरदार हमला बोला और अपने लेखन में राजनीतिक गतिविधियों द्वारा दलितों को एकजुट करने की कोशिश की. राष्ट्रवादी आंदोलन में गांधी ने जाति को खत्म करने का लगातार प्रयास किया. यद्यपि वे वर्ण व्यवस्था के संपूर्ण उन्मूलन की बात नहीं करते थे, वे इसके आदर्श रूप की कल्पना करते थे.

 

लेकिन उन्होंने जाति को पूरी तरह खारिज किया. जीवन के आखिरी वर्षो में सिर्फ अंतरजातीय विवाहों में ही वे आशीर्वाद देने जाते थे.

 

अस्मिताओं को मिली अभिव्यक्ति

 

बहरहाल, पिछड़े समूहों ने इस दौर में अपनी अस्मिता को अभिव्यक्त करने के लिए जाति को इस्तेमाल किया. इसकी बुनियाद में प्रभुत्वशाली जातियों के वर्चस्व को तोड़ने की स्पष्ट मंशा थी. इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि 1925 में बिहार में यादव, कुर्मी और कोयरी जाति के लोगों ने मिल कर एक ‘त्रिवेणी संगम' की स्थापना की.

 

आजादी के बाद के दौर में डॉ राम मनोहर लोहिया ने पिछड़ों की राजनीतिक गोलबंदी करके कांग्रेस और ऊंची जातियों के वर्चस्व को तोड़ने की कोशिश की. नेहरू युग में कांग्रेस की राजनीति में अमूमन ऊंची जातियों का प्रभाव था. लोहिया ने पिछड़ी जातियों के राजनीतिकरण पर जोर दिया.

 

जैसे-जैसे इन जातियों का राजनीतिकरण हुआ, उन्होंने लोकतांत्रिक राजनीति में अपनी हिस्सेदारी की मांग करनी शुरू कर दी. 1967 के चुनावों के बाद कई राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारें बनीं. वर्ष 1977 में और 1989 के बाद इन प्रवृत्तियों को और ज्यादा बढ़ावा मिला. इस संदर्भ में वीपी सिंह सरकार द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के फैसले ने जबरदस्त भूमिका अदा की.

 

सरकारी नौकरियों में पिछड़ी जातियों को आरक्षण दिये जाने के फैसले का ऊंची जाति के युवाओं ने जोरदार विरोध किया. अब तक राजनीतिक परिदृश्य में पिछड़ी जातियों के कई नेता भी सामने आ चुके थे. इन नेताओं ने पिछड़ी जातियों को गोलबंद करने का काम किया. इस संदर्भ में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार का नाम उल्लेखनीय है. इस दौर में पिछड़ी जातियों के उभार ने सांप्रदायिक शक्तियों को भी जोरदार चुनौती दी.

 

वर्ष 1993 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में सपा-बसपा गठबंधन द्वारा भाजपा को हराना इसका एक प्रमाण है. उत्तर प्रदेश में बसपा का उभार लेना दलितों की एकजुटता का ही प्रमाण है. दूसरे राज्यों में भी पिछड़ी जातियों के नेता उभर कर सामने आये. राजनीति में हुए इस बदलाव से सामंजस्य बिठाने के लिए कांग्रेस-भाजपा ने भी पिछड़े-दलित नेताओं को आगे बढ़ाया.

 

बुनियादी सवालों की अनदेखी

 

बहरहाल, जातियों के राजनीतिकरण के इन सकारात्मक पहलुओं के बावजूद इसके कई नकारात्मक परिणाम भी देखने को मिले. पहला, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में लोगों की जिंदगी से जुड़े बुनियादी सवालों पर बहुत कम ध्यान दिया गया और पहचान की राजनीति ही असली राजनीति बन गयी.

 

लालू युग के बिहार और सपा-बसपा दौर के उत्तर प्रदेश के बारे में यह बात स्पष्ट तौर पर कही जा सकती है. दूसरा, इसने जाति की पारंपरिक भूमिका को कमजोर किया, लेकिन जाति को खत्म करने का लक्ष्य कहीं बहुत पीछे छूट गया. स्पष्टत: जब मायावती और मुलायम सिंह यादव ब्राह्मणों को खुश करने के लिए ‘परशुराम जयंती' मनाते हैं, तो यह भीमराव आंबेडकर या राम मनोहर लोहिया के विचारों के अनुरूप राजनीति नहीं कही जा सकती.

