Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/किसानों-की-हालत-बदलनी-होगी-प्रो-योगेन्द्र-यादव-12737.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | किसानों की हालत बदलनी होगी-- प्रो. योगेन्द्र यादव | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

किसानों की हालत बदलनी होगी-- प्रो. योगेन्द्र यादव

पिछले दिनों एक उद्योगपति ने किसानों के बारे में बड़ी चौंकानेवाली बात कही. एक जमाने में इन्फोसिस की संस्थापक टीम के सदस्य रहे और आजकल भारतीय जनता पार्टी के नजदीक समझे जानेवाले उद्योगपति मोहनदास पई ने कहा कि देश में सिर्फ 16 प्रतिशत किसान हैं.

उन्हें सिर्फ संख्या से मतलब नहीं था. वह एक राजनीतिक बात कह रहे थे कि देश में इतने छोटे से वर्ग को नाना प्रकार की सुविधाएं क्यों मिल रही हैं? किसानों की ऋण माफी की बात क्यों होती है? क्या देश किसानों को फसल का दाम देने का बोझ बर्दाश्त कर सकता है?

मैं आमतौर पर इस तरह की हवाई बहसों से दूर रहता हूं. लेकिन, मामला किसानों का था और एक बड़ा नाम इस तरह का अनर्गल प्रचार कर रहा था.

इसलिए मुझे इस बहस में कूदना पड़ा. जब उनसे इस आश्चर्यजनक आंकड़े का प्रमाण मांगा गया, तो पता लगा कि यह निष्कर्ष किसान की एक गलत परिभाषा पर आधारित था. हमारे राष्ट्रीय आधिकारिक आंकड़ों की बजाय वह वर्ल्ड बैंक के किसी अनुमान पर आधारित था. और तो और, वह ठीक से गणित करना भी भूल गये थे.

मैंने इन सबके प्रमाण पेश किये और तब उन्होंने कम-से-कम आंशिक रूप से अपनी बात वापस ले ली. यह बात आयी-गयी हो जानी चाहिए थी, लेकिन यह सवाल पीछे छोड़ गयी कि आखिर भारत में कितने किसान हैं?

जवाब आसान नहीं है. बचपन से हम एक बात सुनते आ रहे हैं कि हमारा भारत एक कृषि-प्रधान देश है. लेकिन, तब से अब तक हकीकत बहुत बदली है.

शहरी आबादी अब एक तिहाई से ज्यादा हो गयी है. हर पीढ़ी में जमीन के बंटवारे के चलते खेत छोटे हुए हैं. यूं भी किसान की हालत ऐसी है कि हर कोई ज्यादा मुनाफे और इज्जत का काम ढूंढ रहा है. तो आखिर कितने लोग अब खेती में बचे हैं?

उत्तर ढूंढने के दो रास्ते हैं. पहला स्रोत है पिछली राष्ट्रीय जनगणना, जो सात साल पहले सन 2011 में हुई थी. इसमें हर काम करनेवाले व्यक्ति (यानी कि किसी भी तरह का काम करके पैसा कमानेवाले लोग) से उसका पेशा पूछा गया था. उस वक्त देश के 48 करोड़ कामगारों में से 26 करोड़, यानी 54.6 प्रतिशत कामगारों का रोजगार कृषि क्षेत्र में था.

ध्यान रहे कि यहां कृषि क्षेत्र का मतलब काश्तकारी से लेकर पशु पालन, मछली पालन और वन उपज को इकट्ठा करना शामिल है. अगर इसमें खेतीबाड़ी से बिल्कुल अलग काम को बाहर कर दिया जाये और यह मान लिया जाये कि पिछले सात सालों में कृषि क्षेत्र में जुड़े लोगों की संख्या में कुछ कमी आयी होगी, तब भी हम आसानी से यह कह सकते हैं कि देश की कम-से-कम आधी कामगार आबादी खेती-किसानी से जुड़ी हुई है.

लेकिन, साल 2011 की जनगणना ने एक चौंकानेवाली बात भी बतायी. अब देश में अपनी जमीन पर खेती करनेवाले किसान 12 करोड़ से भी कम यानी कामगारों का 24.6 प्रतिशत ही बचे हैं.

