Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/किसानों-की-बदहाली-दूर-करने-के-लिए-शुभ्रता-मिश्रा-11424.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | किसानों की बदहाली दूर करने के लिए...- शुभ्रता मिश्रा | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

किसानों की बदहाली दूर करने के लिए...- शुभ्रता मिश्रा

हिन्दुओं की एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार पृथ्वी पर लगातार सौ वर्षों तक वर्षा नहीं हुई थी। अन्न-जल के अभाव में भूख से व्याकुल होकर समस्त प्राणी मरने लगे थे और इस कारण चारों ओर हाहाकार मच गया था। उस समय समस्त मुनियों ने मिलकर देवी भगवती की उपासना की एवम् दुर्गा जी ने शाकम्भरी नाम से स्त्री रूप में अवतार लिया और उनकी कृपा से वर्षा हुई। इस अवतार में महामाया ने जलवृष्टि से पृथ्वी को हरी शाक सब्जी और फलों-फूलों से परिपूर्ण कर दिया था। तत्पश्चात पृथ्वी के समस्त जीवों को जीवनदान प्राप्त हुआ।


यह पौराणिक आख्यान अपने पूर्वार्ध स्वरुप में कुछ शताब्दियों से पृथ्वी पर मानो पुनर्जीवित हो चुका है। वर्तमान में उसके विकराल स्वरुप पर्यावरणविदों की चिंताओं में ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के नाम से समस्त धरती पर उत्पात मचा रहे हैं। भारत के संदर्भ में देखें तो अनेक पर्यावरणीय रिपोर्टें चीखचीख कर कहती आ रही हैं वनों के घटते क्षेत्रफल के कारण वर्षा में कमी आई है और इससे भूजल स्तर घटा है। पिछली दो शताब्दियों में जहां 16 वर्षों में एक बार सूखा पड़ता था, वहीं 1968 के बाद से हर 16 वर्ष में तीन बार बड़ा सूखा पड़ने लगा है। जंगलों की अंधाधुंध कटाई के कारण जहां बंजर भूमि बढ़ती जा रही हैं, वहीं कृषिभूमि सिमटती जा रही है।


सूखे के कारण कृषिभूमि के अनुपजाऊ होने से खेती और किसान दोनों प्रभावित हो रहे हैं। इसके लिए सरकारी स्तर पर अनेक मनभावन कल्याणकारी योजनाएं बनती हैं, संवरती हैं, कहते हैं धन भी मुहैया होता है, न्यायालयों से फटकार भी लगती है, पर फिर भी यह सारा सब्ज़बाग अचानक जाने कहां विलुप्त सा हो जाता हैं और किसानों को दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना देने और पीएमओ के सामने निर्वस्त्र होने के लिए मजबूर होना पड़ता है। आंकड़ों की मानें तो पिछले दो सालों में सिर्फ कम वर्षा के कारण ही देश के महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, राजस्थान, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्य भयंकर सूखे की मार झेलते आ रहे हैं।


अप्रैल के दो सप्ताह गुजरने वाले हैं और गर्मी व सूखे के हालातों और पेयजल की तरस ने हर साल की तरह देश के अधिकांश भागों में अपने पांव पसारने शुरु कर दिए हैं। बस लोगों का पलायन शुरु होने ही वाला है। सरकारें अपने अपने राज्यों को सूखाग्रस्त घोषित करके विविध कागजी योजनाओं द्वारा स्वयं को शाकम्भरी होने का दम्भ भरने लगेंगी। लेकिन गले तो वास्तव में जिनके सूखेंगे, उनकी हालत और भविष्य उनको स्वयं पता है।


ये तो वो सूखा है, जो धरती को सोख रहा है, खेती को अनुपजाऊ स्वरुप दे रहा है और किसानों को आत्महत्याएं करवाता है। ये वो सूखा है, जो गांव के गांव खाली करवाता है, जलाशयों को उनकी ही कुक्षियों में तरसाता है और मानव समाज में पेयजल संकट गहराता है। चलिए फिर भी हमारे नीति नियंताओं और क्रियान्वयन-कर्ताओं की संवेदनशीलताएं राष्ट्रीय आपदा राहत कोष और ग्राम सिंचाई योजनाओं जैसे मरहमों द्वारा कभी कभी उबार लेती हैं इन सूखों की मारों से, कुछ किसान बच जाते हैं और शेष कुछ तो कर पाते हैं। बाकी प्रारब्ध तो हमारे भारत का सबसे संतोषजनक जुमला है ही।


लेकिन उस सूखे का क्या, जो इंसानियत को सुखा रहा है, जो मानवाधिकारों को धता बता रहा है और विश्व चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा है। सीरिया के रासायनिक हथियारों के कारण दम तोड़ती मानवता, उत्तर कोरिया की तानाशाही की दबोच में सिसकती मानवता, अन्तरराष्ट्रीय आतंकवाद के साए में घुटती मानवता, सब कुछ जैसे सूख रहा है। भारत का कुलभूषण मौत के फरमान को घूंट-घूंट पीकर भी कितना सूख रहा है। बंद मुठ्ठी की रेत से फिसल रहे उसके जीवन की चिंता में सूखे जा रहे हैं, उसके घर के लोग, क्या सच में सूखे के उत्तरार्ध में शाकम्भरी प्रकट होंगी और दे पाएंगी जीवनदान एक बार और मानवता को?