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काम नहीं तो सांसदों को कैसा वेतन-भत्ता? - कुलदीप नैयर

करीब 12 साल पहले मैं राज्यसभा का सदस्य था। किसी न किसी मुद्दे को लेकर सदन के कामकाज में बाधा पैदा की जाती थी। छह साल के अपने कार्यकाल में मैंने देखा कि कांग्रेस और भाजपा, दोनों इसके लिए एक-दूसरे से होड़ लेती रहती थीं। उनके जोश या तरीके में कोई अंतर नहीं था। कई बार वे एक-दूसरे से आगे निकल जाने की कोशिश करती थीं। मुझे लगता था कि हम सदस्य-गण लोगों के पैसे को बर्बाद कर रहे हैं। ऐसे में हमें भत्ते का लाभ नहीं लेना चाहिए, खासकर उस दिन जब हमने कोई भी कामकाज नहीं किया हो।

मैंने सभापति को पत्र लिखा कि जिस दिन सदन की कार्यवाही बिना किसी कामकाज के स्थगित हो जाए, मैं उस दिन का भत्ता नहीं लेना चाहता हूं। कुछ सदस्यों की राय से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि वे 'काम" कर रहे हैं, क्योंकि दिन के आखिर में सदन का सचिवालय दिनभर की कार्यवाही के सार को पेश करने के लिए बुलेटिन निकालता है। अगर कोई कामकाज नहीं होता तो बुलेटिन भी यही बताता है। सभापति ने मेरी अर्जी को कानून मंत्रालय को भेज दिया, क्योंकि ऐसा मामला पहले कभी नहीं आया था। कानून मंत्रालय ने मेरी दलील को सही माना। रोज के भत्ते में से उस दिन का मेरा भत्ता काट लिया जाता था, जिस दिन सदन में कोई कामकाज नहीं होता था।

सभापति ने सदन की कामकाज समिति को भत्ता काटने की जानकारी दी। किसी भी पार्टी, जिसमें वामपंथी भी शामिल थे, ने इस विचार से सहमति नहीं जाहिर की और इसे सदस्यों की अपनी इच्छा पर छोड़ दिया। मैंने कानून मंत्रालय की राय को लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के पास भेज दिया। मुझे लगता है, उन्होंने इसे कामकाज समिति के सामने रखा, लेकिन उसने इसे खारिज कर दिया।

मैं उम्मीद करता हूं कि लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने जिन 25 सदस्यों को निलंबित किया था, वे महाजन को पत्र लिखकर कहेंगे कि वे दैनिक भत्ते के हकदार नहीं हैं, क्योंकि वे सदन में मौजूद नहीं थे। यदि यह रिवाज बन जाता है तो सदस्य पूरी तरह बेलगाम नहीं होंगे। जबसे संसद की कार्यवाही का प्रसारण होने लगा है, सदस्यों का पहनावा सुधरा है। पहले कुछ सदस्य रात में पहनने वाले पाजामे में ही आ जाते थे।

मैंने लोगों के सामने अपना उदाहरण इसलिए रखा ताकि बता सकूं कि मिसाल पहले से मौजूद हैं। सांसद अपने-अपने अंदर झांककर देखें कि क्या दैनिक भत्ते लेना उनके लिए सही है, जब उन्होंने जरा भी काम न किया हो। फिर भी, यह उस बड़े सवाल का जवाब नहीं देता कि संसद के काम करने का तरीका कैसे सुधरे? कांग्रेस ने ठान लिया है कि यह सत्र को चलने नहीं देगी जब तक सुषमा स्वराज और राजस्थान व मध्य प्रदेश के 'भ्रष्ट मुख्यमंत्री" पद नहीं छोड़ते।

कांग्रेस की मांग कितनी भी वजनदार क्यों न हो, आरोपों को पुष्ट करने के लिए एक मुकम्मल जांच की जरूरत है। सुषमा स्वराज के इस्तीफे की कांग्रेस की मांग उचित नहीं है। उनके खिलाफ ज्यादा से ज्यादा अपने विवेक के दुरुपयोग का आरोप है कि उन्होंने भगोड़े ललित मोदी को कैंसर से पीड़ित पत्नी को देखने के लिए पुर्तगाल जाने की इजाजत दी। इसमें पैसे का कोई मामला नहीं है। इसे भ्रष्टाचार का मामला बनाना अनुचित है।

बड़ा सवाल संसद के सत्र का है। कांग्रेस की दलील है कि वह वही कर रही है, जो भाजपा करती रही है। यह तर्क न तो नैतिक रूप से उचित है और न ही बौद्धिक रूप से सही कहा जा सकता है। एक गलती दूसरी गलती को सही नहीं ठहरा देती। आम तौर पर अच्छा व्यवहार करने वाली सोनिया गांधी से मैं दु:खी हूं। वह भीड़ का नेतृत्व कर रही हैं और नारे लगा रही हैं। उनकी पूरी सोच और काम बचकाना है।

याकूब मेमन की फांसी पर मुस्लिम समुदाय के बड़े हिस्से की सांप्रदायिक प्रतिक्रिया अचरज में डालने वाला है। सुप्रीम कोर्ट समेत अलग-अलग कोर्ट में उसकी सुनवाई हुई। सभी ने उसे 1993 के मुंबई बम धमाकों का दोषी पाया। फिर भी, मेरी राय है कि उसे दिए गए मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदला जाना चाहिए था, क्योंकि एक तो उसने सरकार के साथ सहयोग किया और दूसरे, मुकदमे का सामना करने के लिए वह भारत आने को राजी हुआ।

इसका मतलब यह नहीं है कि वह दोषी नहीं था। उसके समर्थकों ने भी उसके बचाव में यह दलील नहीं दी है। उनका एक ही बात पर जोर था कि उसे फांसी नहीं दी जानी चाहिए। कोर्ट ने अपनी समझदारी में सोच की इस धारा को खारिज कर दिया। फैसले को न्याय का मजाक कैसे बताया जा सकता है? मुकदमे की सुनवाई में लगे पिछले 22 सालों में मेमन के समर्थकों ने उसे आजाद करने के सभी रास्ते अपनाए। सुप्रीम कोर्ट पहली बार आधी रात के बाद याकूब के जन्मदिन की अंतिम घड़ी में दी गई दलील को सुनने बैठा और उन्हें खारिज कर दिया। ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट भी यह पूरी तरह चाहता था कि दोषी को मामले से जुड़े नहीं होने की बात साबित करने का पूरा मौका मिले।

इस मामले को सांप्रदायिक बनाना खेद का विषय है। जिन मुसलमानों ने भी ऐसा किया है, उन्होंने हिंदूवादी ताकतों को मौका दिया है। परिस्थितियों को सांप्रदायिक बनाने वाले उदाहरणों से भारत की सोच में हमारा विश्वास कम नहीं होना चाहिए, जिसकी बुनियाद लोकतांत्रिक और सेक्युलर है। आजादी के हमारे आंदोलन की विचारधारा अनेकतावाद थी। कुछ लोग इसे नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने आजादी के आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया। उन्हें स्वतंत्रता संग्र्राम के उद्देश्य को पराजित करने की इजाजत नहीं दी जा सकती और न ही दी जानी चाहिए।

-लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं।