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कितना कारगर होगा नगा समझौता- दिनकर कुमार

नगा विद्रोही संगठन नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल आॅफ नगालिम (एनएससीएन) के इसाक-मुइवा गुट के साथ शांति प्रक्रिया आखिरकार अंतिम चरण में पहुंच गई है और उम्मीद की जा रही है कि कुछ ही महीने में समझौते के सारे प्रावधानों को सार्वजानिक तौर पर उजागर कर दिया जाएगा।
नगा शांति प्रक्रिया की तरह पूर्वोत्तर के किसी उग्रवादी संगठन के साथ बातचीत की इतनी लंबी प्रक्रिया नहीं चली, न ही इतने सारे विवाद और मध्यस्थ देखने को मिले। एक समय ऐसा भी आया जब कहा गया कि नगा विद्रोहियों को केंद्र सरकार बहलाने की कोशिश कर रही है और अपनी-अपनी शर्तों पर दोनों पक्षों के अडिग रहने के चलते किसी तरह का समझौता हो पाना नामुमकिन है।
इस दौरान यह खबर भी आई कि एनएससीएन (आइएम) चीन से हथियार खरीद रहा था और पूर्वोत्तर के दूसरे भूमिगत उग्रवादी संगठनों के साथ उसके मधुर रिश्ते बने हुए थे। मीडिया रिपोर्टों में यह भी बताया गया कि यह उग्रवादी संगठन म्यांमा के सोमरा इलाके में अपने अड्डे बनाने की कोशिश कर रहा था ताकि आजाद नगालैंड के लिए नए सिरे से वह सशस्त्र संघर्ष शुरू कर सके।
अगर आधिकारिक सूत्रों पर विश्वास किया जाए तो उनके अनुसार शांति समझौते के बुनियादी स्वरूप को निर्धारित किया जा चुका है लेकिन सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि अतीत की गलतियां दोहराई न जाएं। हालांकि मीडिया को अभी तक समझौते के प्रावधानों के बारे में कुछ नहीं बताया गया है।
वर्ष 1975 में सरकार और नगा नेशनल कौंसिल (एनएनसी) के एक गुट के बीच जल्दबाजी में जो शिलांग समझौता किया गया था वह कारगर साबित नहीं हो पाया था। इस समझौते से नाराज नगा विद्रोहियों ने म्यांमा में पैर जमा लिए थे और पांच साल बाद ही एनएससीएन का गठन कर लिया था। इससे पहले 1960 में जिस साठ सूत्री समझौते के आधार पर पृथक राज्य के रूप में नगालैंड की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ था, उसे मानने से एनएनसी ने इनकार कर दिया था और कुछ वर्षों बाद ही युद्ध विराम समझौते को खत्म कर दिया था।
तो फिर एनएससीएन (आइएम) के साथ समझौते का संभावित परिणाम क्या हो सकता है? क्या यह पिछले प्रयत्नों की तुलना में अलग साबित होगा? सरकार और एनएससीएन (आइएम) के बीच आधिकारिक रूप से बातचीत 2003 में शुरू हुई थी जब संगठन ने तीस सूत्री मांगपत्र सरकार को सौंपा था।
जब संगठन के अध्यक्ष इसाक चिसी सू और महासचिव थुइंगलेंग मुइवा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मुलाकात की तो मसले के हल होने की उम्मीद बलवती हो उठी थी। संगठन की मांगों की सूची में ग्रेटर नगालिम की स्थापना करने की मांग शामिल थी। इसके लिए पूर्वोत्तर के सभी नगा-बहुल इलाकों को एक ही प्रशासनिक तंत्र के तहत लाने की बात कही गई थी। इसका अर्थ असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश को विभाजित करना था, मगर इन तीनों ही राज्यों ने अपनी-अपनी विधानसभा में इस मांग के विरोध में प्रस्ताव पारित किए। नगा संगठन ने अलग मुद्रा का प्रचलन करने, संयुक्त राष्ट्र में अलग प्रतिनिधित्व करने का अधिकार देने और पृथक संविधान बनाने की भी मांग की थी। इन सभी मांगों को केंद्र सरकार ने मानने से इनकार कर दिया था।
नगालैंड समेत समूचे पूर्वोत्तर में हालात काफी बदल चुके हैं। कुछ दिन पहले गुवाहाटी में पत्रकारों को संबोधित करते हुए नगालैंड के सांसद एवं पूर्व मुख्यमंत्री नेफिऊ रिओ ने कहा- चार दशक पहले की तुलना में जनता की मानसिकता में जमीन-आसमान का अंतर आ चुका है। अब पूर्वोत्तर से भारी तादाद में युवा शिक्षा और रोजगार के लिए राष्ट्रीय राजधानी और देश के दूसरे महानगरों में पहुंच रहे हैं।
इस तरह हर साल युवाओं का पलायन महानगरों की तरफ हो रहा है। त्रिपुरा को छोड़ कर पूर्वोत्तर की दूसरी राज्य सरकारें रोजगार के अवसर सृजित कर पाने में नाकाम साबित हुई हैं। इन राज्यों को मिलने वाली केंद्रीय पूंजी में हर साल बढ़ोतरी होती रही है मगर उन्होंने उसका सदुपयोग कभी नहीं किया है। जो युवा पहले उग्रवादी संगठन में शामिल हो जाते थे, वे अब रोजगार की तरफ अग्रसर होने लगे हैं। पूर्वोत्तर में हर तरफ लोगों में शांति बहाली की भावना प्रबल होती गई है।
