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कितना सुधार पाएंगे मनमोहन- परंजय गुहा ठाकुरता

देश के एक बड़े तबके, खासकर उद्योग जगत, को यह लगने लगा है कि मनमोहन सिंह द्वारा वित्त मंत्रालय का प्रभार संभालने के बाद आर्थिक सुधारों की गति में तेजी आएगी। अटके हुए अनेक प्रस्तावों को हरी झंडी मिल जाएगी। कहा यह भी जा रहा है कि मनमोहन सिंह ही भारतीय अर्थव्यवस्था के तारणहार साबित होंगे। पर यह बेहद चुनौतीपूर्ण काम है। अर्थव्यवस्था और राजनीति से जुड़े सारे नीतिगत फैसले सिर्फ मनमोहन सिंह के चाहने भर से नहीं हो जाएंगे।

आर्थिक सुधारों की दिशा में सबसे बड़ी उम्मीद मल्टी ब्रांड रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति को लेकर है। वैसे तो कैबिनेट इस प्रस्ताव को पहले ही मंजूरी दे चुकी है। लेकिन विपक्ष ही नहीं, बल्कि सरकार के कई सहयोगी दल भी इस प्रस्ताव के खिलाफ हैं। जाहिर है, इसके लिए सिर्फ विपक्ष और सहयोगी दलों को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि कांग्रेस के अंदर का भी एक बड़ा खेमा मल्टी ब्रांड रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति देने के पक्ष में नहीं है। अब इस मुद्दे पर आम राय बनाने के लिए मनमोहन सिंह को विपक्ष के साथ-साथ अपनों को भी विश्वास में लेना होगा।

दरअसल, सरकार इस मामले में आम लोगों को विश्वास में नहीं ले पा रही है। सरकार की ओर से तर्क दिया जा रहा है कि मल्टी ब्रांड रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति दिए जाने के बाद वॉलमार्ट जैसी कंपनियां देश में निवेश करेंगी, जिससे दोतरफा फायदे होंगे। पहला यह कि उत्पादकों, खासकर कृषि उत्पादकों को अपने उत्पादों की अच्छी कीमत मिल सकेगी, और दूसरा, उपभोक्ताओं को सस्ते दाम पर उत्पाद मिल सकेंगे। लेकिन सरकार के इस दावे के उलट लोगों को यह डर सता रहा है कि वॉलमार्ट जैसी कंपनियों के आ जाने से करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी छिन जाएगी। भूलना नहीं चाहिए कि इस देश में रेहड़ी वालों, खोमचे वालों और छोटे किराना दुकानदारों की संख्या करोड़ों में है और यही उनकी जीविका का साधन है।

मल्टी ब्रांड रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति देने के अलावा आर्थिक सुधारों की दिशा की अन्य उम्मीदों में बीमा और पेंशन क्षेत्र में विदेशी निवेश को अनुमति देना शामिल है। लेकिन इन पर भी सरकार आम राय बना पाने में अब तक विफल रही है। इसलिए यह मान लेना मुश्किल है कि प्रधानमंत्री के वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाल लेने भर से चमत्कार हो जाएगा।

असल में मनमोहन सिंह और उनके विश्वासपात्र सहयोगियों मोंटेक सिंह अहलूवालिया और सी रंगराजन जैसे लोगों का मानना है कि अर्थव्यवस्था की बेहतरी के लिए वित्तीय घाटे में कमी लाना बेहद जरूरी है। इसके लिए सबसिडी में कटौती की वकालत की जा रही है। इस दिशा में सबसे पहले डीजल और केरोसिन पर दी जाने वाली सबसिडी में कमी किए जाने की बात की जा रही है। लेकिन यह फैसला भी इतना आसान नहीं है, क्योंकि सबसिडी में कटौती से डीजल की कीमत बढ़ेगी, जिसका सीधा असर महंगाई पर पड़ेगा।

महंगाई से त्रस्त इस देश में यह निर्णय भी बहुत आसान नहीं दिखता। कुछ अति आशावादी लोगों का मानना है कि प्रधानमंत्री बहुत बड़े अर्थशास्त्री हैं और अर्थव्यवस्था को गति देने के मामले में वह कुछ चमत्कार कर सकते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि अब तक के अपने कार्यकाल में अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री न तो महंगाई रोकने में कामयाब रहे और न ही बेरोजगारी। आर्थिक सुधारों के पैरोकार प्रधानमंत्री का तर्क है कि विदेशों से पैसा आएगा, तो देश की किस्मत सुधर जाएगी। लेकिन जब पूरी दुनिया आर्थिक संकट की चपेट में है, तो पैसा आएगा कहां से?

कुल मिलाकर इतना तो साफ है आर्थिक नीतियों को लेकर सरकार के भीतर ही अंतर्विरोध है। एक धड़ा आर्थिक सुधारों और सबसिडी में कमी का हिमायती है, तो दूसरा इसके खिलाफ। एक तरफ संप्रग की मुखिया सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् खाद्य सुरक्षा विधेयक लाने की बात कह रही है, दूसरी तरफ मनमोहन, मोंटेक और रंगराजन जैसे आर्थिक सुधारों के पैरोकार सबसिडी खत्म करने की मुहिम छेड़े हुए हैं।

डीजल और केरोसिन पर सबसिडी खत्म करने के पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि इसका फायदा उस तबके को नहीं मिल पा रहा, जिसके लिए इसकी व्यवस्था की गई थी। मसलन, डीजल पर सबसिडी का फायदा डीजल कार इस्तेमाल करने वालों को हो रहा है। केरोसिन भी गरीब आदमी को नहीं मिल रहा, जबकि उसकी जमकर कालाबाजारी हो रही है। लेकिन यहां समस्या प्रशासनिक है, न कि नीतिगत। अगर कोई योजना सरकार ठीक से क्रियान्वित नहीं कर पा रही, तो उसे बंद कर देना कहां तक तर्कसंगत है?

कुछ लोगों को उम्मीद है कि मौद्रिक नीति में बदलाव के जरिये अर्थव्यवस्था को गति देने की कोशिश की जा सकती है। यह तभी संभव है, जब रिजर्व बैंक ब्याज दरों में कटौती करे। अगर ऐसा होता है, तो उद्योग जगत को सस्ते दर पर ऋण मिल सकेगा, जिससे निवेश बढ़ेगा। लेकिन महंगाई के स्तर को देखते हुए इसमें कुछ खास तबदीली होने की गुंजाइश बहुत कम है। इसके अलावा वैश्विक अर्थव्यवस्था की हालत खराब है। अमेरिका और यूरोप के बाद चीन की विकास दर में गिरावट दर्ज की जा रही है। कुल मिलाकर हमारी अर्थव्यवस्था एक चक्रव्यूह में फंसी हुई है, जिसे भेद पाना मनमोहन सिंह के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण है।