उनकी तुलना में खेत में मजदूरी करनेवालों की संख्या कहीं अधिक यानी 14 करोड़ से ज्यादा या कामगारों का लगभग 30 प्रतिशत है. जमीन के बंटवारे के चलते औसत जोत बहुत छोटी हो गयी है. देश के दो-तिहाई खेत अब एक हेक्टेयर यानी ढाई एकड़ से छोटे है.

अगर बारीक छलनी से किसानों की संख्या के आंकड़े की परीक्षा करनी हो, तो दूसरा वाला रास्ता है. साल 2012 से 2013 के बीच भारत के सैंपल सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) ने अपने राष्ट्रीय सर्वेक्षण के 70वें राउंड में किसानों की अवस्था का विशेष सर्वेक्षण किया था.

इस सर्वेक्षण ने व्यक्तियों की बजाय ग्रामीण भारत में उन परिवारों की शिनाख्त की, जो मुख्यतः खेती पर निर्भर करते हैं. इस सर्वेक्षण के हिसाब से देश में गांवों में कुल 15.6 करोड़ परिवार थे, जिनमें से 9 करोड़ परिवार यानी ग्रामीण भारत के 58 प्रतिशत परिवार ऐसे थे, जिन्हें किसान परिवार कहा जा सकता है. यानी कि यह वे परिवार थे, जिन्होंने पिछले सालभर में खेती-बाड़ी की थी और खेती से प्राप्त आमदनी परिवार के गुजर-बसर का प्राथमिक या दूसरा प्रमुख स्रोत था.

पूरे देश के सभी परिवारों के अनुपात के रूप में देखें, तो यह 38 प्रतिशत बनता है. यह सर्वेक्षण शहरी इलाकों में नहीं हुआ. लेकिन, अब सरकारी परिभाषा के हिसाब से कई बड़े गांव उनसे जुड़े कस्बे या छोटी मंडियां भी शहर बन गयी हैं, वहां भी कुछ किसान परिवार रहते हैं. अगर उन्हें भी इस गिनती में जोड़ दें, तो देश के कम-से-कम 40 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं, जिन्हें किसान परिवार कहा जा सकता है.

यहां भी याद रखने की जरूरत है कि इन किसान परिवारों के लिए भी खेती-बाड़ी उनकी आमदनी का मुख्य स्रोत हो सकता है, लेकिन एकमात्र नहीं है. औसतन एक किसान परिवार अपनी कुल आमदनी का आधे से भी कुछ कम खेती-बाड़ी से कमा पाता है.

इस शोध का कपड़ाछान निचोड़ यही है कि इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भी भारत कृषि-प्रधान देश है. किसान आज भी इस देश का सबसे बड़ा वर्ग है. भारत में आज भी 40 प्रतिशत और 50 प्रतिशत के बीच किसान हैं.

इसलिए किसान की हालत बदले बिना देश में खुशहाली नहीं आ सकती. लेकिन, आज किसान का मतलब बदल रहा है. आज किसान के बारे में सोचते वक्त अपनी जमीन पर खुद खेती करनेवाले किसान के साथ-साथ उस किसान के बारे में सोचना पड़ेगा, जो बटाई या ठेके पर खेती करता है, जो खेत में मजदूरी करके अपनी आजीविका कमाता है. देश की कृषि नीति को इस रोशनी में बदलना होगा.

आज जरूरत इस बात की है कि देश के किसान आंदोलन को भी इस नयी सच्चाई के अनुरूप अपने आपको ढालना होगा. आज बटाई या ठेके पर खेती करनेवाले किसान को न तो बैंक का ऋण मिलता है, न सरकारी सहायता मिलती है और न ही मुआवजा मिलता है.

इस किसान वर्ग को न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ भी नहीं मिलता. क्योंकि, वह अक्सर मंडी तक पहुंच ही नहीं पाता. वह अक्सर साहूकार से कर्ज लेता है. इसलिए आज किसान आंदोलन को छोटे या सीमांत किसान या फिर बटाई या ठेके पर खेती करनेवाले किसान की समस्या को केंद्र में रखना होगा. कागज में उनका नाम दर्ज करने और सरकारी सहायता, मुआवजा, ऋण, न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ दिलाने की मांग किसान आंदोलन के केंद्र में रखनी होगी.