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कहीं बैंकों से भरोसा ना उठ जाय-- बिभाष कुमार श्रीवास्तव

अमेरिका में आए 2008 के वित्तीय भूचाल से पूरी दुनिया में अफरा-तफरी मच गई थी। बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को सरकार ने बेल-आउट पैकेज के माध्यम से उबारा। बेल-आउट का जबर्दस्त विरोध किया गया। लोगों ने कहा कि ‘करदाताओं' के पैसे से किसी विफल होती संस्था को उबारना नैतिक खतरे (मोरल हजार्ड) पैदा करता है। तब वित्तीय मामलों के जानकारों की तरफ से ‘बेल-इन' की नई अवधारणा पेश की गई। अमेरिकी कांग्रेस ने बैंक और वित्तीय संस्थाओं के ऊपर मंडराने वाले किसी खतरे से निपटने के लिए पांच जनवरी, 2010 को ‘डॉड-फ्रैंक वॉल स्ट्रीट रिफॉम्र्स ऐंड कंज्यूमर प्रोटेक्शन ऐक्ट' पारित किया। इस बिल को महामंदी के बाद सबसे व्यापक वित्तीय सुधार के रूप में देखा गया है। इस बिल के ‘टाइटल 2' में बेल-इन का प्रावधान किया गया है। लोकसभा में 10 अगस्त, 2017 को वित्त मंत्री द्वारा पेश किए गए ‘फाइनेंशियल रिजोल्यूशन ऐंड डिपोजिट इंश्योरेंस बिल' (एफआरडीआई) की जड़ें अमेरिका के इस कानून में तलाशी जा सकती हैं। बेल-इन का सीधा मतलब है, संकट के समय बैंक और वित्तीय संस्थाएं अपने अंदर से ही अपना इलाज तलाशें। करदाताओं के धन से उन्हें उबारा नहीं जाएगा।


इस बिल को संसद की संयुक्त समिति को अपनी सिफारिशों के लिए दे दिया गया है। यह बिल पिछले एक महीने से एकाएक सोशल मीडिया, अखबारों और टीवी पर बहस का केंद्र बनकर उभरा है। भारत में बैंकों के दिवालिया होने के संबंध में कोई कानून नहीं है। अब तक जो होता रहा है, वह यह कि भारतीय रिजर्व बैंक दिवालिया होते बैंक को किसी अन्य बैंक में विलय करने का आदेश देता था। मौजूदा प्रावधानों के अंतर्गत एक बैंक में एक हैसियत से जमा एक लाख रुपये तक की राशि का ही बीमा उपलब्ध है। उससे अधिक की जमा राशि का कोई बीमा नहीं है। ऐसे में, अगर बैंक दिवालिया घोषित कर दिया जाए, तो एक लाख से अधिक की जमा रकम का वापस मिलना मुश्किल है। लेकिन बैंकों के जबर्दस्ती विलय से सारी रकम सुरक्षित रहती है। इस प्रकार बैंकों में लोगों का विश्वास बना रहता है।


नए बिल को लेकर लोगों के मन में संशय घर कर गया है। अगर डॉड-फ्रैंक ऐक्ट को पढ़ें, तो स्पष्ट है कि वित्तीय संस्थाओं के क्रिया-कलाप और निगरानी को लेकर यह बहुत ही व्यापक है। इसकी तुलना अगर भारत के बिल से की जाए, तो यह अमेरिका के ऐक्ट का एक हिस्सा लगता है। बैंक विफल न हों, उन पर नजर रखने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक के पास असीमित अधिकार हैं, फिर भी बैंक संकट में हैं। एफआरडीआई बिल वित्तीय सेक्टर के बस एक ही रोग का निदान प्रस्तुत करता है। पुरानी कहावत है कि इलाज से ज्यादा आवश्यक है बीमारी की रोकथाम। टुकड़ों में वित्तीय सुधार लाने से लोगों के मन में भय पैदा होगा ही। सरकार को बैंक सहित वित्तीय सेक्टर पर निगरानी के लिए एक व्यापक फ्रेमवर्क तैयार करना पडे़गा, जिससे लोगों के मन में भरोसा पैदा हो कि वित्तीय सेक्टर का दिवालिया होना मुश्किल है। बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के दिवालिया होने या उनको दिवालिया घोषित करने की प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए, अन्यथा लंबी अवधि की योजना बनाकर कुछ समूह कोई धोखाधड़ी कर सकते हैं। इसके लिए जरूरी है कि बैंकों की कार्य-प्रणाली की लगातार सघन जांच होती रहे।


