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कितने करहीन हैं करोड़पति! --- अनिल रघुराज

कराग्रे वसते लक्ष्मी, करमूले सरस्वती; करमध्ये तू गोविंद, प्रभाते कर दर्शनम्।। सुबह-सुबह उठने पर अपने हाथों को इस तरह देखने का संस्कार हमें बड़ों से मिला है. लेकिन इसी 'कर' को अगर 'टैक्स' के संदर्भ में देखा जाये, तो पता चलता है कि जहां लक्ष्मी बहुतायत से बसती हैं, वहां करों का भयंकर टोटा है. क्या आप यकीन करेंगे कि 125.2 करोड़ की आबादी और 81.4 करोड़ मतदाताओं वाले देश में मात्र 18,358 लोगों की सालाना आय एक करोड़ से ज्यादा है, जो इनकम टैक्स देते हैं? वित्त मंत्रालय ने 29 अप्रैल को पहली बार देश के करदाताओं का विस्तृत आंकड़ा जारी किया है. नहीं तो अभी तक देश के वित्त मंत्री तक अंदाज से ही काम चलाया करते थे.

बीते मार्च महीने में ही पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने एक समारोह में बताया था कि देश के करीब 40,000 लोगों की कर योग्य आय 1 करोड़ रुपये से ज्यादा है. लेकिन केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड की 2000-01 से लेकर 2014-15 तक की विस्तृत टाइम सीरीज के अनुसार, देश में वित्त वर्ष 2011-12 (आकलन वर्ष 2012-13) में 2.88 करोड़ व्यक्तियों ने टैक्स रिटर्न भरा. इसमें से 1.71 करोड़ व्यक्तियों की टैक्स देनदारी शून्य थी. बाकी बचे 1.17 करोड़ लोगों में से 18,358 लोगों की कर-योग्य आय एक करोड़ रुपये से ज्यादा थी, जिनका अनुपात मात्र 0.15 प्रतिशत बनता है. सभी कर देनेवाले व्यक्तियों में यह हिस्सा 0.06 प्रतिशत निकलता है और उस साल सभी 3.12 करोड़ करदाताओं में यह अनुपात 0.005 प्रतिशत पर आ जाता है.

सवाल उठता है कि जहां मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरु, कोलकाता या चेन्नई ही नहीं; रांची, पटना, धनबाद, लखनऊ, पुणे, इंदौर, चंडीगढ़ व शिमला ही नहीं; अंबाला, लुधियाना, कानपुर व मेरठ जैसे तमाम शहरों में आपको मर्सिडीज, ऑडी, बीएमडब्ल्यू और जैगुआर-लैंड रोवर जैसी आलीशान कारें दिख जाती हों, वहां समूचे देश में करोड़पतियों की संख्या इतनी कम कैसे है? इससे ज्यादा करोड़पति तो दक्षिणी दिल्ली या मुंबई के कोलाबा इलाके में मिल जायेंगे. सरकारी रिपोर्ट में बहुत सारे तथ्य हमारे देश की कर प्रणाली की अनंत विसंगतियों को उजागर करते हैं. इनका वास्ता देश में लोकतांत्रिक ख्वाहिशों की कमी से भी है.

जब 26 नवंबर, 2008 को मुंबई में ताज व ओबेरॉय जैसे पांच-सितारा होटलों पर आतंकी हमला हुआ था, तब कैसे समाज की सुपर-क्रीमी लेयर सड़कों पर आ गयी थी. उनका कहना था कि क्या हम सरकार को इसीलिए टैक्स देते हैं? क्या वह आम जनजीवन की सुरक्षा नहीं कर सकती? लोकतंत्र में सरकार से जवाबदेही मांगने का यह भाव होना जरूरी है. नहीं तो आम देशवासियों के मन में वही सदियों पुराना भाव बना रहता है कि- को नृप होय, हमय का हानि, चेरी छोड़ि न बनबय रानी.

देश की 55 प्रतिशत से ज्यादा आबादी गांवों में रहती है. यह सच है कि उनमें से 56.4 प्रतिशत लोगों के पास जमीन नहीं है. लेकिन वहां भी ऐश करनेवालों की कमी नहीं है. जो हर किसी को गली-चौराहे व नुक्कड़ों पर अलग से दिख जाते हैं, वे सरकार को नहीं दिखते. सरकारी अमले से उनका रोज का उठना-बैठना होता है. लेकिन तमाम सरकारों और पार्टियों ने अपने राजनीतिक हित को बचाने के चक्कर में आज तक अमीर किसानों पर टैक्स लगाने का कोई उपाय नहीं किया है.

