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किसानों के प्रति उदासीनता- योगेन्द्र यादव

बीसवीं सदी के किसान नेता दीनबंधु चौधरी छोटू राम ने किसान को कहा था: 'ए भोले किसान, मेरी दो बात मान लें- एक बोलना सीख और एक दुश्मन को पहचान ले'.

लगता है सौ साल बाद भारत के किसान ने उनकी बात सुन ली है. आज देशभर से 200 से अधिक किसान संगठन 'किसान मुक्ति मार्च' लेकर दिल्ली पहुंच रहे हैं. इस मार्च के जरिये किसान बोलना सीख रहे हैं. शायद इस बार अपने दुश्मन की पहचान भी करके जायेंगे.

पिछले सत्तर साल में किसान कभी एक स्वर में नहीं बोले. अलग-अलग इलाके, फसलों, वर्ग और जाति के किसान अलग-अलग स्वर में बोलते रहे. इसलिए किसानों की आवाज कभी सुनी नहीं गयी. लेकिन आज दिल्ली में 'अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति' के बैनर तले पूरे देश के, हर वर्ग के और हर तरह के झंडे और विचारधारा के किसान इकठ्ठा हो रहे हैं.

पहली बार किसान के साथ शहरी नागरिक, वकील, डॉक्टर, छात्र भी जुड़ रहे हैं. पहली बार किसान सिर्फ विरोध नहीं कर रहे, विकल्प दे रहे हैं. मांग कर रहे हैं कि संसद का एक विशेष अधिवेशन हो, जिसमें किसानों के दो कानून बनाये जाएं. पहला कानून- किसानों को अपनी फसल का उचित दाम कानूनी गारंटी के साथ मिले. दूसरा कानून- किसानों को एक झटके में कर्ज से मुक्त किया जाये. ये विधेयक संसद के सामने पेश हो चुके हैं. इसलिए यह भरोसा बनता है कि इस बार किसान की आवाज सुनी जायेगी.

दुश्मन की पहचान का मामला ज्यादा पेचीदा है. किसान विरोधी होने के तीन अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं. पहला, किसान का वर्ग विरोधी होना, यानी जान-बूझकर किसान के मुकाबले दूसरे वर्गों का हित साधना. ऐसा विरोध करनेवाला किसान का प्रतिद्वंद्वी भी हो सकता है और उसका दुश्मन भी. यह भावनात्मक विरोध है, जो बैर या दुर्भाव से पैदा होता है.


दूसरे अर्थ में किसान विरोधी होने का मतलब है किसान का वैचारिक विरोधी होना. जरूरी नहीं कि किसान का वैचारिक विरोधी उससे बैर या दुर्भावना रखे. वैचारिक विरोधी किसान के प्रति दया भाव या अनुराग भी रख सकता है, लेकिन देश और दुनिया के भविष्य के नक्शे में वह किसान के लिए जगह नहीं देखता.


किसान का वैचारिक विरोधी कहता है कि किसान की मदद करनी है, तो उसे किसानी के श्राप से मुक्त होने में मदद करो. वह मानता है कि खेती और किसानी तो अतीत के अवशेष हैं, आधुनिक दुनिया में भविष्य बनाने के लिए इनका कोई काम नहीं है. यह मानसिक विरोध पूर्वाग्रह या अज्ञान से पैदा होता है.


तीसरे अर्थ में किसान विरोध का मतलब है किसान का व्यवस्थागत विरोध, यानी ऐसी नीतियों-संस्थाओं का निर्माण, जिससे अंततः किसान को नुकसान होता है. विश्व व्यापार की आर्थिक नीतियां या विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम बनानेवाले चाहे-अनचाहे इस अर्थ में किसान विरोधी की भूमिका में खड़े हो जाते हैं. व्यवस्थागत विरोध अनजाने में भी हो सकता है. खुद को किसान का हितैषी समझनेवाले भी उसका व्यवस्थागत नुकसान कर सकते हैं. यह व्यवहारगत विरोध है, जो उदासीनता से पैदा होता है.


