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कालिख की उजागर होती परतें - राजीव सचान

लगता है, मनमोहन सिंह को सत्ता से बाहर होने के बाद भी चैन नहीं मिलने वाला। पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह के बाद अब उनके चैन में खलल डाला है पूर्व कैग विनोद राय ने। वह भी अपनी किताब के साथ हाजिर होने वाले हैं। उनकी किताब 'नॉट जस्ट एन एकाउंटेंट" अभी बाजार में नहीं आई, लेकिन उसके सार्वजनिक हुए कुछ अंश बताते हैं कि किस तरह उन पर इसके लिए दबाव डाला गया कि वह राष्ट्रमंडल खेलों और कोयला घोटाले से जुड़े लोगों को बख्श दें। उनकी मानें तो मनमोहन के कई फैसलों से देश को भारी नुकसान हुआ।

यह कोई नई बात नहीं और इसकी पुष्टि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने भी कर दी कि 1993 के बाद सभी कोयला खदानों का आवंटन अवैध था। इनमें तमाम खदानों का आवंटन तब हुआ था, जब मनमोहन के पास कोयला मंत्रालय का भी प्रभार था। उनके पास दोषपूर्ण कोल आवंटन नीति को दुरुस्त करने का अवसर था, लेकिन वह पुरानी नीति पर ही चले। नतीजा सामने है। उनकी नए सिरे से फजीहत हो रही है। बावजूद इसके यह तय है कि कांग्रेसजन उन्हें पाक-साफ ही बताएंगे। उन्होंने विनोद राय पर हमला बोल ही दिया है, लेकिन उनके तर्क घिसे-पिटे हैं।

विनोद राय पर सबसे ज्यादा हमलावर मनीष तिवारी हैं। वह विनोद राय को सार्वजनिक बहस के लिए निमंत्रित कर रहे हैं, लेकिन वह शायद ही यह न्योता कबूल करें। बेहतर होगा कि मनीष तिवारी खुद भी एक किताब लिख डालें और उसमें यह भी बताएं कि उनके सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहते राकेश कुमार सेंसर बोर्ड के सीईओ कैसे बन गए? राकेश कुमार को सीबीआई ने घूसखोरी के आरोप में गिरफ्तार किया है। चूंकि वह इसी जनवरी में सेंसर बोर्ड के सीईओ बने, इसलिए बहुत ज्यादा उगाही नहीं कर सके, फिर भी सीबीआई ने उनके पास से दो किलो सोना, 33 महंगी घड़ियां, साढ़े दस लाख रुपये नकद और कई संपत्तियों के दस्तावेज बरामद किए हैं। लगता है, वह बहुत जल्दी में थे और इसीलिए दोनों हाथों से माल अंदर करने में लगे हुए थे। उनके बारे में एक चौंकाने वाली जानकारी यह सामने आई है कि वह रेलवे सेवा के अफसर थे। क्या सीबीआई इसकी जांच कर सकेगी कि रेलवे सेवा के अफसर को किसकी कृपा से सेंसर बोर्ड का सीईओ बनाया गया?

राकेश कुमार इकलौते ऐसे अफसर नहीं, जो मनमोहन सरकार की काली करतूतों का नमूना बनकर सामने आए हों। हाल में सीबीआई ने सिंडीकेट बैंक के एक बड़े अफसर को भी रिश्वतखोरी के आरोप में गिरफ्तार किया है। उस पर लगे आरोपों के छींटे भी मनमोहन सरकार तक जाते हैं। बावजूद इसके मनमोहन सिंह पर उंगली उठते ही कांग्रेसजन हमलावर हो जाते हैं। शायद वे जानते हैं कि मनमोहन सिंह तो आवरण भर हैं और अगर आवरण हटा तो गांधी परिवार दिखने लगेगा। हालांकि मनमोहन सिंह जबसे पूर्व प्रधानमंत्री हुए हैं, तबसे वह कुछ मुखर नजर आने लगे हैं। उन्होंने नितिन गडकरी की कथित जासूसी पर मांग की थी कि सरकार को इस मामले की जांच करानी चाहिए, फिर भी इसमें संदेह है कि वह उन सवालों पर अपना मौन तोड़ेंगे, जो बतौर प्रधानमंत्री उनकी भूमिका को लेकर उठते रहे हैं। क्या वह स्वयं अथवा उनकी ओर से कोई कांग्रेसी यह बताएगा कि कोयला घोटाले की सीबीआई की प्रारंभिक जांच रपट में प्रधानमंत्री कार्यालय के भी एक अधिकारी ने हेरफेर क्यों किया था? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यही काम करने पर कानून मंत्री अश्विनी कुमार को इस्तीफा देना पड़ा था।