नए बिल के माध्यम से एक नया रेगुलेटर यानी नियामक खड़ा किया जा रहा है। इससे बैंकों की स्वतंत्र कार्य-प्रणाली में बाधा आ सकती है। बैंकों की कार्य-प्रणाली की निगरानी व जांच के लिए देश में कई संस्थाएं पहले से ही मौजूद हैं। ‘रिजोल्यूशन कॉरपोरेशन' को खड़ा करने के बाद एक नया हस्तक्षेप तैयार हो जाएगा। इस कॉरपोरेशन के माध्यम से बैंकों की कार्य-प्रणाली में केंद्र सरकार का दखल ज्यादा बढ़ जाएगा। इससे भारतीय रिजर्व बैंक, सेबी, इरडा जैसी नियामक संस्थाओं के अधिकार कम हो जाएंगे। कॉरपोरेशन के सदस्यों को चुनने और इसकी कार्य-प्रणाली पर सरकार के नियंत्रण से राजनीतिक दखल बढ़ सकता है। यह स्वस्थ वित्तीय क्षेत्र की अवधारणा को कमजोर कर सकता है। फिर पदेन (एक्स ऑफिशियो) सदस्यों के अतिरिक्त सदस्यों के चयन को लेकर कोई स्पष्ट प्रक्रिया का उल्लेख इस बिल में नहीं है। कॉरपोरेशन के सदस्यों में किसी बैंक आदि संस्था के सदस्य को शामिल करने का कोई जिक्र बिल में नहीं है।


रिजोल्यूशन की प्रक्रिया में जिन जमा राशियों को नहीं छुआ जाएगा, उनमें से एक है विदेशों से प्राप्त जमा राशि। रोज रिपोर्ट आती रहती है कि भारत से धन विदेशों में लगातार जाता रहता है। बिल के इस प्रावधान का उपयोग कर साधन संपन्न और रसूखदार लोग अपना धन देश के बाहर भेजकर वापस भारतीय बैंकों में जमा करके उसे सुरक्षित रख सकते हैं। बड़ा मुश्किल होगा देश के बाहर से प्राप्त होने वाले धन के स्रोतों पर निगरानी रखना। ऐसे में, गरीब जमाकर्ता ठगा हुआ महसूस करेगा। फिलहाल संयुक्त समिति ने इस बिल पर अपनी सिफारिशें संसद को भेज दी हैं। चूंकि सिफारिशें सार्वजनिक नहीं की गई हैं, इसलिए अभी ठोस तरीके से कुछ भी कहना उचित नहीं होगा। लेकिन बेल-इन की प्रक्रिया की भी अपनी सीमाएं हैं। सवाल यह है कि बेल-इन से प्राप्त राशि भी जब काफी न हो, तब आखिर इससे कैसे निपटा जाएगा? ऐसे में, अंतत: मामला सरकार के पास ही आएगा। बेल-इन की प्रक्रिया के दौरान जमाकर्ताओं को जमा राशि के एवज में बैंकों के शेयर और बांड दिए जा सकते हैं। लेकिन इन शेयर और बांड की कीमत को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी भी तो तय होनी चाहिए। भारत में बांड बाजार बराए नाम है। बिल को अधिनियमित करने के साथ इन बिंदुओं पर भी विचार करना चाहिए।अमेरिका में भी डॉड-फ्रैंक बिल को लेकर आम लोगों में यही प्रतिक्रिया है, जो भारत में देखने को मिल रही है। ‘बेल-इन' एक नया प्रयोग है। यह साइप्रस में बहुत सफल नहीं रहा है। मगर यदि वित्तीय सुधारों में लोगों का भरोसा जगाना है, तो आम जन में उठ रही आशंकाओं का निवारण करना ही पडे़गा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)