दिल्ली में इकठ्ठा हुए संगठनों का मानना है कि मोदी सरकार देश की सबसे बड़ी किसान विरोधी सरकार है. यह किसान विरोध केवल इस सरकार की वादाखिलाफी या झूठे दावों तक सीमित नहीं है. हद तो यह है कि मोदीजी वादे से मुकरने के बाद सीनाजोरी भी करते हैं.


किसान के कल्याण के बड़े और झूठे दावे करना नयी बात नहीं है. बस, मोदी राज में दावों और सच के बीच फासला पहले से ज्यादा बढ़ गया है. किसानों का नाम लेकर बड़े पूंजीपतियों के हित में सरकार चलाना भी कोई नयी बात नहीं. बस, मोदीजी ज्यादा खुले तरीके से यह करते हैं.


मोदीराज को देश की सबसे बड़ी किसान विरोधी सरकार इसलिए कहा जा रहा है कि यह देश की पहली केंद्र सरकार है, जो तीनों अर्थ में किसान विरोधी है. यह व्यवस्थागत रूप में किसान विरोधी है, अपनी सोच और दृष्टि में किसान विरोधी है और इसकी मंशा किसान के वर्ग विरोध की है.


यह व्यावहारिक, मानसिक और भावनात्मक तीनों स्तरों पर किसान विरोधी है. इस सरकार का किसान विरोध केवल इसकी कृषि नीति या अनीति को देखकर पता नहीं चलता. इसके लिए इस सरकार की नीतियों को समग्रता में देखकर उसमें किसान की जगह समझनी होगी. मोदीराज की आर्थिक नीतियों ने उन तमाम संस्थाओं को मजबूत किया है, जो अंततः किसान को कमजोर करती हैं.


इस व्यवस्था को कृषि उत्पादन की चिंता है, उत्पादक की नहीं. मोदी और उनकी सरकार की दृष्टि में देश का भविष्य खेती-किसानी में नहीं, बल्कि खेती से दूर हटने में है. मोदीराज जिस विचार का प्रतिनिधित्व करता है, उसमें गांव उजड़ेंगे, किसान के हाथ से खेती जायेगी और किसान शहरों में मजदूर बनेंगे.


केवल व्यवस्था विरोध व वैचारिक विरोध के मायने में मोदी सरकार देश की पहली या सबसे अधिक किसान विरोधी सरकार नहीं है. सभी सरकारें कमोबेश किसान विरोधी रही हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि बाकी सरकारों के व्यवस्थागत विरोध की कुछ व्यावहारिक सीमाएं रही हैं, उनका राजनीतिक स्वार्थ उन्हें एक सीमा से अधिक किसान विरोधी होने से रोकता रहा है. मोदी सरकार में न तो ऐसा आंतरिक लोकतंत्र है और न ऐसे नेता, जो इस व्यवस्थागत विरोध की सीमा बांध सकें. व्यवस्था की किसान के प्रति उदासीनता बढ़ती ही जा रही है.


मोदी सरकार की खासियत है कि उसने व्यवस्थागत और वैचारिक विरोध के साथ वर्ग विरोध को भी जोड़ दिया. मोदी राज से पहले देश की कोई सरकार नहीं थी, जिसने किसानों के प्रति इतना बैर और निष्ठुरता दिखायी हो. चाहे वह जमीन अधिग्रहण में किसान के अधिकार को कमजोर करने की जिद हो या फिर वनाधिकार को छीनने कि जल्दी, चाहे लगातार सूखे के बीच सरकारी उदासीनता हो या गिरते हुए भाव के प्रति सरकारी चुप्पी, चाहे नोटबंदी का कहर हो या बढ़ती लागत का बोझ, देश के इतिहास में कोई दूसरी सरकार ढूंढना मुश्किल होगा, जिसने किसानों के प्रति इतनी असंवेदनशीलता बरती हो.


अगर दिल्ली में हो रही रैली के जवाब में मोदी सरकार किसानों के सवाल पर संसद के विशेष अधिवेशन और उनके दोनों कानून का प्रस्ताव मंजूर कर लेती है, तो किसान विरोधी होने की छवि में सुधार कर सकती है. नहीं तो आगामी समय में किसान को तय करना पड़ेगा कि इस किसान विरोधी सरकार को वह कैसे सबक सिखाए.