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किस हद तक माफ हों कर्ज-- आर. सुकुमार

भारत में इस मानसून की यदि कोई थीम है, तो मेरी राय में वह ‘कर्ज' है। तीन मामले आपके सामने रख रहा हूं।

पहला, रिजर्व बैंक अपनी नई ताकतों से परिचय करा रहा है। नई बैंकरप्सी कोड के तहत उसने 12 बड़ी कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई की है। इन कंपनियों पर हमारे बैंकिंग सिस्टम के कुल एनपीए यानी डूबे हुए कर्ज का लगभग एक चौथाई हिस्सा बकाया है। यह रकम लगभग दो लाख करोड़ रुपये यानी बीस खरब रुपये (31 अरब डॉलर) के बराबर है।

दूसरा, देश भर में किसान विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं। वे कर्जमाफी की मांग कर रहे हैं और अपनी उपज की अच्छी कीमत चाहते हैं। बैंक ऑफ अमेरिका मेरिल लिंच का अनुमान है कि भारत में 2019 के आम चुनाव तक तमाम राज्य तकरीबन 40 अरब अमेरिकी डॉलर का कृषि कर्ज माफ कर चुके होंगे। यह रकम लगभग 26 खरब रुपये के बराबर है।

तीसरा मामला दूरसंचार कंपनियों का है, जिनका एक समूह सरकार से राहत पैकेज पाने की कोशिश में जुटा हुआ है। 31 दिसंबर, 2016 तक दूरसंचार कंपनियों पर करीब 48.5 खरब रुपये का कर्ज हो चुका था। इसके अलावा, खरीदे गए स्पेक्ट्रम के कारण भी उन पर सरकार की करीब 30 खरब रुपये की देनदारी है। यह रकम क्रमश: 75 अरब डॉलर और 46 अरब डॉलर के बराबर है। इस तरह, दूरसंचार कंपनियों पर अब तक लगभग 146 अरब डॉलर का कर्ज हो चुका है।
चलिए, इन तीनों मामलों को इनकी जटिलता के हिसाब से देखते हैं।

सबसे पहले बात एनपीए की। आप मानें या न मानें, एनपीए समस्या का समाधान सबसे आसान है। यह सही है कि बैंकरप्सी यानी दिवालियेपन की कार्रवाई को लंबा खींचा जा सकता है, और सरकारी बैंकिंग प्रणाली में परिसंपत्तियों को कम आंकने के लिए जरूरी विशेषाधिकार भी आसानी से नहीं पाए जाते, खासकर ऐसे वातावरण में, जिसमें जांच एजेंसियां उनकी कीमत कम किए जाने के औचित्य पर सवाल पूछ सकती हों। मगर यह नहीं भूलना चाहिए कि हर एनपीए यानी नॉन परफॉर्मिंग एसेट (गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों) के मूल में संपत्ति है। अब यह संपत्ति किसी भी रूप में हो सकती है। वह स्टील कंपनी हो सकती है, कोई पावर प्लांट, सड़क का कोई हिस्सा या फिर हवाई अड्डे के एक हिस्से का स्वामित्व हो सकता है। ये सभी संपत्तियां हैं, जो एक बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था की जरूरतें होती हैं। और यदि इनका ठीक ढंग से संचालन हो, तो ये सक्षम भी हो सकती हैं, और फायदेमंद भी। उचित कायदे-कानून के साथ यदि कुछ सख्त फैसले लिए जाएं और कर्ज कम करने की हिम्मत दिखाई जाए, तो एनपीए समस्या का समाधान निकल सकता है।

दूरसंचार कंपनियों पर कर्ज वाकई एनपीए से अधिक बड़ी समस्या बन गई है। यह एक ऐसा कर्ज है, जो इसलिए बढ़ रहा है, क्योंकि सरकार ने पारदर्शिता और बाजार-चालित नजरिये को अपनी प्राथमिकता में रखा है। मिंट मुक्त बाजार का हिमायती है, इसलिए सरकार के इस नजरिये पर सवाल उठाना मेरे लिए मुश्किल है। वैसे, दूरसंचार कंपनियों पर कर्ज इसलिए भी इतना बढ़ा है, क्योंकि सरकार ने तकनीक और उपभोक्ता-हितों के परिप्रेक्ष्य में कुछ अच्छा करने की सोची है। इस नजरिये में भी कुछ गलत नहीं है, पर एक सच यह भी है कि वर्षों से इसका लाभ सिर्फ तीन कंपनियों को ही मिला है, जिनमें दो रिलायंस की हैं और एक टाटा की।

दूरसंचार कंपनियों पर कर्ज इसलिए भी बढ़ा है, क्योंकि अधिकतर कंपनियों ने विकास का ऋण-आधारित मॉडल अपनाया है। इस मॉडल को भी कठघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता। दिलचस्प है कि इन तीनों नजरिये का फायदा सरकार को तो खूब मिला, क्योंकि फोन दरें कम होने के बाद भी इससे उसके राजस्व और उपभोक्ता बढ़े हैं। मगर इनसे दूरसंचार उद्योग पर संकट के बादल छा गए हैं। नतीजतन, कंपनियां राहत पैकेज का रोना रो रही हैं। मेरी राय है कि सरकार को बाजार के किसी ताकतवर खिलाड़ी के सामने आने या फिर कंपनियों के आसन्न विलय का इंतजार करना चाहिए। वैसे एक होने की कवायद शुरू भी हो चुकी है, क्योंकि पिछले दिनों ही दूसरी और तीसरी बड़ी दूरसंचार कंपनियां क्रमश: वोडाफोन इंडिया और आइडिया सेल्युलर ने विलय की घोषणा की है। मगर इसके साथ ही, सरकार को इन कंपनियों को और अधिक शेयर लाने को भी प्रोत्साहित करना चाहिए, कुछ स्पेक्ट्रम भुगतान के मामले में उदारता दिखानी चाहिए, विलय-प्रक्रिया को आसान बनाना चाहिए, दूरसंचार नियामक और एंटी-ट्रस्ट बॉडी (एकाधिकार व्यापार विरोधी संस्था) की निष्पक्षता सुनिश्चित करनी चाहिए, और यह वायदा करना चाहिए कि नीतियों में अब कोई दखल नहीं दी जाएगी (कम से कम कुछ वर्षों तक)।

कृषि कर्ज इन सबमें सबसे जटिल समस्या है। ऐसा मैं इसलिए नहीं कह रहा कि इसकी माफी नहीं हो सकती। इसे जरूर माफ किया जा सकता है। कुछ राज्य सरकारों ने ऐसा किया भी है। मगर मैं इसे भारतीय कृषि व्यवस्था में गहरे जडें़ जमा चुकी गंभीर बीमारी का लक्षण मानता हूं। असल में, तमाम मिले-जुले दावों के बावजूद, किसी भी सरकार ने खेती को फायदे का कारोबार बनाने के लिए जरूरी कृषि सुधार और खेती-किसानी से जुड़े बुनियादी ढांचे के निर्माण में संजीदगी नहीं दिखाई है। जबकि वक्त की मांग यही है कि इसमें व्यापक स्तर पर निवेश हो। जिस बदलाव की दरकार है, वह जटिल भी है और कुछ मामलों में राजनीति के लिहाज से असुविधाजनक भी। इतना ही नहीं, इसके नतीजे भी जल्द नहीं दिखेंगे। कर्जमाफी तो सबसे आसान रास्ता है।