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कितना खतरनाक है अन्ना का सपना!-- पुण्य प्रसून वाजपेयी

अगर यह आजादी का दूसरा आंदोलन है, तो क्या आप दूसरे महात्मा हैं. मैं तो महात्मा गांधी के पांव की धूल भी नहीं हूं. लेकिन एक बात कहूंगा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने जो एहसान हम देशवासियों पर छोड़ा है, उसका एक अंश भी अगर हम देश को बनाने में चुका दें, तो बहुत बड़ी बात होगी.

और हमारा संघर्ष यही है. आमरण अनशन तोड़ने के बाद अन्ना हजारे के इस सोच ने पहली बार  संसदीय व्यवस्था के उस ताने-बाने को झटक दिया, जिसके सुर गांधी और कांग्रेस में समाये रहते थे.

किसी संघर्ष को अंजाम तक पहुंचा कर भगत सिंह का नाम कोई गांधी के अहिंसा में घोल दें, यह न तो वामपंथी कर पाये और न ही दक्षिणपंथी दल. और कांग्रेस भी गांधी के दांये-बायें देखने से ना सिर्फ़ बचती रही, बल्कि गांधी की सोच में कांग्रेस की जमीन को खड़ा मान कर उसने हर बार देश के हर मुद्दे से बचने के लिए गांधी को ही ढाल बनाया. लेकिन अन्ना हजारे ने गांधी के उन्हीं सवालों को नये तरीके से उछाला जिन  सवालों को कभी गांधी ने नेह को कहे थे.

कितना खतरनाक..नेह के सरकार गठन के दौर में सिर्फ़ कांग्रेसियों को तरजीह दिये जाने पर गांधी ने नेह को यही समझाया था कि आजादी समूचे देश को मिली है, सिर्फ़ कांग्रेस  नहीं. और 63 बरस बाद अन्ना हजारे ने चुनी हुई मनमोहन सिंह की सरकार को यही कहा कि देश सवा सौ करोड़ लोगों का है और इतनी तादाद में लोगों की जरतों को संभालने और उसकी व्यवस्था करने के लिए सरकार चुनी जाती है ना कि सरकार की जरत और सुविधा के मुताबिक सवा सौ करोड़ लोगों को चलना होगा. यह वक्तव्य चाहे बहुत छोटा लगे, लेकिन संसदीय व्यवस्था की वर्तमान तानाशाही के लिए इससे बड़ी चेतावनी और कोई हो नहीं सकती है. फ़िर गांधीवादी तरीके से दी गयी चेतावनी में भगत सिंह के तेवर यानी संघर्ष की जुबान ऐसी जो बिना जनमानस को साथ जोड़े कोई इस देश में कहे और सरकार को खतरा लगने लगे तो उसके खिलाफ़ राजद्रोह की धारा भी लग जाये. लेकिन अन्ना हजारे ने जिस मासूमियत से भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए जन लोकपाल विधेयक के आसरे चुनाव में सुधार के संकेत के लिए अगले संघर्ष की धुन छेड़ी, उसमें लोहिया से लेकर जेपी और भगत सिंह से लेकर गांधी तक की महक आ गयी.

और इसी दायरे में हर उस व्यक्ति के छोटे-छोटे सपने जुड़ते गये जो दिल्ली के जंतर-मंतर से लेकर मुंबई के आजाद मैदान और देश के हर शहर जुटा और झटके में लोकपाल विधेयक का कैनवास भी बड़ा हो गया और आंदोलन का चेहरा भी. मनरेगा में काम की एवज में सौ रुपये में से 40 रुपये सरकारी ठेकेदार को बतौर कमीशन देने से परेशान बुंदेलखंड के वीरेंद्र हो या फ़िर बाहरी दिल्ली में उद्योग चलाने का लाइसेंस लेने में तीन करोड़ की घूस देने की मजबूरी तले दबे अरुण कुमार.

या फ़िर जाब कार्ड मिलने के बाद भी राजस्थान में गंगापुर के बेरोजगार अशोक भाई हो या गुजरात के गांव पांगर घवड़े के विठ्ठल रावड़े जो ग्राम पंचायत के भ्रष्टाचार से दुखी होकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर आ पहुंचे . सभी की आंखों में एक ही सपना है कि कोई तो ऐसा नायक हो जो देश को पहले माने और गड़बड़ी करनेवालों की कान उमेठ दे या कानून सजा देने लगे. जाहिर है पांच दिनों में सिर्फ़ दिल्ली के जंतर-मंतर पर अगर लाखों लोगों की आवाजाही होती रही, तो फ़क्कड़ से लेकर करोड़पतियों के चेहरे भी वही दमके और बेरोजगार युवाओं के साथ-साथ हर क्षेत्र में कामयाबी के पायदान चढ़ते प्रोफ़ेशनल भी नजर आये.