 

तीसरा, पिछड़ी और दलित जातियों के उभार की खूब तरफदारी करने के बावजूद हम एक ऐसे समाज की कल्पना नहीं चाहेंगे जो अनंत काल तक हर किसी को उसकी जाति की पहचान से बांध दे. चौथा, इस तरह की राजनीति ने समाज के विभिन्न तबकों के बीच के असमान आर्थिक संबंधों में बदलाव करने का कोई मॉडल पेश नहीं किया. यह ज्यादा-से-ज्यादा ऊंची जातियों की जगह कुछ पिछड़ी जातियों या दलित जातियों के वर्चस्व का पर्याय बन कर रह गया.

 

वोट हासिल करने की कवायद

 

इस लिहाज से यह कहना गलत नहीं होगा, कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का जातिगत रैलियों पर अस्थायी रोक लगाना, अतिवादी और जड़ किस्म की जातिगत पहचान की राजनीति के खिलाफ सख्त टिप्पणी है. मसलन, ब्राह्मण सम्मेलन या परशुराम जयंती किसी दबे-कुचले समूहों को जागरूक करने की कोशिश नहीं है.

 

असल में, यह वोट के लिए एक खास समूह को लुभाने की कवायद भर है. कई लोग यह तर्क दे सकते हैं, कि इसमें गलत क्या है? अगर ऊंची जातियां एक समूह के रूप में हैं और कोई पार्टी उन्हें उचित प्रतिनिधित्व और सम्मान देने का वादा करती है, तो इसे गलत क्यों माना जाना चाहिए? असल में, इस तरह का तर्क जातियों के स्थायीकरण में विश्वास का प्रतीक है और निश्चित रूप से इसे गांधी, आंबेडकर या लोहिया की राजनीति से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता.

(लेखक, नयी दिल्ली स्थित नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी में जूनियर फेलो हैं)

 

अकसर यह समझा जाता है कि जाति की राजनीति बिहार और उत्तर प्रदेश की खासियत है. लेकिन हकीकत में देश के अधिकांश राज्यों में कास्ट फैक्टर अपनी भूमिका निभाता है. 2014 में अनुमानित लोकसभा चुनावों में उम्मीदवारों के चयन में कांग्रेस की ओर से जाति फैक्टर का खयाल रखे जाने की चरचा हो रही है.

 

एक खबर के मुताबिक पार्टी के शीर्ष स्तर से लोकसभा की सभी 543 सीटों पर मौजूदा जाति समीकरण की रिपोर्ट मांगी गयी है. जाति का यह महत्व दक्षिणी राज्यों के चुनावी गणित से भी समझा जा सकता है. आंध्र प्रदेश की राजनीति में पिछले 50 वर्षो से मुख्य रूप से दो जातियों-रेड्डी और कम्माओं का वर्चस्व रहा है. पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान तेलुगू के स्टार चिरंजीवी ने कपूस जाति के लोगों को अपनी ओर खींचने में कामयाबी हासिल की.

 

कर्नाटक में विभिन्न किसान जातियों मसलन मोरासुई, हेल्लिकर, हलू, नोनाबाद जैसी जातियों से ही वोक्कालिंगा जाति अस्तित्व में आयी, जो वहां जनता दल (सेकुलर) का मुख्य आधार मानी जाती है. वहीं पिछली बार कर्नाटक में भाजपा को मिली जीत में लिंगायत समुदाय का हाथ माना गया था. येदियुरप्पा लिंगायतों के ही नेता माने जाते हैं.

पीके रिसर्च

 

राजनीति की जड़ों को मजबूती मिली

 

इस अतिवादी और जड़ किस्म की पहचान की राजनीति के विरोध के बावजूद इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि जाति की राजनीति ने भारतीय लोकतंत्र को कुछ गहराई दी है. इसने पिछड़ी और दलित जातियों के उभार का रास्ता तैयार किया है और जाति की कर्मकांडीय भूमिका को सीमित किया है.

 

बिहार जैसे राज्यों में राजनीति के मंडलीकरण के बाद उसका ज्यादा गतिशील रूप भी सामने आया है, जिसमें नेतृत्व एक पिछड़ी जाति यादव से दूसरी पिछड़ी जाति-कुर्मी के हाथों में गया. यहां अति पिछड़ी जातियों और पसमांदा मुसलमानों में भी राजनीतिक जागरूकता आयी है.

 

इसके अलावा, यह भी सच है कि निकट भविष्य में देश के किसी भी राज्य में जाति की राजनीति से मुक्ति का कोई रास्ता नहीं दिखता है. लेकिन शायद इस बारे में हमेशा जागरूक रहने और चरचा करते रहने की आवश्यकता है, ताकि जातियों का राजनीतिकरण, जातियों के स्थायीकरण की राजनीति में तब्दील न हो.