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किसान आंदोलन का हासिल -- योगेन्द्र यादव

महाराष्ट्र के एक गांव में शुरू हुई हड़ताल अब देश भर में किसान विद्रोह का रूप लेती जा रही है. सवाल है कि क्या यह विद्रोह सिर्फ उग्र विरोध बन कर रह जायेगा या फिर खेती-किसानी के लिए क्रांतिकारी परिवर्तन लायेगा? इस विद्रोह की चिंगारी से सिर्फ बस और ट्रक जलेंगे या कि इस आग में तप कर कुछ नया सृजन होगा? एक बात तो तय है.

 

अहमदनगर जिले के पुणतांबे गांव से जो हड़ताल शुरू हुई थी, वह अब महज एक स्थानीय हड़ताल नहीं रहीं. पहले यह चिंगारी मध्य प्रदेश पहुंची, और वहां मंदसौर के गोलीकांड के बाद से यह आग चारों दिशाओं में फैल गयी है. अब तक राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में किसान आंदोलन फैलने के पुख्ता समाचार मिल चुके हैं. हर कोई हड़ताल का सहारा नहीं ले रहा. कहीं धरना, कहीं प्रदर्शन, कहीं बंद, कहीं चक्काजाम वगैरह... मानो बरसों से सोया किसान आंदोलन एकाएक जाग उठा है. थके-हारे किसान नेताओं में नया जोश आ गया है, नयी पीढ़ी के नये नेता उभर रहे हैं.

 

बीते दिनों दस दिन के किसान संघर्ष ने वह हासिल कर लिया, जो किसान आंदोलन पिछले बीस साल से हासिल नहीं कर पाया है. सरकारों और बाबुओं के पास किसान मुद्दों पर चर्चा का टाइम निकल आया है. मीडिया भी अचानक किसान की सुध ले रहा है. टीवी शो में किसानी की दशा पर चर्चा हो रही है.

 

लेकिन, क्या यह किसान विद्रोह सिर्फ दो-चार दिन की सुर्खियां और सहानुभूति बटोर कर संतुष्ट हो जायेगा? सरकारों से महज एक-दो टुकड़े लेकर चुप हो जायेगा? या कि किसानों का यह उभार देश में किसान की अवस्था को बदल कर ही दम लेगा? इसका उत्तर आनेवाले कुछ दिनों में मिलेगा.

 

यह इस बात पर निर्भर करेगा कि किसान विद्रोह एक संगठित स्वरूप ले पाता है या नहीं. आज देश भर का किसान आंदोलन पूरी तरह से बिखरा हुआ है. आज या तो पार्थो के पालतू किसान संगठन जो विपक्ष में होने पर विरोध करते हैं, या फिर अपनी पार्टियों के सत्ता में आने के बाद प्रचारक या दलाल बने जाते हैं. जाहिर है, ऐसे संगठनों की सदस्यता अधिक होने के बावजूद विश्वसनीयता नहीं बन पाती. या फिर छोटे-छोटे, स्वतंत्र किसान संगठन हैं, जिनका असर एक-दो जिलों से आगे नहीं है. आज देश का किसान आंदोलन बंटा हुआ है. अलग-अलग राज्य के किसान, अलग-अलग फसल उगानेवाले किसान, अलग-अलग जातियों के किसान आपस में बंटे हुए हैं, भूमिस्वामी, बटाईदार और भूमिहीन मजदूर बंटे हुए हैं.

 

जाहिर है, इसी कारण से वर्तमान किसान विद्रोह एक सूत्र में नहीं जुड़ पा रहा है. अलग-अलग राज्यों में स्वत:स्फूर्त तरीके से यह विद्रोह उठ रहा है और अलग-अलग दिशा में बढ़ रहा है. आनेवाले दिनों में अलग-अलग संगठनों ने अलग-अलग धरने, प्रदर्शन, चक्काजाम आदि की घोषणा की है. शुरुआत में यह स्वाभाविक है, लेकिन अगर जल्द ही किसान विद्रोह में राष्ट्रीय समन्वय नहीं होता है, तो इस आंदोलन को टिकाये रख पाना बहुत मुश्किल होगा.

 

इस विद्रोह को क्रांति में बदलने के लिए एक विचार अनिवार्य है. अभी तक ज्यादातर किसान संगठन एक ट्रेड यूनियन की मानसिकता से चलते हैं. उन्हें विकास के मॉडल से शिकायत नहीं है, बस उसमें किसान का हिस्सा चाहिए. अगर किसान की अवस्था को बदलना है, तो उसे इस कृषि विरोधी विकास के मॉडल को खारिज करना पड़ेगा. इसकी शुरुआत आज की व्यवस्था में दो सवाल उठा कर की जा सकती है. पहला सवाल कृषि उपज के वाजिब दाम का है.

 

आज की व्यवस्था में किसान को न्यायपूर्ण कीमत देना संभव ही नहीं है. दूसरा सवाल किसानी की कर्जमुक्ति का है. ये दोनों सवाल आज इस किसान विद्रोह के प्रमुख मुद्दे बने हैं. सभी आंदोलनों को इन्हीं दो मुद्दों के इर्द-गिर्द चलना होगा.

 

इस विद्रोह को क्रांति में बदलने के लिए राजनीति से इसके रिश्ते को साफ करना होगा. किसान आंदोलनों में अपने आप को अराजनीतिक कहने का रिवाज है. अतीत में पार्टियों और सरकारों से मिले धोखे के कारण यह मुहावरा चल निकला है. सच यह है कि शायद ही कोई किसान नेता या संगठन राजनीति से अछूता है. वे सब जानते हैं कि किसान का मुद्दा एक राजनीतिक मुद्दा है.

 

उसे जो भी मिल सकता है, वह सब राजनीति में दखल दिये बिना संभव नहीं है. इसलिए राजनीति से परहेज की भाषा छोड़ कर किसान आंदोलन को राजनीति में दखल देनी होगी. स्थापित दलों की राजनीति करने के बजाय एक नये किस्म की राजनीति खड़ी करनी होगी. किसान अगर राजनीति की लगाम अपने हाथ में नहीं थामेगा, तो सत्ता की राजनीति इस किसान को हांकती ही रहेगी.