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किसानों के पैसों से गैरों को लाभ- देविंदर शर्मा

वित्तीय वर्ष 2012-13 में पांच लाख 75 हजार करोड़ रु पये कृषि कर्ज उपलब्ध कराया गया था. उसके साल भर पहले यह राशि चार लाख 75 हजार करोड़ रु पये थी. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक 2000 से 2010 के बीच कृषि कर्ज में 755 प्रतिशत की वृद्धि हुई. वर्ष 2013-14 के बजट में वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने घोषणा की थी कि कृषि कर्ज के लिए बजट आवंटन सात लाख करोड़ रुपये कर दिया गया है. नि:संदेह यह एक गुणात्मक वृद्धि है. इसका यह आशय या संदेश गया कि बड़ी संख्या में कृषि कर्ज की उपलब्धता से छोटे और मंझोले किसानों को लाभ होगा और वे खेती के मोर्चे पर अच्छा करेंगे. पर, जमीन पर इस कृषि कार्य का बेहतर लाभ मिलता नहीं दिख रहा है.

पिछले 15 सालों में देश में 2.90 लाख किसानों ने आत्महत्या की है. दूसरी ओर यह अध्ययन भी सामने आया है कि देश के 42 प्रतिशत किसान कृषि कार्य छोड़ना चाहते हैं. इस कृषि संकट का समाधान हर साल बजट में कृषि कर्ज के लिए बढ़ती आवंटित राशि हल नहीं कर सकती. क्योंकि लागत और परिणाम में तालमेल नहीं है. ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि यदि सांस्थानिक कर्ज किसानों के पास नहीं पहुंचा तो वह कहां गया?

हम बार-बार सुनते हैं कि कृषि कर्ज कृषि उपज बढ़ाने में अहम भूमिका निभाता है और किसानों की चिंता व तनाव को कम करता है. इसलिए कृषि कर्ज को लगातार बढ़ाया गया है. पर, औद्योगिक संगठन एसोचैम ने पिछले एक दशक में कृषि कर्ज के वितरण का विेषण किया और उसके आधार पर बताया कि कृषि कर्ज में दिशाविहीनता है. बैंक द्वारा अप्रत्यक्ष कर्ज देने का अनुपात बढ़ा है. ब्याज दर का भी दुरु पयोग होता है और उसके लिए आवंटित राशि को दूसरे सेक्टरों में कर्ज देने के लिए उपयोग कर लिया जाता है. खेत और फसल के अनुपात में कर्ज देने में असमानता होती है. इस संस्था ने कहा है कि छोटे व सीमांत किसानों को सांस्थानिक कर्ज उपलब्ध कराने में समावेशन की प्रक्रिया बड़ी समस्या है.

पिछले पांच साल में खेती का कर्ज ढाई गुणा बढ़ा है. लेकिन हकीकत यह है कि कुल सांस्थानिक कर्ज का छह प्रतिशत ही छोटे व सीमांत किसानों को मिल पाता है. इस मुद्दे पर हमारे प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, कृषि मंत्री व सरकार के आर्थिक सलाहकार कभी कुछ नहीं कहते. वे छोटे व सीमांत किसानों को मिलने वाले लाभ के मुद्दे पर कभी बात नहीं करते. सात लाख करोड़ के बजट आवंटन में बमुश्किल 50 हजार करोड़ रु पये का लाभ ही छोटे व सीमांत किसानों को मिल पाता है. शेष साढ़े छह लाख करोड़ रुपये का लाभ चार प्रतिशत ब्याज दर पर अनुपयुक्त ढंग से कृषि कंपनियां, वेयर हाउस वाले व राज्य विद्युत बोर्ड उठाते हैं. हमारे वित्तमंत्री क्यों नहीं बताते कि किसानों को कृषि कर्ज का कितना वास्तविक हिस्सा मिलता है? और कितने ऐसे किसान हैं जो कृषि से जुड़े दूसरे सहयोगी कार्यो में लगे हैं?

2007 में कुल कृषि कर्ज 2, 29, 400 करोड़ रुपये था, जिसका मात्र 3.77 प्रतिशत हिस्सा ही छोटे व सीमांत किसानों को मिला. बाकी 96.23 प्रतिशत कर्ज बड़े किसान व कृषि व्यापार कंपनियों ने प्राप्त किया. 2011-12 में कृषि कर्ज 5, 09, 000 करोड़ रु पये था. उसमें छोटे एवं सीमांत किसानों का हिस्सा मात्र 5.71 प्रतिशत था.

स्वाभाविक है कि सरकार छोटे एवं सीमांत किसानों के नाम पर कृषि कंपनियों को लाभ पहुंचा रही है. वास्तव में यह किसानों द्वारा कृषि को छोड़ने का प्राथमिक कारण है. हमारे किसानों के पास विकल्प नहीं हैं. वे खेती के लिए सूदखोरों से पैसा लेते हैं, जो काफी ऊंची ब्याज दर वसूलते हैं. ऐसे में इसमें कोई शक नहीं है कि किसानों की आत्महत्या का सिलिसला जारी रहेगा.

 

(यह आलेख उनके एक ब्लॉग पोस्ट का अनूदित अंश है.)