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किसान आत्महत्या: कैसे तैयार होते हैं आंकड़े?- पी साईनाथ

किसानों की आत्महत्या से जुड़े सालाना आंकड़े राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) जारी करता है. लेकिन ये आंकड़ों जिस तरह से जुटाए जाते हैं, वह समस्या को कहीं ज़्यादा गंभीर बना रहे हैं.
दरअसल, एनसीआरबी आकंड़ा संग्रह करने की मशीनरी नहीं हैं, बल्कि यह राज्य सरकारों से मिले आंकड़ों को एकत्रित करके उसे टेबुलर फॉर्म में जारी करती है. इस लिहाज से देखें तो एनसीआरबी का इन आंकड़ों में अपना कोई हित नहीं है.
हालांकि इन आंकड़ों को पेश करने के तौर तरीकों में बदलाव से राज्य सरकारों को आंकड़ों में हेरफेर करने का प्रोत्साहन जरूर मिलता है. राज्यों में बैठे अधिकारियों के लिए आंकड़ों में हेरफेर का काम आसान हो जाता है.
एनसीआरबी के मुताबिक आंकड़े पुलिस स्टेशनों के आधिकारिक आंकड़ों पर आधारित होते हैं. अप्राकृतिक मौतों के मामले ज़िला स्तरीय क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो में दर्ज किए जाते हैं. जिसे पहले राज्य क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो तक भेजा जाता है और उसके बाद उसे नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो भेजा जाता है.
कांस्टेबल की भूमिका अहम
लेकिन हकीकत यह है कि किसी भी राज्य के किसी भी ज़िले के पुलिस स्टेशन में सबसे निचले पायदान वाला कांस्टेबल यह तय करता है कि मरने वाला कौन था- किसान था, या फिर ठेके वाला किसान था या फिर खेतिहर मज़दूर था. यह जानकारी जुटाना सर्वे करने के लिए प्रशिक्षित लोगों के लिए भी मुश्किल काम है.

एनसीआरबी ने यह भी बताया है कि बीते साल उसके प्रशिक्षकों ने राज्य के क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अधिकारियों को एक महीने तक कठोर प्रशिक्षण दिया है. यह वैसे लोग थे जो राज्य की राजधानियों में स्थित थे, इनमें स्थानीय स्तर के पुलिस स्टेशन पर तैनात पुलिसकर्मी नहीं थे.
एनसीआरबी की ओर से कहा गया है, "हमने राज्यस्तरीय कर्मचारियों से अनुरोध किया था कि वे जिला स्तरीय और पुलिस स्टेशन के स्तर पर अधिकारियों को प्रशिक्षण दें." लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या राज्य क्राइम ब्यूरो के अधिकारी ऐसा कर पाते हैं? ऐसा कभी नहीं हो पाता है?
हमने महाराष्ट्र के विदर्भ और कर्नाटक के मांड्या जैसे इलाकों के पुलिस स्टेशन से संपर्क किया. इन इलाकों में किसानों की आत्महत्या के ज़्यादा मामले सामने आए हैं. यहां के पुलिसकर्मी चकित थे. आंध्र प्रदेश पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, "हमें तो ऐसी किसी भी ऐसे सर्कुलर की जानकारी नही है जिसमें हमें आंकड़े संग्रह करने या फिर उसे कैसे करने के बारे में कहा गया है."
तहसीलदार की ज़िम्मेदारी
तेलंगाना के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा, "इस तरह के वर्गीकरण का काम पुलिस कांस्टेबल का नहीं है बल्कि यह काम तहसीलदार का है. कोई किसान है अथवा नहीं है, इसका फ़ैसला राजस्व विभाग करता है. एफ़आईआर की कॉपी तहसीलदार के पास जाती है. पुलिसकर्मी आत्हत्या की वजह को लिखते हैं."

