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कारोबार बनाम आहार-- रमेश कुमार दूबे

वर्ष 2008 की विश्वव्यापी मंदी के बाद शुरू हुई खेती की जमीन के अधिग्रहण की प्रकिया भले ही अब मंद पड़ गई हो लेकिन वैश्विक खाद्य तंत्र पर कब्जा जमाने की प्रवृत्ति में कोई कमी नहीं आई है। छोटी जोतों और स्थानीय खाद्य बाजार की जगह वैश्विक खाद्य आपूर्ति तंत्र स्थापित करने की जो प्रक्रिया दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यूरोप-अमेरिका में शुरू हुई थी वह अब तीसरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में लेती जा रही है। यह काम किसानों का विशाल संगठन या सरकारें नहीं बल्कि बड़ी-बड़ी कृषि व्यापार वाली (एग्रीबिजनेस) कंपनियां कर रही हैं। बीज, उर्वरक, रसायनक, कीटनाशक, प्रसंस्करण आदि पर कब्जा जमा चुकी कंपनियों के सामने एक बड़ी चुनौती इन देशों में प्रचलित स्थानीय खाद्य पदार्थ हैं। इसीलिए कंपनियां झूठे व आकर्षक प्रचार के जरिए इन देशों के ‘लोकल' खाद्य पदार्थों की जगह ‘ग्लोबल' आहार को लोकप्रिय बनाने की मुहिम छेड़े हुए हैं। नतीजा है मैगी, मोमोज, चाउमिन, पिज्जा, बर्गर, चाकलेट, शीतल पेय, बोतलबंद पानी आदि का बढ़ता चलन। आज देश के किसी भी गांव-गिरांव में चले जाइए, वहां नींबू-पानी, गुड़, सत्तू आदि मिलें न मिलें- मैगी, मोमोज, चाउमिन जरूर मिल जाएंगे।

एग्रीबिजनेस कंपनियां और उनके पक्षधर यह तर्क देते हैं कि बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए न सिर्फ बड़े पैमाने पर उत्पादन जरूरी है बल्कि उस उत्पादन को लोगों तक पहुंचाने के लिए केंद्रीकृत आपूर्ति तंत्र की व्यवस्था भी आवश्यक है। अपनी कुटिल चाल को कामयाब बनाने के लिए ये कंपनियां लॉबिस्टों की फौज रखती हैं। ये लॉबिस्ट साम-दाम-दंड-भेद अपना कर तीसरी दुनिया की सरकारों को अपने पक्ष में नीतियां बनाने के लिए तैयार करते हैं। दूसरी ओर जमीनी सच्चाई यह है कि आज भी दुनिया की सत्तर फीसद आबादी को खाद्यान्न आपूर्ति करने का कार्य छोटी जोतों और स्थानीय स्तर पर मौजूद राशन की दुकानें ही कर रही हैं। इसे एशिया में धान के उदाहरण से समझा जा सकता है। एशिया में पैदा होने वाले धान का 99 फीसद हिस्सा दो हेक्टेयर से कम जोत वाले रकबे से आता है। स्पष्ट है, बढ़ती आबादी का पेट छोटी जोतें ही भर सकती हैं। पूंजी-केंद्रित नीतियों को लागू करने का नतीजा बढ़ती असमानता के रूप में सामने आ रहा है। अमेरिका-यूरोप में शुरू हुई इन नीतियों को दुनिया भर में फैलाने का काम भूमंडलीकरण ने किया। अब तो बीज-खाद से लेकर कच्चे-पके भोजन तक के कारोबार में ये कंपनियां पैठ बनाने लगी हैं। यह क्षेत्र अब तक न सिर्फ बिखरा हुआ रहा है बल्कि इससे करोड़ों लोगों को रोजी-रोटी भी मिल रही है। यही कारण है कि जैसे-जैसे इस विकेंद्रित खाद्य तंत्र पर एग्रीबिजनेस कंपनियों का आधिपत्य बढ़ रहा है वैसे-वैसे असंतोष फैलता जा रहा है।

एग्रीबिजनेस कंपनियां स्थानीय खाद्य तंत्र को वैश्विक रूप देती जा रही हैं। यही कारण है कि आज खेत में पैदा होने से लेकर थाली की मेज तक पहुंचने में खाद्य पदार्थ औसतन पंद्रह सौ मील की दूरी तय करते हैं और हर कदम पर मुनाफे की फसल लहलहाती है। इसे चंद उदाहरणों से समझा जा सकता है। आज अमेरिका में पैदा होने वाले 93 फीसद सोयाबीन और 80 फीसद मक्का पर सिर्फ एक कंपनी मोनसेंटो का आधिपत्य है। दुनिया के अनाज कारोबार को महज चार कंपनियां नियंत्रित करती हैं। दूध के वैश्विक कारोबार के आधे हिस्से पर बीस कंपनियों का कब्जा है। कीटनाशकों के वैश्विक कारोबार पर छह भीमकाय निगमों का आधिपत्य है। इनके मुनाफे को देखें तो आंखें फटी की फटी रह जाती हैं। उदाहरण के लिए, 2014 में नेस्ले ने 16.5 अरब डॉलर का मुनाफा कमाया, जो कि दुनिया के सत्तर देशों के कुल जीडीपी से अधिक है। इसी प्रकार वालमार्ट ने 2014 में 16.2 अरब डॉलर का मुनाफा कमाया, जो अट्ठासी देशों के जीडीपी के बराबर है। जैसे-जैसे इन कंपनियों का एकाधिकार बढ़ रहा है वैसे-वैसे किसानों की आमदनी कम होती जा रही है, क्योंकि खरीद-बिक्री पर एकाधिकार स्थापित कर ये कंपनियां किसानों के विकल्प कम कर देती हैं। उदाहरण के लिए, 1990 में कॉफी उत्पादक देशों के हिस्से में कुल फुटकर बिक्री का तैंतीस फीसद आता था जो कि 2002 में दस फीसद रह गया। चूंकि इन कंपनियों का लक्ष्य अपने मुनाफे को अधिक से अधिक करना रहता है इसलिए ये मिट्टी, हवा, पानी आदि किसी की परवाह नहीं करती हैं जिसका दुष्परिणाम ग्लोबल वार्मिंग और नई-नई बीमारियों के रूप में सामने आ रहा है। इन नई बीमारियों की दवाएं भी इनकी सहायक कंपनियां बनाती हैं। स्पष्ट है, आज एग्रीबिजनेस कंपनियां दुनिया के गरीबों को दोनों हाथों से लूट रही हैं।

