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किसके स्कूल-- जीनत

मेरी ही तरह सरकारी स्कूल से पढ़े एक दोस्त ने स्कूल के दिनों का अनुभव साझा किया। वह जब बारहवीं कक्षा में था, तब पहली बार एक अध्यापक ने स्कूल से अंतिम कक्षा की पढ़ाई पूरी करके निकलने वाले विद्यार्थियों के लिए ‘फेयरवेल पार्टी' यानी विदाई समारोह आयोजित करने बात कही तो दूसरे अध्यापक ने उनके इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया और यह टिप्पणी की कि सरकारी स्कूल के बच्चों में संस्कार नहीं होते हैं, इनके लिए पार्टी का आयोजन क्यों किया जाए! सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के बारे में सरकारी स्कूल में ही पढ़ाने वाले किसी शिक्षक के मन में आखिर ऐसे खयाल कहां से आते हैं? अगर कहीं ऐसा है भी तो इसके लिए ‘दोषी' बच्चे हैं या अध्यापक या फिर कोई और? किसी बच्चे के भीतर ‘संस्कार' कहां-कहां से आते हैं और उन संस्कारों के लिए समाज के कौन-से हिस्से जिम्मेदार हैं?


सन् 2011 में तमिलनाडु में चंद्रशेखरन नामक व्यक्ति ने राज्य सरकार से सूचना के अधिकार कानून के तहत एक जानकारी मांगी थी। उसके जवाब में राज्य सरकार ने बताया कि तमिलनाडु में सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों के अध्यापकों के सत्ताईस प्रतिशत बच्चे ही सरकारी स्कूलों में जाते हैं; बाकी बचे तिहत्तर फीसद बच्चे निजी स्कूलों में जाते हैं। वहीं उच्च माध्यमिक विद्यालय के शिक्षकों के केवल तेरह फीसद बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं और बाकी के सत्तासी प्रतिशत बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। सवाल है कि जिन शिक्षकों की जिम्मेदारी है सरकारी स्कूलों को अच्छे से पढ़ाना, उसी नौकरी से उनका परिवार पलता है, उसमें पढ़ाई का स्तर ऐसा क्यों है कि वे खुद वहां अपने बच्चों को नहीं पढ़ाना चाहते हैं? सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के भीतर ‘संस्कार' की खोज करने वाले शिक्षकों या सरकार की नैतिकता यहां किस तरह परिभाषित होगी? जिस दौर में मैं एक स्कूल में पढ़ती थी, तब एक शिक्षक थे, जिन्हें शायद ही कभी किसी कक्षा में पढ़ाने जाते देखा गया था। वे स्कूल में अक्सर बच्चों से कई तरह के काम करवाते थे। हमारे बुजुर्गों ने कहा है कि एक खराब डॉक्टर एक मरीज की जिंदगी खराब कर देता है, पर जब एक शिक्षक अपनी जिम्मेदारी के प्रति ईमानदारी नहीं बरतता है तो वह पूरी पीढ़ी को खराब कर देता है। फिलहाल मैं एक शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान पढ़ती हूं। वहां से लेकर अनेक स्कूलों तक के संदर्भ में देखती हूं तो लगता है कि कई ऐसे भी हैं, जिन्हें एक अच्छा शिक्षक बनने के लिए अभी बहुत मेहनत करने की जरूरत है। खासतौर पर प्रशिक्षण के दौरान न केवल शिक्षण के तौर-तरीके सीख कर प्रयोगधर्मी शिक्षक बनना, बल्कि पहले से चले आ रहे सामाजिक पूर्वग्रहों से मुक्त होने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन जब कई शिक्षकों को सामाजिक-धार्मिक जड़ताओं को सही ठहराते देखती हूं तो लगता है कि वे स्कूलों में बच्चों के मानस को क्या दिशा देंगे।


ऐसा लगता है कि ज्यादातर लोगों ने शिक्षण के पेशे को महज सरकारी नौकरी की सुविधा का ठौर मान लिया है। जबकि सरकारी स्कूलों के बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान देना ज्यादा जरूरी इसलिए है कि वहां आने वाले ज्यादातर बच्चे कमजोर पृष्ठभूमि से आते हैं और अभावों के बीच उनकी शैक्षिक जमीन बहुत मजबूत नहीं हो पाती है। लेकिन सार्वजनिक शिक्षा या सरकारी स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई के बदतर होते हालात के लिए अकेले शिक्षकों पर अंगुली उठाना शायद समस्या को छोटा करना हो सकता है। सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को कक्षाओं में पढ़ाने के अलावा कितने कामों में लगा कर रखा जाता है, क्या यह कोई छिपी बात है? ऐसे में कोई शिक्षक अपनी ड्यूटी के प्रति ईमानदारी बरतना भी चाहे तो किस स्तर तक वह ऐसा कर सकता है? ‘शिक्षा का अधिकार कानून' लागू हुए कई साल हो गए, लेकिन इसकी जमीनी हकीकत आज भी क्या है और हमारे देश के बच्चों को यह कितना प्रभावी रूप में मिल पाया है? इस अधिकार के नाम पर ज्यादा दाखिले और स्कूल की इमारतों को बाहर से चमकाने के बरक्स शिक्षा की गुणवत्ता की सुधार के लिए कितना कुछ किया गया है, यह बच्चों की पढ़ाई का स्तर देखने के बाद समझ में आता है! देश के बजट में रक्षा और शिक्षा के हिस्से में जितनी रकम आती है, उससे भी समझा जा सकता है कि सरकार के लिए सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था किस स्तर तक नजरअंदाज करने का मामला है! बुलेट ट्रेन जैसी फिलहाल गैरजरूरी परियोजनाओं के लिए लाख करोड़ से ज्यादा रकम के लिए तुरंत हामी भर दी जाती है, लेकिन योग्य शिक्षकों की भर्ती और शिक्षण की गुणवत्ता में सुधार पर खर्च करने का सवाल शिक्षा के मद में राशि की कटौती की मार से दब जाता है! ऐसी स्थिति में सरकारी स्कूलों के भरोसे शिक्षा हासिल करने का सपना पालने वाले कमजोर और वंचित सामाजिक तबकों के सामने कौन-सी तस्वीर बनती है!