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कहीं सूखे ही न रह जायें खेत- जयंतीलाल भंडारी

विगत 26 अप्रैल को ऑस्ट्रेलियाई मौसम ब्यूरो (एडबल्यूबी) ने कहा कि प्रशांत महासागर में समुद्र की सतह गरम होने की वजह से अल नीनो के भारत आने की आशंका सामान्य से तीन गुना ज्यादा है। इससे देश के दक्षिण-पश्चिम मानसून पर प्रतिकूल प्रभाव होगा। इसी तरह की चिंताजनक बात भारतीय मौसम विभाग ने भी अपनी रिपोर्ट में कही है। कहा गया है कि इस वर्ष अल नीनो की वजह से दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान भारत में होने वाली बारिश सामान्य की तुलना में 93 फीसदी रह सकती है। इससे खासकर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान और गुजरात जैसे राज्यों में खेती प्रभावित हो सकती है, क्योंकि यहां कृषि काफी हद तक मानसून पर निर्भर है। ऐसे वक्त में, जब किसान मौसम की मार लगातार झेल रहा है, मौसम विभाग की यह चेतावनी किसानों को और हलकान करेगी।

उल्लेखनीय है कि दक्षिण पश्चिम मानसून न केवल खरीफ की फसल पर प्रत्यक्ष रूप से असर डालता है, बल्कि रबी को भी प्रभावित करता है। देश में कुल खाद्यान्न उत्पादन में खरीफ की फसल का लगभग आधा योगदान रहता है। धान, कपास, सोयाबीन, जूट, मूंगफली इत्यादि खरीफ की प्रमुख फसलें हैं, जिनकी बुआई जून में शुरू हो जाती है, और कटाई का सिलसिला सितंबर से शुरू होता है। चूंकि देश का 14 करोड़ से अधिक परिवार खेती पर निर्भर है, इसलिए कम बारिश की स्थिति में खेती-किसानी से जुड़े अधिकांश छोटे किसानों का जीवन सर्वाधिक प्रभावित होता है। खासकर वैसे किसान बुरे फंसते हैं, जिन्हें कृषि के लिए संस्थागत ऋण और अन्य सुविधाओं का लाभ संतोषप्रद रूप से नहीं मिला है। चिंताजनक यह भी है कि इस वर्ष कमजोर मानसून के कारण इस संभावना को भी आघात लगेगा कि रबी की फसल में हुए नुकसान की भरपाई खरीफ के मौसम में भारी-भरकम पैदावार के जरिये की जा सकती है। इस वजह से अधिकांश कृषि जिंसों की आपूर्ति और मूल्य पर असर पड़ेगा। चूंकि कई महत्वपूर्ण उद्योगों जैसे सोयाबीन, टेक्सटाइल, शक्कर मिल, दाल मिल आदि सीधे तौर पर कृषि पर निर्भर हैं, जबकि कई उद्योगों को अप्रत्यक्ष तौर पर कृषि उत्पादों की जरूरत होती है। ऐसे में, कृषि आधारित उद्योगों के उत्पाद महंगे हो सकते हैं।

देश में मानसून के कमजोर होने की आशंका के मद्देनजर केंद्र और राज्य, दोनों को सतर्क रहना होगा और आकस्मिक फसल योजना की पूरी तैयारी रखनी होगी। सूखा प्रबंधन कौशल का उपयोग तो करना ही होगा, फसल में अपर्याप्त आर्द्रता और उत्पादन में कमी से निपटने के उपायों पर भी जोर देना होगा। इसके साथ ही, फसल बुआई तथा कच्चे माल के इस्तेमाल में भी बदलाव लाना होगा। जरूरत फसल बीमा पर भी ध्यान देने की है। अभी देश के कुल किसानों में से पांच फीसदी से भी कम किसानों ने फसल बीमा कराया है। इसकी बड़ी वजह फसल बीमा की ऊंची प्रीमियम का होना है। इस मामले में हम अमेरिका से सबक ले सकते हैं, जहां सरकार फसल बीमा प्रीमियम की राशि का 70 फीसदी हिस्सा वहन करती है। उम्मीद करनी चाहिए कि अपर्याप्त मानसूनी बारिश की मुश्किलों से निपटने के लिए सरकार न सिर्फ प्रबंधन क्षमता का सफल परिचय देगी, बल्कि यह प्रयास भी करेगी कि कृषि मानसून का जुआ ही न बनी रहे।