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'कार' बनाम 'बस' का सवाल - सुषमा रामचंद्रन

देश की राजधानी में हाल ही में हुए ऑटो एक्स्पो में जिस तरह से आकर्षक कारों के नए-नए मॉडल लॉन्च हुए, उन्हें देखकर किसी को भी यह गलतफहमी हो सकती थी कि भारत चौड़ी व चमचमाती सड़कों-राजमार्गों का देश है, जहां पर ट्रैफिक की कोई दिक्कत ही नहीं है और जहां गाड़ी चलाना एक सुखद संतोष का विषय है। जबकि हकीकत इससे ठीक उलट है।

वास्तव में भारत में सड़कों के नेटवर्क की बड़ी दुर्गति हुई है और यहां सड़क मार्ग से यात्रा करना बहुधा किसी दु:स्वप्न की तरह होता है। एक अंतहीन ट्रैफिक जाम में गाड़ियां रेंगती रहती हैं और लोग यातायात के नियमों का मनमानीपूर्वक उल्लंघन करते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि जब देश में पहले ही हालात इतने संगीन हैं तो फिर नई कारों की इतनी मांग क्यों है? जवाब बड़ा सरल है। ऐसा इसलिए, क्योंकि सार्वजनिक परिवहन के हाल इतने बदहाल हैं कि लोगों के पास निजी वाहन से यात्रा करने के अलावा कोई उचित विकल्प ही शेष नहीं रह जाता। यह एक स्वाभाविक सी ही बात है कि आज जिसके भी पास निजी वाहन की सुविधा होगी, वह सार्वजनिक परिवहन के बदहाल इंतजामों में तकलीफ झेलने के बजाय निजी वाहन की सहूलियत और निजता को ही प्राथमिकता देना चाहेगा। यहां मुंबई को जरूर एक अपवाद माना जाना चाहिए। या कम से कम दिल्ली से तो वह बेहतर ही है। मुंबई में लोकल ट्रेनों के नेटवर्क और सार्वजनिक बस परिवहन के कारण उन कामकाजी लोगों का जीवन सुगम हो गया है, जिन्हें रोज ही उपनगरीय इलाकों से चलकर शहर के बीचोंबीच स्थित प्रशासनिक-वाणिज्यिक केंद्रों तक की यात्रा करनी पड़ती है। बहरहाल, यह एक तुलनात्मक स्थिति ही है और लोकल ट्रेनों में हाल के दिनों में भीड़भाड़ लगातार बढ़ती चली गई है।

ऐसा नहीं है कि देश में ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री का पनपना कोई गलत बात है। भारत में दुनिया की बड़ी बहुराष्ट्रीय ऑटोमोबाइल कंपनियों द्वारा अपने मैन्युफेक्चरिंग प्लांट्स की स्थापना करना मेक इन इंडिया की सबसे सफल कहानियों में से एक है। देश के ऑटोमोबाइल क्षेत्र में सबसे पहले सुजुकी ने प्रवेश किया था। उसके बाद एक-एक कर होंडा, टोयोटा, हुंडई, फोर्ड और जनरल मोटर्स की गाड़ियां भारतीय बाजारों में उतरीं। यह परिघटना आर्थिक उदारीकरण के बाद अधिक तेजी से हुई है। कारों के आयात पर प्रतिबंधात्मक निर्देशों के कायम रहते ऐसा संभव नहीं था। देश में ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री फली-फूली तो तुलनात्मक रूप से सस्ते और प्रतिस्पर्धात्मक रूप से गुणवत्तापूर्ण कार मॉडल भी उपभोक्ताओं के सामने प्रस्तुत हुए। मारुति सुजुकी ने तो अपनी कारों के उपकरणों के एक नए उद्योग के विस्तार का पथ प्रशस्त किया। इसी परिपाटी पर आगे दूसरी कार निर्माता कंपनियां भी चलीं और देखते ही देखते देश में एक अच्छी-खासी ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री फल-फूल गई, जिसने कि कार उपकरणों के विक्रय, सर्विसिंग-रिपेयरिंग के क्षेत्र में अनेक नए रोजगार भी सृजित किए।