गांवों से निकल कर कस्बों और शहरों में आ जाइये, तो वहां भी आपको धंधे से कई-कई लाख कमानेवाले साफ नजर आयेंगे. उनमें से अधिकांश ने पैन कार्ड तक नहीं बनवाया है, टैक्स देने की तो बात ही छोड़ दीजिए. वित्त मंत्रालय के नवीनतम आंकड़ों से यह भी पता चला है कि देश में आकलन वर्ष 2014-15 में संस्थाओं, कंपनियों व व्यक्तियों को मिला कर कुल करदाताओं की संख्या 5.17 करोड़ है, जिसमें से 4.87 करोड़ (94.2 प्रतिशत) व्यक्तिगत करदाता हैं. तीन साल पहले आकलन वर्ष 2011-15 में कुल करदाता 4.36 करोड़ थे, जिनमें व्यक्तिगत करदाता 4.08 करोड़ (93.6 प्रतिशत) थे.

जाहिर है कि जो टैक्स दे सकते हैं, उनका बड़ा हिस्सा सरकार को टैक्स नहीं दे रहा है. 81.4 करोड़ मतदाताओं में आधे निकाल दिये जायें, तो 40 करोड़ से ज्यादा बचते हैं. उनका एक चौथाई हिस्सा 10 करोड़ का बनता है. कम-से-कम इतने करदाता तो देश में होने ही चाहिए. नहीं तो सही मायनों में राष्ट्र-निर्माण नहीं हो सकता. आखिर जिस सरकार को राष्ट्रीय सुरक्षा मुहैया करानी है, अवाम तक न्याय पहुंचाना है, बिजली, सड़क, पानी से लेकर पुलों, स्वास्थ्य व शिक्षा का इंतजाम करना है, साथ ही मुसीबत में फंसे लोगों को सामाजिक सुरक्षा भी मुहैया करानी है, वह बिना टैक्स के कैसे ये सारे काम कर सकती है?

मुंह से भारत माता की जय लगाना व्यक्ति और हुजूम का उत्साह बढ़ाने के लिए जरूरी है. कोई दूसरे नारे से भी समाज निर्माण की प्रेरणा ले सकता है. लेकिन, अगर उनकी भावना सच्ची है, तो उन्हें पूरी ईमानदारी व सहानुभूति से पता लगाना चाहिए कि कौन लोग हैं, जो लाखों-करोड़ों कमाने के बावजूद टैक्स नहीं देते. मेरी समझ से इनमें से बहुत बड़ा तबका है, जो आज भी अपने को राजा से कम नहीं समझता. ये वे हैं, जो कहीं भी टोल-टैक्स देना या लाइन में लगना अपनी तौहीन समझते हैं. इनमें राजनेताओं से लेकर उनके चंगू-मंगू भी शामिल हैं.

किसी भी लोकतांत्रिक देश की कर-प्रणाली को तभी स्वस्थ माना जाता है, जब धीरे-धीरे वहां प्रत्यक्ष करों का हिस्सा कुल कर-संग्रह में बढ़ता और अप्रत्यक्ष या परोक्ष करों का हिस्सा घटता है. अपने यहां मामला आधे-आधे पर अटका हुआ है. ताजा आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, वित्त वर्ष 2009-10 में कुल कर-संग्रह में प्रत्यक्ष करों का हिस्सा 60.78 प्रतिशत था. लेकिन बीते वित्त वर्ष 2015-16 में यह घट कर 51.05 प्रतिशत पर आ गया है. यह एकदम उल्टा रुझान है, जो दिखाता है कि विकसित लोकतंत्र की दिशा में हमारी प्रगति अच्छी नहीं है. यह सरकार के लिए भी अच्छा नहीं है. ध्यान दें कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने बजट भाषण में 2015-16 में प्रत्यक्ष कर संग्रह का जो संशोधित अनुमान पेश किया था, वास्तविक संग्रह उससे भी 18,000 करोड़ रुपये कम निकला है.