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किसानों के मन का बजट-- के सी त्यागी

बजट का इंतजार सबको है। खासकर ग्रामीण और कृषक वर्गों में इसकी बेसब्री ज्यादा है। उनके लिए यह बजट ‘रक्षक' या ‘भक्षक' की भूमिका निभाने वाला होगा, क्योंकि पिछले दो बजट में किसानों के लिए कुछ खास नहीं था। आम चुनाव के दौरान किए गए वादों ने उनमें खासा उत्साह भरा था, लेकिन धरातल अनछुआ रह गया। फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य के अलावा 50 फीसदी लाभकारी मूल्य देने की बात कही गई थी, जो किसानों के लिए एक दिवास्वप्न साबित हुआ।

ग्रामीणों, किसानों और अब तक उपेक्षित महसूस कर रहे वर्गों के लिए आज की तारीख खास हो सकती है, यदि आम बजट में उनकी न्यायपूर्ण भागीदारी शामिल की जाती है। कृषि एक के बाद एक प्राकृतिक आपदाओं की शिकार रही है। वह आत्महत्याओं, बर्बादी और भुखमरी की गवाह रही है। इसीलिए वह बजट से बहुत उम्मीद लगाए बैठी है। केंद्र व राज्य सरकारों की अनदेखी की वजह से कृषि की प्रधानता तो दूर, इसका अस्तित्व भी खतरे में आ चुका है। ऐसे में, राजग सरकार के लिए यह उचित मौका होगा कि बजट में किसान हितों को प्राथमिकता दी जाए। इसके लिए बजट को बीज, सिंचाई, कीटनाशक, फसलों के समर्थन मूल्य, बीमा, मुआवजे से गुजरते हुए आत्महत्या पर काबू पाने तक ले जाने की आवश्यकता है। इस बजट से यह भी स्पष्ट हो जाएगा कि सरकार के एजेंडे में देश के किसान हैं भी या नहीं?

सिंचाई व्यवस्था का अभाव भारतीय कृषि के लिए घातक समस्या बन चुका है। पिछले साल 320 जिलों को सूखे की मार झेलनी पड़ी। राहत के अभाव में आत्महत्या की खबरें सुर्खियां बनती रहीं। यह मात्र एक वर्ष की घटना नहीं है। क्षेत्र बदलते रहे हैं, परिस्थितियां जस की तस बनी हुई हैं। देश के अंदर मात्र 45 फीसदी बुआई वाले क्षेत्र को सिंचाई की सुविधा प्राप्त है। आंकड़े बताते हैं कि 84 फीसदी दलहन, 80 फीसदी बागवानी, 72 फीसदी तिलहन, 64 फीसदी कपास, 42 फीसदी अनाज गैर सिंचित स्थिति में उगाए जा रहे हैं। ऐसे में, सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त किया जाना किसानों के आधे से अधिक दुख हरने से कम नहीं होगा। पूरे देश को सड़क और राजमार्ग देने में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का प्रयास सराहनीय है। लेकिन ‘नेशनल हाईवे' की तरह ‘नेशनल इरीगेशन हाईवे' के निर्माण के बारे में विचार क्यों नहीं किया जाता? इससे गैर-सिंचित भू-भाग को सूखे से निजात मिल सकती है।

फसल बीमा किसानों की रक्षा करने वाला दूसरा मजबूत तंत्र साबित हो सकता है। हालांकि अब तक के बीमा संबंधी अनुभव सुखद नहीं रहे हैं। लेकिन सख्त सरकारी निर्देशन में संचालित बीमा नीतियां किसानों के लिए मददगार साबित होंगी। अब तक चलाई गई बीमा योजनाएं किसानों के लिए कम और बीमा कंपनियों के लिए ज्यादा फायदेमंद साबित हुई हैं। राजस्थान और उत्तर प्रदेश में बीमा के नाम पर किसानों को ठगे जाने के तथ्य भी सामने आ चुके हैं। उद्योग संगठन एसोचैम स्काइमेट वेदर के अध्ययन के अनुसार, 20 फीसदी से भी कम संख्या में किसान अपनी फसलों का बीमा कराते हैं। 46 फीसदी किसानों को बीमा के बारे में पता होता है, लेकिन वे इसमें दिलचस्पी नहीं रखते। 24 फीसदी किसानों को बीमा की जानकरी तक नहीं होती और लगभग 11 प्रतिशत किसान बीमा प्रीमियम जमा करने में असमर्थ हैं। प्रीमियम राशि अधिक होने की वजह से किसानों के बीच इसका चलन भी उत्साहजनक नहीं रहा है। प्रधानमंत्री का डेढ़ और दो फीसदी प्रीमियम वाला हालिया प्रस्ताव यदि सचमुच लागू हो गया, तो किसानों को काफी राहत मिलेगी।