यानी जिन्हें धन कमाना है और जिन्हें रोजगार चाहिए और जो धनी है, जो बेरोजगार नहीं है, सभी के सवाल पहली बार एक धागे में पिरोये नजर आये. क्योंकि हर के जेहन में सवाल एक ही था कि  ईमानदारी और विश्वसनीयता सत्ता-सरकार से जब गायब हो चुकी है तो फ़िर रास्ता कैसे निकलेगा. यानी अन्ना हजारे के आमरण अनशन से सरकार डर गयी, यह कहने से पहले समझना यह भी होगा कि आम लोगों के जेहन में संसदीय सत्ता की जो परछाईं है, वह पहली बार सफ़ेद-काले में नजर आयी. और सियासत का काला चेहरे देश के हर जतर-मंतर पर बितते व के साथ यह सवाल खड़ा कर रहा था कि जन लोकपाल से आगे का रास्ता क्या होगा.

और इसी मोड़ पर यह सवाल भी उठा कि क्या आंदोलन अन्ना हजारे को चलायेगा या अन्ना के एकमात्र लोकपाल विधेयक को बनाने में जनता की भागीदारी के साथ ही आंदोलन भी खत्म होगा. असल में परिस्थितियां दोनों आयी और निर्णय भी दोनों ही हुए जिस लोकपाल विधेयक पर उठे आंदोलन के सामने सरकार नतमस्तक हुई, उसी जनसमूह के आंदोलन के सामने अन्ना भी नतमस्तक हुए.

इसीलिए बिना किसी राजनीतिक दल से जुड़े हुए और सत्ता की आकांक्षा से दूर अन्ना ने चुनाव सुधार की एक ऐसी गोटी आंदोलन खत्म करने के साथ फेंकी, जिसमें चुनाव के व उम्मीदवारों की फ़ेहरिस्त में एक खाना खाली भी हो और वह अन्ना हजारे का हो. यानी हर उम्मीदवार गड़बड़ है तो कोई मंजूर नहीं है, पर ठप्पा लगा कर आम नागरिक उसी चेतावनी को दोहरा दें जो अन्ना हजारे ने जन लोकपाल विधेयक पर छिड़े आंदोलन से चेताया. यानी जन-भागीदारी के इस मंत्र में पहली बार समूची संसदीय राजनीतिक व्यवस्था को ही सत्ता में तब्दील कर अन्ना हजारे ने यही सवाल उठाया कि जो भूमिका सत्ताधारी और विपक्ष की होती है, वह इस दौर में खत्म हो चुकी है. नेता हो या मंत्री या कोई भी राजनीतिक दल. सभी आपस में एक दूसरे का विकल्प हैं.

यानी संसदीय राजनीति में चेक एंड बैलेंस की जो समझ संविधान में मौजूद है, वर्तमान में चेक करनेवाला तत्व गायब हो चुका है. अब चेक आम नागरिक को करना होगा और यह चेक सिर्फ़ चुनाव के नाम पर नहीं हो सकता है. क्योंकि भ्रष्टाचार की असल ट्रेिनग राजनीतिक सत्ता से ही शुरू होती है और वोटर के सामने विकल्प नहीं है. इसलिए सवाल शरद पवार का नहीं है, जो भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरने के बावजूद सरकार के उस मंत्री समूह का हिस्सा बने रहे जिसे भ्रष्टाचार पर नकेल कसनी है. लेकिन रास्ता यह भी नहीं है कि अंगुली उठने पर पवार पद छोड़ दें और फ़िर देश किसी दूसरे पवार के आने का इंतजार करें.

इसलिए राइट टू रिकॉल का सवाल भी अन्ना हजारे ने  उठाया. और नकेल कसने के लिए आम वोटर को हमेशा तैयार रहने को भी कहा. लेकिन इस प्रक्रिया में जो सबसे बड़ा सवाल संकेत के तौर पर उठा वह राजनीतिक शून्यता का है. चूंकि संसदीय व्यवस्था की समूची ट्रेनिंग ही संसद को सवरेपरि मानती है और जन-लोकपाल विधेयक को भी इसी रास्ते गुजरना है, तो फ़िर संसद के भीतर अलग-अलग राजनीतिक दलों की भूमिका होगी क्या.

