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किशोरों में बढ़ती आत्महत्याएं- अंजलि सिन्हा

कोटा के कोचिंग संस्थानों में तनावग्रस्त बच्चों तथा इनमें से कुछ के आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठाने की खबरों के बीच तथा शेष समाज में इसके प्रति व्यक्त की जा रही चिंताओं के चलते कोटा शहर के 40 कोचिंग संस्थानों ने मिल कर चौबीस घंटे की हेल्पलाइन सेवा शुरू की है, जो परेशान छात्रों की काउंसेलिंग करेगी.

निश्चित ही ऐसी सेवा शुरू होने से छात्रों को शेयरिंग का एक अवसर उपलब्ध होगा तथा घर-परिवार व अपने सर्किल से दूर रह रहे किशोर-किशोरियों को तात्कालिक मदद पहुंचायी जा सकेगी. लेकिन क्या उससे ऐसे संस्थानों के अपने गतिविज्ञान पर कोई फर्क पड़ेगा? क्या अपनी सारी अपेक्षाएं एवं अरमान अपनी संतानों पर लादने की माता-पिताओं की प्रवृत्ति पर पुनर्विचार हो सकेगा, जिसके चलते आज में कोटा उत्तर भारत के लाखों छात्रों के लिए कोचिंग के मक्का के तौर पर विकसित हुआ है?

छोटे-बड़े सभी शहरों में तथा कस्बों तक में शिक्षा की ऐसी दुकानें खुली हुई हैं, जो ‘जीनियस के निर्माण का दावा करती हैं' और बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए उन्हें डॉक्टरी या इंजीनियरिंग की पढ़ाई में एडमिशन की गारंटी देती हैं.

कोटा में आइआइटी, एनआइटी में प्रवेश के लिए कोचिंग संस्थानों का जाल हाल के वर्षों में लगातार बढ़ता गया है, देश के तमाम नामी-गिरामी संस्थानों से लेकर छोटे-मोटे 120 इंस्टीट्यूट यहां चल रहे हैं, जो प्रवेश परीक्षा का प्रशिक्षण दे रहे हैं. आज लगभग डेढ़ लाख छात्र इन संस्थानों से कोचिंग ले रहे हैं. कोचिंग के इस मार्केट में लगभग तीन सौ करोड़ का सालाना टर्नओवर है. और चूंकि इस धंधे में काफी पैसा है, लिहाजा व्यावसायिक प्रतिबद्धता के तहत अच्छे अध्यापकों को अपनी ओर आकर्षित करने की तमाम कोशिशें चलती रहती हैं.

एक अखबारी लेख में ठीक ही जिक्र था कि वर्तमान में यह कोचिंग का सुपरमार्केट हो गया है. पिछले जेइइ के परीक्षा परिणाम में टॉप रैंक में 100 में 30 कोटा के इन कोचिंगों से ही निकले हैं, यानी यहां के कोचिंग सेंटरों ने अपने लिए बाजार में अच्छी जगह बना ली है. और इस ‘कामयाबी' का स्याह पक्ष यह है कि कोचिंग के लिए बढ़ती इस शहर की देशभर में शोहरत के साथ यहां कोचिंग के लिए पहुंच रहे छात्रों द्वारा आत्महत्या की अधिक खबरें भी आने लगी हैं.

बीते जून में यहां पांच छात्रों द्वारा आत्महत्या की खबर आयी थी. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, कोटा में साल 2014 में आत्महत्या की 100 घटनाएं हो चुकी हैं, जिसमें 45 कोचिंग लेनेवाले छात्र शामिल हैं. यूं तो पुलिस अधिकारियों के हिसाब से हर मामले में कोई अलग-अलग वजह होती है, मगर किशोरावस्था के इन छात्रों में होमसिकनेस अर्थात घर की अत्यधिक याद और बेहतर करते जाने का लगातार दबाव, यह बुनियादी कारक हैं. अगर हम यहां प्रवेश लेनेवालों पर गौर करें, तो यहां दाखिला लेनेवालों की उम्र 14 से 18 साल के बीच की होती है.