चाहे असम, मणिपुर या नगालैंड हो, आम जनता को उग्रवादी संगठनों, उनकी मांगों या सरकार के साथ उनकी वार्ता में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है। वर्ष 2012 में नगालैंड के नागरिकों ने एनएससीएन (आइएम) द्वारा की जा रही अवैध वसूली के विरोध में सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन किया था। लेकिन यह बात याद रखनी होगी कि पूर्वोत्तर में उग्रवादियों के प्रति जनता के घटते समर्थन का मतलब यह नहीं है कि सरकार के प्रति जनता का समर्थन बढ़ गया है। त्रिपुरा और सिक्किम को छोड़ दिया जाए तो क्षेत्र की सभी राज्य सरकारें अति भ्रष्ट और जन-विरोधी हैं। यहां की राजनीतिक पार्टियों का एक ही मकसद होता है, चुनाव जीतना और अगले चुनाव के लिए धनराशि का इंतजाम करना।
पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न नगा उग्रवादी गुटों में आपसी हिंसक टकराव की घटनाएं कम होती गई हैं। इसके लिए चर्च और नागरिक संगठनों की सकारात्मक भूमिका की सराहना की जा सकती है जिन्होंने इन संगठनों को वैमनस्य खत्म करने के लिए लगातार प्रेरित किया है।
इसके बावजूद मतभेद बना हुआ है और एनएससीएन के एकीकृत गुट ने कहा है कि किसी बाहरी आदमी को नगालैंड से जुड़े समझौते पर दस्तखत करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। इस तरह सीधे एनएससीएन (आइएम) के महासचिव थुइंगलेंग मुइवा को बाहरी आदमी बताया गया है जो मणिपुर के तांखुल नगा समुदाय से आते हैं।
वर्ष 2008 में अजेथो चोपी के नेतृत्व में सेमा नगा समुदाय के सभी कैडर एनएससीएन (आइएम) से अलग हो गए थे और उन्होंने अपने गुट की स्थापना की थी। तीन साल बाद उन्होंने दो वरिष्ठ विद्रोही नेताओं खोले कोन्याक और एन किटवी ज्हीमोमी से हाथ मिला लिया था जो म्यांमा में रह रहे एनएससीएन (खपलांग) के नेता एसएस खपलांग से अलग हो गए थे।
इतना तो तय है कि नगालैंड को अधिक स्वायत्तता दिए जाने, अन्य राज्यों के नगा बहुल इलाकों में सामाजिक और आर्थिक विकास सुनिश्चित किए जाने, प्राकृतिक संसाधनों पर अधिक अधिकार दिए जाने, भारतीय सेना की नगा रेजीमेंट में अतिरिक्त बटालियन सृजित करने आदि प्रावधानों पर दूसरे नगा विद्रोही गुट कोई विरोध नहीं जताएंगे। ये गुट हरगिज ऐसा नहीं चाहेंगे कि उनकी छवि राज्य के हितों के विरोधी की बने या उन्हें समझौते के क्रियान्वयन के रास्ते में बाधक माना जाए।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अब म्यांमा और पूर्वोत्तर के नगा विद्रोहियों के बीच स्पष्ट वैचारिक मतभेद नजर आने लगा है। चार महीने पहले जब एनएससीएन (खपलांग) ने भारत सरकार के साथ युद्ध विराम समझौते को तोड़ दिया तो मतभेद की खाई और चौड़ी हो गई। इस गुट ने असम और बंगाल के तीन वार्ता विरोधी गुटों- उल्फा, एनडीएफबी और केएलओ के साथ हाथ मिला लिया और म्यांमा में यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट आॅफ वेस्टर्न साउथ ईस्ट एशिया नामक संयुक्त मंच की स्थापना पूर्वोत्तर की आजादी का संघर्ष जारी रखने के लिए की। खपलांग ने म्यांमा की सरकार के साथ नजदीकी संबंध बना लिया है और म्यांमा के उग्रवादी संगठनों के युद्ध विराम का समर्थन भी किया है। खपलांग ने स्पष्ट कर दिया है उनकी दिलचस्पी पूर्वोत्तर की तुलना में म्यांमा में अधिक है।
खपलांग अपने साथ पूर्वोत्तर के दूसरे उग्रवादी संगठनों को जोड़ कर अलगाववाद की लड़ाई को जारी रखना चाहते हैं। कई नगा विद्रोही नेताओं के प्रशिक्षण शिविर अब भी म्यांमा में हैं और ऐसे नेता शांति प्रक्रिया में भी हिस्सेदारी कर रहे हैं। ऐसे नेताओं के लिए अब म्यांमा के शिविरों के साथ तालमेल कायम रखना मुमकिन नहीं रह जाएगा। ये नेता समझ गए हैं कि आसानी से हथियार उपलब्ध होने के बावजूद भारत सरकार के विरुद्ध लंबे समय तक लड़ते रहना समझदारी का काम नहीं है। पूर्वोत्तर के ज्यादातर उग्रवादी संगठन सरकार के साथ संघर्ष विराम समझौता कर चुके हैं और मसले का स्थायी समाधान खोजने में दिलचस्पी ले रहे हैं। उल्फा के वार्ता समर्थक गुट के साथ भी बातचीत काफी आगे बढ़ चुकी है और जल्द कोई समझौता होने की संभावना जताई जा रही है।
दिनकर कुमार