बुआई से पहले कम ब्याज दर पर ऋण, फसल नष्ट होने की स्थिति में उचित मुआवजा और प्रतिकूल परिस्थिति में ऋण माफी की व्यवस्था, किसानों को बदहाली से बाहर निकालने के बडे़ रास्ते हो सकते हैं। इससे आत्महत्या की बढ़ती संख्या पर निश्चित रूप से लगाम लगेगी। बेशक, आज भी मुआवजे दिए जा रहे हैं, लेकिन मुआवजे की राशि ऊंट के मुंह में जीरे के समान साबित हो रही है। कृषि क्षेत्र के ऋण ‘बैड लोन्स' के सामने कुछ भी नहीं होते। कर्जदारों की संख्या ज्यादा जरूर होती है, लेकिन तुलनात्मक राशि बहुत ही कम होती है। यदि महज बीमार उद्योग घोषित हो जाने से ‘बैड लोन्स' के 1.14 लाख करोड़ रुपये की राशि माफ की जा सकती है, तो फिर घास की रोटी खाकर गुजारा करने वाले दयनीय किसानों की राशि माफ करने से परहेज क्यों किया जाता है? बजट में ऋण माफी हेतु उचित व्यवस्था प्रतिवर्ष होने वाली हजारों आत्महत्याओं पर लगाम लगा सकती है।

कृषि की बदहाली से गैर-कृषि आश्रितों पर भी बुरा असर पड़ा है। पैदावार कम होने, कीमतों में वैश्विक उदासीनता तथा निरंतर घटते रकबे का असर देश की अर्थव्यवस्था पर भी दिखा है। कुल ग्रामीण परिवारों का 58 फीसदी हिस्सा पूरी तरह कृषि पर निर्भर है। कुल कृषक परिवारों का 70 फीसदी हिस्सा छोटे व मजदूर किसानों का है। बची-खुची आबादी दिहाड़ी मजदूरी पर आश्रित है। खनन व उत्पादन क्षेत्र में मंदी का असर इनके रोजगार तथा मजदूरी पर भी पड़ा है। ऐसे में, ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर पैदा करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता है। 2002 में, जब मानसून ने देश के साथ दगा किया था, तब नेशनल हाईवे प्रोजेक्ट्स पर चल रहे कार्यों ने उन्हें रोजगार देने का काम किया था। 2009 में सूखे और 2012 में वर्षा की देरी से बदहाल किसानों को मनरेगा के जरिए तात्कालिक राहत दी गई थी। मजबूत बजट के जरिए मनरेगा कार्यक्रमों को मजबूत बनाकर और कुछ अन्य ऐसी ग्रामीण उन्मुखी योजनाओं को लागू करके ग्रामीण आबादी सशक्त व आत्मनिर्भर बनाई जा सकती है, जिनसे पलायन भी कम होगा।

खेती-बाड़ी अब और लंबे समय तक आत्महत्या, घाटे और बोझ का सौदा न बनी रहे, इसके लिए अलग से कृषि बजट लाए जाने की जरूरत है। इसके कायाकल्प से अर्थव्यवस्था में सुधार, महंगाई व पलायन पर लगाम और बेरोजगारी में कमी स्वाभाविक है। मौजूदा कृषि व्यवस्था में समस्याएं बहुत हैं। लेकिन अब तक किसी भी सरकार ने इन समस्याओं को चुनौती की तरह से नहीं लिया है। जाति, धर्म, क्षेत्र व अन्य वर्ग के नाम पर समय-समय पर योजनाएं बनती रही हैं, परंतु मजबूत किसान पक्षधरता के अभाव में कृषक वर्ग का कल्याण अछूता रह गया है। केंद्र सरकार ‘सबका विकास' के नारों के साथ बनी है, इसलिए यह जरूरी है कि इस ‘सब' में किसानों को भी शामिल किया जाए। बजट के जरिए किसानों को सशक्त करने जैसा काम न सिर्फ केंद्र सरकार की उपलब्धि होगी, बल्कि इससे देश के आर्थिक व सामाजिक विकास का रास्ता भी खुलेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)