बहरहाल, यहां पर यह कहना आवश्यक है कि देश के शासन तंत्र ने कार उद्योग के प्रसार में जितना सहयोग किया, अगर उतना ही वे सार्वजनिक तंत्र के विकास में भी करते तो आज हालात कुछ और होते। आश्चर्य की ही बात है कि केंद्र में बनने वाली सभी सरकारों ने कार प्लांट स्थापित करने वाले विदेशी निवेशकों का दिल खोलकर स्वागत किया, लेकिन इस तरह का उत्साह बस निर्माता कंपनियों के लिए नहीं दिखाया गया। अलबत्ता वोल्वो जैसी कंपनी ने इस दिशा में संतोषजनक काम किया है, जबकि स्कैनिया द्वारा भारत में अपना प्लांट स्थापित करने की तैयारी की जा रही है, लेकिन देश में बसों की जैसी भारी मांग है, उसको देखते हुए इसको ऊंट के मुंह में जीरे के समान ही कहा जा सकता है। आज भी यही हालत है कि देश में चल रही सिटी बसों में से अधिकतर या तो टाटा या फिर अशोक लीलेंड का उत्पाद हैं। ये कंपनियां दशकों से बसें बना रही हैं। वास्तव में लगता है जैसे भारत में बस निर्माण उद्योग को उदारीकरण की लहर छू भी नहीं पाई है, क्योंकि उसकी आज भी वही स्थिति है, जो कि आज से 25 साल पहले हुआ करती थी।

आज देश में गुणवत्तापूर्ण बसों की मांग और आपूर्ति के बीच एक बड़ी खाई है। दिल्ली सरकार पहले ही इस समस्या से जूझ रही है। एक समस्या यह भी है कि मैन्युफेक्चरर्स अभी तक केवल बसों के चेसीस ही बनाते आ रहे हैं और बॉडी किसी दूसरी एजेंसी द्वारा बनाई जाती हैं। भारत में एक ही कंपनी द्वारा बनाई जाने वाली बस का विचार सबसे पहले वोल्वो के साथ ही आया है!

बड़ी अजब बात है कि बसें कारों की तुलना में कहीं ज्यादा लोगों को लाने-ले जाने में सक्षम होती हैं, इसके बावजूद भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में नीति निर्माताओं ने ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री के इस किंचित कम ग्लैमरस पहलू की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। शहर की सड़कों पर दौड़ने वाली बसों की संख्या कम हुई तो इसके साथ ही कई नई समस्याएं मुंह बाए खड़ी हो गईं। अव्वल तो यही कि जो बसें अभी चल रही हैं, वे इतनी ठसाठस भरी होती हैं कि यात्रियों के लिए उनमें सफर करना किसी यातना की तरह होता है। दूसरे, इससे यह प्रवृत्ति विकसित हुई है कि जो भी व्यक्ति निजी वाहन वहन कर सकता है, वह उसी का उपयोग करता है।

तीसरे, इससे न केवल सड़कों पर वाहनों की रेलमपेल हो जाती है, बल्कि प्रदूषण के स्तर में भी भीषण बढ़ोतरी होती है। यही कारण है कि इस तथ्य के बावजूद कि दिल्ली की तमाम बसें सीएनजी का इस्तेमाल कर रही हैं, प्रदूषण का स्तर लगातार बढ़ता ही जा रहा है। गनीमत है कि महानगरों में मेट्रो सेवाएं संचालित हो रही हैं। इसके बावजूद 'लास्ट माइल कनेक्टिविटी" की चाह में अनेक लोग निजी वाहनों का उपयोग करना ही पसंद करते हैं। बात केवल महानगरों की ही नहीं, आज छोटे शहर भी इस समस्या से काफी ग्रस्त हो चुके हैं।

निश्चित ही निजी वाहनों के पक्ष में जरूरत से ज्यादा झुकी नीतियों में बदलाव करने की जरूरत है। ऑटो एक्स्पो, जिसे कि आजकल 'दिल्ली मोटर शो" कहकर पुकारा जाता है, भले ही एक ग्लैमरस इवेंट हो, जिसमें चमचमाती कारों के नए मॉडल हमें लुभाते हों, लेकिन कारों की ज्यादा बिक्री का मतलब सड़कों पर रेलमपेल का और बढ़ना ही होगा।

समय आ गया है कि सरकारें अब देश में सार्वजनिक परिवहन की स्थिति को सुधारने के बारे में कुछ सोचें। इसके लिए उसे आधुनिक बस निर्माण प्लांट स्थापित करने वाले निवेशकों को आकर्षित करने के प्रयास करने होंगे। उन्हें इंसेंटिव मुहैया कराना होंगे, उपभोक्ताओं के लिए टैरिफ की दरें सस्ती करना होंगी और मास ट्रांजिट सिस्टम को मेट्रो सिस्टम जैसा ही दक्षतापूर्ण बनाना होगा। जब तक ऐसा नहीं किया जाएगा, ट्रैफिक जाम और प्रदूषण से कोई राहत नहीं मिलने वाली।

(लेखिका आर्थिक मामलों की वरिष्ठ विश्लेषक हैं। ये उनके निजी विचार हैं