इसका मतलब है कि वर्गीकरण का काम या तो राजस्व विभाग करता है या फिर राज्य की राजधानी में स्थित स्टेट क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो. जब कोई संदेह होता है तब तेलंगाना के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के मुताबिक, "इंट्री अन्य के वर्ग में किया जाता है." ऐसा हज़ारों मामलों में होता है.
किसानों की आत्महत्या से सबसे ज़्यादा प्रभावित राज्य महाराष्ट्र के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से जब जानकारी मांगी गई तो उन्होंने केवल 2006 में जारी राज्य सरकार के सर्कुलर का जिक्र किया जिसमें खेती पर संकट की बात शामिल थी. एक अधिकारी ने कहा, "उस सर्कुलर के मुताबिक़ किसी भी किसान की आत्महत्या करने पर उसे ज़िला अधिकारी के पास सूचित करना था." उस अधिकारी ने हमें सर्कुलर की प्रति भी भेजी.
कर्नाटक पुलिस का कहना है कि वह आंकड़ों के नई वर्गीकरण व्यवस्था से चक्कर में पड़ गई है. स्थानीय पुलिस स्टेशनों में एफ़आईआर में इन चीजों के उल्लेख के लिए निर्देश नहीं दिए गए हैं. मध्य प्रदेश के शीर्ष पुलिस अधिकारी ने कहा कि क्षेत्र में तैनात कांस्टेबल को ये आंकड़े एकत्रित करने हैं, इसके बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है.
नई प्रक्रिया की मुश्किल
एनसीआरबी की रिपोर्ट से भी ज़ाहिर होता है कि नई प्रक्रिया से उलझन पैदा हो रही है.
इस रिपोर्ट के दूसरे पैराग्राफ़ में किसानों की आत्महत्या के मामले में लिखा गया है, "किसानों में वे लोग शामिल हैं जिनके पास भूमि भी हो और वे खेतों में काम भी करते हैं. इनमें वो भी शामिल हैं जो अपने खेतों में मज़दूरों से काम कराते हैं. इनमें खेतिहर मज़दूर शामिल नहीं हैं." ऐसे में खेतिहर मज़दूर स्व-रोजगार में कैसे शामिल हो सकता है?

जरा उन किसानों पर भी ध्यान दीजिए, जो दूसरों की जमीन पर ठेके पर खेती करते हैं. ज़मीन के किराए के तौर पर एक शुल्क चुकाने के साथ वे अनाज का एक हिस्सा में मालिक को देते हैं. भारत में ठेके पर खेती अमूमन गैर आधिकारिक तौर पर ही होते हैं, उनका कोई दस्तावेज़ या आंकड़ा नहीं रखा जाता है. यही वजह है कि इन किसानों को बैंक से कर्ज भी नहीं मिल पाता.
ऐसे किसान महाजनों के कर्जे में फंसे होते हैं और आत्महत्या करने के लिए मज़बूर होते हैं. लेकिन पहचान निश्चित नहीं होने से ऐसे किसानों को आत्महत्या करने वालों की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता.
नए प्रावधान के तहत ऐसे किसानों की आत्महत्या को गिन पाना और भी मुश्किल हो जाएगा. एनसीआरबी के नई उप सूची में भी इन किसानों को शामिल करने में मुश्किल होगी. यह नवीनतम आंकड़ों में जाहिर भी हुआ है. पूरे भारत में 2014 के दौरान 6,710 खेतिहर मज़दूरों ने आत्महत्या की है. जो किसानों की आत्महत्या से एक हज़ार से भी ज़्यादा हैं.
पूरी प्रक्रिया में समस्या
अब आंध्र प्रदेश का ही उदाहरण ही लीजिए. आंकड़ों के मुताबिक 2014 में राज्य भर में केवल 160 किसानों ने आत्महत्या की है, जबकि इसी दौरान इससे तीन गुणा ज़्यादा खेतिहर मज़दूरों ने आत्महत्या की है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की प्रतिक्रिया के मुताबिक, "यह माना जाता है कि संबंधित पुलिस स्टेशन को अप्राकृतिक मौत के छानबीन के दौरान मृतक के बारे में ये जानकारी लिखनी चाहिए यह खेतिहर मज़दूर था या किसान." हालांकि ब्यूरो समस्या को भांपते हुए यह भी कह रहा है, "ब्यूरो संबंधित राज्यों से स्पष्टीकरण मांगेगा."
दरअसल, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो को मालूम है कि पूरी प्रक्रिया में समस्या है. वरिष्ठ अधिकारी भी मानते हैं कि ठेके पर खेती करने वाला वही किसान गिना जाएगा, जिसके आंकड़े दर्ज होंगे. लेकिन साथ ही वह कहते हैं, "प्रत्येक राज्य में ठेके पर खेती को लेकर किसी विस्तृत अध्ययन को लेकर फिलहाल एनसीआरबी का कोई इरादा नहीं है."