यह एक रहस्य है कि मनमोहन सिंह ने अपने कार्यालय के उस संयुक्त सचिव के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की, जिसने सीबीआई की जांच रपट में छेड़छाड़ की थी? यह आरोप मात्र नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के समक्ष उजागर हुआ तथ्य है। आखिर इस तथ्य से मनमोहन सिंह कब तक मुंह चुराते रहेंगे? अगर वह ऐसा करेंगे तो जनता इसी नतीजे पर पहुंचेगी कि उनकी जानकारी में ही उनके अधिकारी ने जांच रपट में काट-छांट की। कोई यह भी संदेह जता सकता है कि कहीं उनके इशारे पर ही तो रपट में फेरबदल की कोशिश नहीं हुई?

पता नहीं संजय बारू, पीसी पारख, नटवर सिंह और विनोद राय के बाद कोई अन्य ऐसी किताब लिख रहा है या नहीं, जिसमें मनमोहन सरकार के काले कारनामों पर प्रकाश डाला जाएगा, लेकिन अब देश को इस नतीजे पर पहुंचने के लिए किसी किताब की जरूरत नहीं कि मनमोहन सिंह ने बतौर प्रधानमंत्री भ्रष्ट शासन को बढ़ावा दिया और व्यक्तिगत तौर पर उनके ईमानदार होने से किसी को कुछ भी हासिल नहीं हुआ, यहां तक कि खुद उन्हें भी नहीं। वह प्रधानमंत्री के रूप में व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार होने की अपनी छवि से हाथ धो बैठे। ऐसी हालत में उन्हें ईमानदार बताना और उनके शासन को सुशासन के रूप में पेश करना कालिख पर सफेदी पोतने की कोशिश करने जैसा है। यह निरर्थक और हास्यास्पद कोशिश है।

मुश्किल यह है कि खुद सोनिया गांधी भी ऐसी कोशिश करती नजर आती हैं। उनके मुताबिक कांग्रेस लोकसभा का चुनाव इसलिए हारी, क्योंकि जनता भाजपा के झूठ के जाल में फंस गई। अगर भाजपा ने झूठ का जाल बुना तो उसका ताना-बाना तो मनमोहन सिंह के कुशासन ने ही उपलब्ध कराया। जनता की समझ पर सवाल उठाकर खुद को संतुष्ट तो किया जा सकता है, लेकिन सच्चाई को ओझल नहीं किया जा सकता और सच यही है कि मनमोहन सिंह ने अपने शासन से देश का बेड़ा गर्क किया। उन्होंने प्रधानमंत्री बने रहने के लोभ में महान होने का अवसर गंवा दिया। उन्हें 2011-12 में ही इस्तीफा दे देना चाहिए था। ऐसा करके वह अपना, कांग्रेस का और साथ ही देश का भी भला करते। गांधी परिवार के प्रति स्वामिभक्ति दिखाना उनकी मजबूरी हो सकती थी, लेकिन देश को गड्ढे में ले जाना नहीं। उन्होंने प्रधानमंत्री धर्म का निर्वाह नहीं किया, यह तोहमत तो अब ताउम्र उनका पीछा करेगी।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)