एग्रीबिजनेस कंपनियां खाद्य तंत्र पर कब्जे की शुरुआत खेती के मूल आधार (बीज) से करती हैं। पेटेंट और बौद्धिक संपदा अधिकार इनके लिए सीढ़ी का काम करते हैं। इससे वैश्विक बीज कारोबार एक जगह सिमटता जा रहा है। उदाहरण के लिए, चार दशक पहले जहां हजारों कंपनियां बीज उत्पादन करती थीं वहीं आज दुनिया की दस चोटी की कंपनियां कुल बीज उत्पादन के 67 फीसद हिस्से पर कब्जा जमा चुकी हैं और इनका हिस्सा लगातार बढ़ता जा रहा है। इसी प्रकार शीर्ष दस कंपनियां कीटनाशकों के नब्बे फीसद कारोबार पर नियंत्रण कर चुकी हैं। जैसे-जैसे वाणिज्यिक बीज प्रणाली का आधिपत्य बढ़ रहा है वैसे-वैसे कृषि जैव विविधता खतरे में पड़ती जा रही है। उदाहरण के लिए, 1959 में श्रीलंका में करीब दो हजार किस्मों के धान की खेती की जाती थी, लेकिन आज वहां सौ से भी कम किस्में प्रचलन में हैं। इसी प्रकार बांग्लादेश व इंडोनेशिया में स्थानीय धान की क्रमश: 62 व 74 फीसद किस्में सदा के लिए लुप्त हो गर्इं। भारतीय संदर्भ में देखें तो यहां पिछले पचास वर्षों के दौरान विभिन्न फसलों की सूखा व बाढ़ रोधी हजारों किस्में गायब हो चुकी हैं। जैव विविधता ह्रास को विश्व खाद्य संगठन ने भी स्वीकार किया है। इसके मुताबिक आज दुनिया का पचहत्तर फीसद खाद्य पदार्थ बारह पौधों और पांच पशु प्रजातियों से पैदा हो रहा है। तीस हजार ज्ञात खाद्य पौध प्रजातियों में से तीन (धान, मक्का और गेहूं) अस्सी फीसद कैलोरी व प्रोटीन मुहैया करा रही हैं। वैसे तो वैश्विक ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन में खेती का योगदान सत्रह फीसद माना जाता है। लेकिन औद्योगिक खाद्य तंत्र में रासायनिक उर्वरक, भारी मशीनरी, तेल आधारित तकनीक, प्रोसेसिंग, पैकेजिंग, प्रशीतन आदि की गणना की जाए तो कुल कार्बन उत्सर्जन में खेती का योगदान पचास फीसद तक पहुंच जाता है।

फिर इस तंत्र में खेत से लेकर भोजन की मेज तक पहुंचने के क्रम में आधे खाद्य पदार्थ नष्ट हो जाते है जिन्हें कचराघरों में डंप करने व उनके सड़ने से भी बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित होती है। यह नष्ट हुई खाद्य सामग्री दुनिया में भुखमरी के शिकार लोगों से छह गुना अधिक लोगों के पेट की आग बुझा सकती है। चूंकि औद्योगिक खेती का लक्ष्य मुनाफा कमाना होता है इसलिए इसमें मिट्टी की उर्वरता में कमी की भरपाई रासायनिक उर्वरकों के माध्यम से की जाती है। इस प्रक्रिया में मिट्टी के तीस से पचहत्तर फीसद जैविक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं। ये जैविक तत्त्व हवा में घुलने के साथ-साथ नदियों, झीलों व समुद्र की तलहटी में जमा होते हैं। आज वायुमंडल में जो कार्बन की अधिकता है उसमें पच्चीस से चालीस फीसद मिट्टी के जैविक तत्त्वों के नष्ट होने से जमा हुई है। स्पष्ट है वैश्विक खाद्य तंत्र पर कंपनियों का बढ़ता आधिपत्य न सिर्फ लोगों को गरीबी-भुखमरी के बाड़े में धकेलेगा बल्कि पारिस्थितिक तंत्र भी खतरे में पड़ जाएगा।