इस उम्र में वे अधिकतर अपने घरवालों से दूर रह कर भयानक तनाव के बीच तैयारी करते हैं. कोचिंगों के नियमित टेस्ट में नीचे लुढ़कना बच्चों के लिए जानलेवा साबित होता है. परिजन बच्चे के सर पे सपनों की एक पोटली लाद कर कोचिंग भेजते हैं, तो बच्चा उसे साकार करना चाहता है. लेकिन, सफलता के इस मापदंड में सभी सफल होंगे, यह असंभव है.

जो लोग कोचिंग के व्यवसाय में किसी न किसी स्तर पर संलग्न हैं, उनके लिए ऐसी आत्महत्याओं का बेहद सरलीकृत विश्लेषण मौजूद है. वे बताते हैं कि अब जब 10-15 हजार सीटों के लिए कई-कई लाख छात्र बैठ रहे हैं, और एक-एक सीट के लिए तगड़ी प्रतियोगिता है, उसमें बच्चों का तनावग्रस्त होना स्वाभाविक है. प्रेशर और टेंशन तो लेना ही पड़ेगा, तभी कामयाबी मिलेगी. अपने एक आलेख ‘मेकिंग ऑफ ए ट्रेजेडी' में छात्रों की बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति की विवेचना करते हुए समाजशास्त्री लेखिका ने इसी बात को उजागर किया था कि भारतीय परिवारों में मां-बाप की इच्छाएं किस हद तक आज भी बच्चों के जीवन को संचालित करती हैं, इसे जानना हो, तो उन बच्चों से ही बात की जा सकती है. आइआइटी के छात्रों के साथ उनका अनुभव यही बताता है कि जब विद्यार्थियों से पूछा जाता है कि उनकी सर्वोच्च ख्वाहिश क्या है, अधिकतर यही कहते मिलते हैं कि ‘अपने माता-पिता के अरमानों को पूरा करना.'

वैसे युवावस्था में आत्महत्या का अनुपात महज कोटा में ही अधिक नहीं है. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों पर आधारित एक आलेख जो प्रतिष्ठित ‘लांसेट' मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ था, उसके निष्कर्ष को देखें, तो पता चलता है कि युवा भारतीयों में आत्महत्या- मृत्यु का दूसरा सबसे आम कारण देखा गया है.

रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के संपन्न राज्यों के शिक्षित युवा इतनी बड़ी तादाद में मृत्यु को गले लगा रहे हैं, जो दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले सबसे अधिक है. और यह पहला अवसर नहीं है, जबकि हम इस कड़वी हकीकत से रूबरू हो रहे हैं.

अभी सात साल पहले एक रिपोर्ट में (www.sify.com, 2008-05-02) बताया गया था कि स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक, उसके पहले के तीन सालों में 16,000 स्कूली एवं कालेज छात्रों ने आत्महत्या की. वर्ष 2006 में 5,857; वर्ष 2005 में 5,138 तो वर्ष 2004 में 5,610 छात्रों ने आत्महत्या की. उस वक्त स्वास्थ्य मंत्री ने आश्वस्त किया था कि हम स्थिति की गंभीरता से वाकिफ हैं और राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम की नयी रूपरेखा तैयार कर रहे हैं.

समाज में प्रगति की दिशा की बातों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण विचारणीय पहलू होगा- इन युवाओं की आत्महत्या. दूसरा महत्वपूर्ण मसला इन छात्रों की गुणवत्ता का है. ये रटंत विद्या से या परीक्षा की तकनीक जान कर अंक जरूर हासिल कर लेते हैं, लेकिन ज्ञान के समुद्र में गोते लगाना न तो सीखे होते हैं, न हीं इन्हें आनंद आता है.

किशोरों-युवाओं की एक परामर्शदात्री ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि ‘यह सोचने का वक्त आ गया है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि अपनी अतृप्त इच्छाओं को अपनी संतानों के जरिये पूरा करने का जो एक ‘ययातिबोध' हमारे समाज में मौजूद है, वह उनके जीवन में जहर घोल रहा है.

दरअसल, हमारा समाज अपने सदस्यों से हर बार ‘सफलता के नये मुकाम' हासिल करने पर जोर देता है, जहां असफल होनेवाले के लिए कोई जगह नहीं, कोई ठिकाना नहीं.'