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किसान को उसका वेतन आयोग कब- योगेन्द्र यादव

किसान हमें ऐसे याद आता है, जैसे कोई दूर का गरीब रिश्तेदार. हम जानते हैं वह कहीं है, लेकिन मुलाकात कभी खुशी-गमी के मौके पर ही होती है. अंकल जी की मौत का रस्मी अफसोस तो कर लेते हैं, लेकिन यह नहीं पूछते कि तुम्हारी जिंदगी कैसे चल रही है. सवाल नहीं पूछते, चूंकि हम उत्तर नहीं सुनना चाहते.

शहरों में रहनेवाले भारत की किसान से मुलाकात किसी बुरी खबर के जरिये ही होती है. खड़ी फसल को बारिश और ओलावृष्टि ङोलनी पड़ी. ऐसे किसी मौके पर ही मीडिया किसान की सुध लेता है, हम भी पल भर के लिए किसान को याद कर लेते हैं. 
कभी हम यह नहीं पूछते कि आपदा या संकट के अलावा किसान कैसी जिंदगी बसर करता है? कितना कमाता है? क्या खर्च करता है? कैसे गुजारा करता है?

जवाब हमारी आंखों के सामने है. लेकिन इस सच को आंकड़ों से साबित करने लिए आपको सरकारी रिपोर्ट की धूल झाड़नी पड़ेगी. कुछ महीने पहले भारत सरकार के नमूना सर्वेक्षण के 70वें राउंड के आंकड़े सार्वजनिक किये गये थे. 

इन सरकारी आंकड़ों से पता लगता है कि वर्ष 2012-2013 में देश में किसान की हालत कितनी खराब थी. देश के औसत किसान परिवार को खेती से एक दिन में सिर्फ 100 रुपये की आमदनी होती है. कहने को मासिक आमदनी 6,426 रुपये है, लेकिन आधी से ज्यादा कमाई पशुपालन और मजदूरी आदि से होती है. 

औसतन पांच-छ: लोगों के किसान परिवार की खेती-बाड़ी से एक महीने में सिर्फ 3,081 रुपये की आमदनी है. इस औसत में अगर दस एकड़ से बड़े किसानों को निकाल दें, तो साधारण किसान को महीने में सिर्फ दो-ढाई हजार की आमदनी है. पंजाब-हरियाणा के किसान की आमदनी लगभग 8-10 हजार रुपये, लेकिन बिहार में सिर्फ 1,700 रुपये है.

भारत सरकार का सबसे कम वेतन पानेवाला चपरासी महीने में 16,500 रुपये पाता है. अलग-अलग राज्य सरकारों ने अकुशल मजदूर का न्यूनतम मासिक वेतन भी 7 से 9 हजार के बीच तय कर रखा है. 
जाहिर है आज कोई भी किसान सर उठा कर अपने बेटे को किसान बनाने की बात नहीं करता. कई किसान अपनी जमीन बेचने को तैयार हैं. पिछले 40-50 साल में किसान की आमदनी घटती जा रही है. इसे गांव में कोई बुजुर्ग आसानी से बता देगा कि आज से चालीस साल पहले किसान डेढ़ क्विंटल गेंहू बेच कर एक तोला सोना खरीद सकता था, आज उसे उतने ही सोने के लिए बीस क्विंटल गेंहू बेचना पड़ेगा. इस अरसे में गेंहू का दाम सात गुना बढ़ा है, लेकिन साबुन की टिकिया 90 गुना महंगी हो गयी है, टाटा नमक की थैली 40 गुना मंहगी हो गयी है. स्कूल और डॉक्टर की फीस तो इतनी बढ़ी है कि कोई हिसाब ही नहीं.
मोटी तसवीर यह है कि किसान की आमदनी कम है और खर्चा ज्यादा. एक साधारण किसान के लिए खेती घाटे का धंधा है. अगर फसल ठीक हो गयी तो आढ़ती से लिये पैसे वापिस हो जाते हैं, और अगर कुदरत की मार हो गयी तो कोई रास्ता नहीं है. जाहिर है ऐसे में किसान पर कर्जे का बोझ बढ़ता जा रहा है. एक औसत किसान परिवार पर 47 हजार रुपये का कर्ज था, अब तक पचास हजार का हो गया होगा.

यह हकीकत गांव में किसी से छुपी नहीं है. एक औसत किसान को आज भी लगता है की उसके हालत की वजह उसकी किस्मत है, कुदरत की मार है, बाजार का खेल है. वह आज भी नहीं देख पाता की उसकी हालत के पीछे सरकारी नीतियों की मार है, राजनीती का खेल है.

फसलों के मूल्य तय करने की सरकारी व्यवस्था किसान के साथ धोखा है. फसल बीमा और आपदा आने पर मिलनेवाला सरकारी मुआवजा एक मजाक है. और अब भूमि अधिग्रहण के जरिये किसान के पास बची एकमात्र संपत्ति को छीनने की तैयारी चल रही है.
देशभर के किसानों को एक मांग रखनी चाहिए. जैसे सरकार अपने कर्मचारियों का वेतन तय करने के लिए वेतन आयोग बनाती है, उसी तरह किसान की न्यूनतम आमदनी तय करने के लिए एक किसान आय आयोग बनाया जाये. खेती पर निर्भर परिवार को कम से कम प्रति व्यक्ति, प्रति दिन 100 रुपये तो तय किये ही जायें. 

यानी की पांच लोगों वाले परिवार को महीने में 15 हजार रुपये की आमदनी की व्यवस्था हो. जैसे सरकार कम से कम कागज पर रोजगार की गारंटी दे रही है, उसी तरह किसान को भी न्यूनतम आय की गारंटी देनेवाला कानून बने. अगर किसान को इससे कम आय हो, तो सरकार भरपाई करने की गारंटी ले.

यह व्यवस्था कैसी होगी, इस पर बहस-चर्चा हो सकती है. इसका एक हिस्सा न्यूनतम समर्थन मूल्य के जरिये हो सकता है. बाकी बीज-खाद-पानी सस्ता देकर हो सकता है, या फिर सीधे नकद सहायता के जरिये. लेकिन कम से कम इस सिद्धांत पर तो पूरे देश में सहमति बने, ताकि किसान और पूरा देश सर उठा कर कह सके- जय किसान!