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किसके पास हो नियुक्ति का अधिकार- सुधांशु रंजन

उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति को लेकर चल रहा विवाद निर्णायक मोड़ पर पहुंचता दिख रहा है. न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए 1993 से चल रही वर्तमान कोलेजियम व्यवस्था को समाप्त करने के लिए केंद्र सरकार ने 11 अगस्त को लोकसभा में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक पेश किया. इसमें 6 सदस्यों के एक आयोग के गठन का प्रस्ताव है, जो न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए नामों की अनुशंसा राष्ट्रपति को करेगा. चूंकि इस तरह के आयोग के लिए संविधान में कोई प्रावधान नहीं है, इसलिए इसके लिए संविधान में संशोधन करना पड़ेगा. इस कारण एक संबद्घ विधेयक-संविधान (121वां संशोधन) विधेयक भी साथ-साथ पेश किया गया.

संविधान में न तो कोलेजियम की व्यवस्था है, न आयोग की. उच्चतम न्यायालय ने न्यायिक निर्णय के जारिये न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार कार्यपालिका से छीन लिया. विधिवेत्ता इस निर्णय को असंवैधानिक मानते हैं. महत्वपूर्ण सवाल यह है कि योग्य एवं चरित्रवान व्यक्तियों की नियुक्ति कैसे हो? सारा विवाद इस पर है कि नियुक्ति का अधिकार न्यायपालिका के पास हो या कार्यपालिका के पास. गत 28 जुलाई को विधि मंत्रलय ने इस पर विमर्श के लिए बैठक की थी, जिसमें अधिकतर न्यायविदों ने कोलेजियम को समाप्त करने का सुझाव दिया. विधि मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने कहा कि यह पहल 1993 के पहले की स्थिति को बहाल करने के लिए नहीं है, जब अधिकार कार्यपालिका के हाथ में था. तब भी कुछ अपवादों को छोड़ भारत के मुख्य न्यायाधीश की अनुशंसा पर ही नियुक्तियां होती थीं. सेकेंड जजेज मामले में, जिसमें कोलेजियम की व्यवस्था दी गयी, सरकार ने हलफनामा दिया था कि उस समय तक उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की 378 नियुक्तियों में से सरकार ने मात्र 7 नामों को मानने से इनकार किया था.

सरकार को अभी भी आशंका है कि यदि यह संविधान संशोधन विधेयक पारित हो जाता है, तो इसे संविधान के मूल ढांचे का उलंघन बता कर उच्चतम न्यायालय इसे खारिज भी कर सकता है. न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान के मौलिक ढांचे का हिस्सा मानी गयी है और इसकी दुहाई देकर अदालत इस संशोधन को ही असंवैधानिक घोषित कर सकती है. परंतु यदि ऐसा होता है तो इससे कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच टकराव बढ़ेगा और यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा.

यह निर्विवाद है कि कोलेजियम व्यवस्था असफल हो चुकी है. इसके सदस्य सौदेबाजी करते हैं और अपने-अपने प्रत्याशियों को जज बनवाते हैं. यदि आयोग का गठन होता है, तो तीन सदस्य न्यायपालिका के तथा एक विधि मंत्री व दो न्यायविद होंगे. यानी 3 सदस्य कार्यपालिका के होंगे. कार्यपालिका किसी एक जज को, जो आयोग के सदस्य होंगे, प्रलोभन देकर अपने पक्ष में कर सकती है. यह जगजाहिर है कि किस तरह जज अवकाशग्रहण के बाद पद पाने के लिए समझौते करते हैं और मंत्रियों के चक्कर लगाते हैं. सरकार तो वर्तमान कोलेजियम व्यवस्था के तहत भी जिसे चाहती है नियुक्ति करवा लेती हैं.

जब तक न्यायाधीशों की नियुक्ति मनोनयन के जरिये होगी, तब तक विवाद बना रहेगा. अच्छा होगा कि भारतीय प्रशासनिक सेवा की तर्ज पर अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का गठन, जिसमें नियुक्ति खुली प्रतिस्पर्धा के द्वारा हो. 1970 के दशक में ऐसी भारतीय न्यायिक सेवा के गठन का प्रस्ताव भी सरकार की ओर से आया था. पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा ने लिखा है कि 1987 में यह प्रस्ताव विचार के लिए मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन के समक्ष आया था. तब वे राजस्थान हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे. उन्होंने इसका समर्थन किया था, किंतु अधिकतर उच्च न्यायालयों ने इसका विरोध किया. लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि न्यायमूर्ति वर्मा को भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद भी प्राप्त हुआ और वह ऐसी सलाह सरकार को दे सकते थे, जो सरकार पर बाध्य तो नहीं होता, किंतु उस पर विचार किये जाने की बाध्यता जरूर होती.

अब यह संविधान संशोधन विधेयक ऐसे मोड़ पर आया है, जब जजों के विरुद्घ भ्रष्टाचार से लेकर महिलाओं के यौन उत्पीड़न तक के आरोप लगातार लग रहे हैं. मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने चेतावनी दी है कि न्यायपालिका की छवि घूमिल करना राष्ट्रहित में नहीं होगा. यह समस्या मूल रूप से नियुक्ति की है. यदि चरित्रवान व्यक्ति को जज बनाया जायेगा, तो ऐसी तोहमत का सामना करने की नौबत नहीं आयेगी. इसके अलावा मुख्य न्यायाधीश का यह तर्क स्वीकार्य नहीं है कि न्यायपालिका की छवि घूमिल करना ठीक नहीं है. भ्रष्टाचार को उजागर करना हमेशा राष्ट्रहित में है. उजागर न करना संस्था को कमजोर करना है. इस आधार पर तो मंत्रियों का भ्रष्टाचार भी उजागर नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि इससे लोकतंत्र में आम आदमी का विश्वास हिलेगा.

सुधांशु रंजन

वरिष्ठ पत्रकार