अगर सरकार के पांच मंत्रियों के समूह के साथ सिविल सोसाइटी की नुमाइंदगी करने वाले पांच सदस्यों के समूह के ड्राफ्ट को संसद खारिज कर दें तो क्या होगा. यानी विपक्ष में बैठे राजनीतिक दल अगर संसद के भीतर यह सवाल उठा दें कि किसी विधेयक को तैयार करने में अगर संसद के बाहर के पांच सदस्यों को लिया गया और उन्हें कोई संवैधानिक पद भी नहीं दिया गया तो इसे क्यों माना जाये. या फ़िर राजनीतिक दल सरकार पर यह आरोप लगाये कि अन्ना हजारे पर फ़ैसला लेने से पहले सर्वदलीय बैठक क्यों नहीं बुलायी गयी. जबकि अन्ना हजारे ने अपने आंदोलन के जरिये सांसदों की नुमाइंदगी पर ही सवालिया निशान लगा दिया. यानी आंदोलन की बुनियाद ही इस बात पर खड़ी है कि संसद भ्रष्टाचार के सवाल पर सही पहल करने में नाकाम रही.

दरअसल संसद या सांसदों के जरिये यह सवाल मॉनसून सत्र में जन लोकपाल विधेयक रखते व नहीं उछलेगा यह सोचना भी बचकानापन होगा, क्योंकि पहली बार संसदीय व्यवस्था को आम नागरिकों के आक्रोश ने अन्ना हजारे के जरिये खारिज किया है. या कहें संसदीय सत्ता को यह निर्देश दिया है कि आपका काम व्यवस्था बनाने और चलाने का है. उसके तौर तरीकों को सत्ता या संसद के अनुकूल बनाने का नहीं है. लेकिन संसद की वर्तमान परिस्थितियों को देखकर अगर पहला सवाल यह खड़ा होता है कि महिला आरक्षण की तर्ज पर संसद का हंगामा लोकपाल विधेयक को भी लटका दें.

यानी लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, मायावती या करुणानिधि या फ़िर शरद पवार सरीखे नेताओं के राजनीतिक दल अपने नेताओं के लोकपाल विधेयक के दायरे में आने के मद्देनजर संसद ही ना चलने दें. या कहें संसद के 145 सासंदों पर जब भ्रष्टाचार के मामले दर्ज हैं और संयोग से जिस महात्मा गांधी का नाम लेकर अन्ना हजारे ने आंदोलन शुरू किया तो उन्हीं की जन्मभूमि पोरबंदर के कांग्रेसी सांसद विठ्टलभाई पर जब सबसे ज्यादा मामले दर्ज हैं, तो अपने खिलाफ़ फ़ाइल खोलने के लिए बननेवाले कानून पर यह संसद मोहर कैसे लगायेगी.

लेकिन इसका जवाब भी पहली बार अन्ना हजारे के आंदोलन से निकला है कि संसदीय राजनीति के मूल में जब आम नागरिक या कहें वोटर है और वहीं संसदीय व्यवस्था के नियम कायदे को लेकर सड़क पर होगा तो फ़िर संसदीय व्यवस्था को तौर-तरीके बदलेंगे या संसद भी आम नागरिक के आंदोलन के अनुकूल कार्रवाई करने को बाध्य होगी. क्योंकि जब घोटालों में खुद मनमोहन सिंह फ़ंसते हैं तो वह चुनाव में अपनी जीत और कटघरे में खड़े करने वाले राजनीतिक दलों की हार में आईना दिखा कर खुद को बचाने से नहीं कतराते. तो जब वही जनता अपने मुद्दों को लेकर सरकार और सासंदों के कान उमेठेगी, तो  संसद क्या करेगी, यह मॉनसून सत्र में देखना दिलचस्प होगा और 15 अगस्त के बाद कहीं ज्यादा खतरनाक भी.

क्योंकि आजादी के बाद पहली बार कोई ऐसा नायक मुद्दों को लेकर जनता से जुड़ा है या जनता उससे जुड़ी है जो किसी राजनीतिक दल का नहीं है. चकाचौंध की अर्थव्यवस्था का नहीं है. और उसके पास गंवाने या पाने का कुछ भी नहीं है, सिवाय देश को ईमानदारी का सपना दिखाने के