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किसानों की गरीबी घटाने में छोटी जोतें बड़ी बाधा

लखनऊ। सरकार का नजरिया कुछ भी हो पर कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि उत्तर प्रदेश में 91 फीसदी किसानों की जोतें इतनी छोटी हैं कि इनके बूते गरीबी उन्मूलन तो दूर की बात, उनके परिवारों का पेट भर पाना ही कठिन है। इस मजबूरी में कृषि विविधीकरण सहित तमाम कृषि सुधार योजनाओं का फोकस सिर्फ नौ फीसदी किसान हैं, जिनके बूते सरकार कभी उत्पादन दुगुना करने का सपना देखती है तो कभी किसानों की आय।

प्रदेश में करीब सवा दो करोड़ किसान हैं। इनमें 76.90 फीसदी सीमांत तथा 14.60 फीसदी लघु (औसत जोत 1.41 हेक्टेयर) श्रेणी में हैं जबकि बाकी करीब नौ फीसदी मध्यम व बड़े किसान। प्रदेश में किसानों की औसत जोत सिर्फ 0.83 हेक्टेयर है। उप्र कृषि अनुसंधान परिषद के उप महानिदेशक डॉ. आरवीएस राठौर कहते हैं कि इतनी छोटी जोतोंवाले किसान किसी तरह अपने परिवार का पेट भरने के सिवाय कुछ सोच ही नहीं सकते। विडम्बना है कि प्रदेश में छोटे व गरीब किसानों के परिवार अपेक्षाकृत बड़े हैं। डॉ. राठौर कहते हैं कि जिस किसान के पास एक या आधा हेक्टेयर जमीन है, उसे कृषि विविधीकरण की चाहे जितनी नसीहतें दी जाएं, उसकी प्राथमिकता धान और गेहूं की फसलें ही रहेंगी, जिनसे उसके परिवार का पेट भरता है।

प्रदेश की दो-तिहाई जनशक्ति कृषि से जुड़ी है पर समग्र आमदनी में कृषि की हिस्सेदारी 30 फीसदी से भी कम है। योजनाकार मानते हैं कि कृषि क्षेत्र पर अतिनिर्भरता की लाचारी ही गरीबी की जड़ है और यह परिदृश्य बदले बगैर गरीबी से पिंड छुड़ाना नामुमकिन है। समग्र आय में कृषि की हिस्सेदारी का राष्ट्रीय औसत सिर्फ 20.80 फीसदी है। प्रदेश के नियोजन विभाग की एक रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर अर्थव्यवस्था के विकास का आधार सेवा व इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र हैं जबकि उत्तर प्रदेश की आय में इन क्षेत्रों की हिस्सेदारी राष्ट्रीय औसत के मुकाबले कम है। कृषि क्षेत्र पर ही निर्भर रहने का नतीजा है कि पीढ़ी दर पीढ़ी जोतों का आकार घटता जा रहा है।

इसमें दो राय नहीं कि प्रदेश की बीपीएल आबादी (गरीबी की रेखा से नीचे), जो 1973-74 में 57.07 फीसदी थी, अब घटकर सिर्फ 29.2 फीसदी रह गई है। बहरहाल, इसी सिक्के को पलटकर देखने पर पता चलता है कि 1950-51 में प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत 267 के मुकाबले जहां 259 रुपये (97 फीसदी) थी, वहीं दसवीं पंचवर्षीय योजना के अंत में राष्ट्रीय औसत 29382 रुपये के मुकाबले सिर्फ 14834 रुपये (50.49 फीसदी) रह गई। 1973-74 में प्रदेश की बीपीएल आबादी 535.73 लाख (57.07 फीसदी) थी जो दस वर्ष बाद 1983 -84 में 556.74 लाख (47 फीसदी) हो गई। जाहिर है कि दस साल में गरीबी का प्रतिशत घटा लेकिन गरीबों की संख्या बढ़ गई। 2004-05 में बीपीएल आबादी बढ़कर 5.90 करोड़ हो गई। बीपीएल आबादी में करीब 80 फीसदी किसान या ग्रामीण मजदूर हैं।

उप्र कृषि अनुसंधान परिषद के पूर्व महानिदेशक डॉ. चन्द्रिका प्रसाद कहते हैं कि जोतों का आकार बदलना संभव नहीं है लेकिन सरकार को इस कठिनाई से निपटने की तरकीब जरूर निकालनी चाहिए। उनका कहना है कि छोटी जोत के किसान न साधनों का बोझ उठा सकते हैं, न नये प्रयोगों का खतरा। ऐसे में सरकार को चाहिए कि लघु एवं सीमांत किसानों के समूह गठित कर दे, जो संगठित होकर उपकरणों व अन्य इनपुट का इंतजाम करें। उनका सुझाव है कि ऐसे वर्गो के लिए सरकारी सब्सिडी बढ़ायी जानी चाहिए।