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किसे है यूपी में जनता की सेहत की फिक्र

नई दिल्ली [राजकेश्वर सिंह]। उत्तर प्रदेश विधानसभा में आंकड़ों के खेल में सरकार की सेहत भले ही ठीक हो, लेकिन जनता की सेहत की फिक्र किसे है। कम से कम ग्रामीण क्षेत्रों में तो स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है। केंद्र सरकार की नजर में इस मामले में राज्य सरकार का कामकाज बिल्कुल असंतोषजनक है। प्रदेश के लगभग दो सौ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बिना डॉक्टरों के और 1929 मातृ-शिशु कल्याण उप केंद्र बिना एएनएम के चल रहे हैं। साढ़े तीन हजार से अधिक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में से सिर्फ साढ़े छह सौ ही चौबीसों घंटे खुलते हैं, बाकी में रात में सन्नाटा पसर जाता है।

प्रदेश में लोगों की सेहत का खास खयाल रखने के लिए सरकारी दावे कुछ भी हो सकते हैं, लेकिन ग्रामीणों की सेहत के लिए चलाए जा रहे राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन [एनआरएचएम-2005 से 2012] के मामले में सिर्फ सवाल ही हाथ लगते हैं। प्रदेश सरकार 2005 से 2009-10 के बीच इस मिशन का 1508 करोड़ रुपये [31 मार्च, 2010 तक] खर्च ही नहीं कर पाई।

स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदेश के 197 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र [पीएचसी] बिना किसी डॉक्टर के ही चल रहे हैं। 1929 मातृ-शिशु कल्याण उप केंद्रों पर सहायक नर्स मिडवाइफ [एएनएम] ही नहीं हैं। प्रदेश में कुल 3690 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं, लेकिन 648 को छोड़ बाकियों में रात में ताला लटक जाता है। खास बात यह है कि प्रदेश के कुल 71 जिलों में से एक में भी मोबाइल मेडिकल यूनिट [चलती-फिरती स्वास्थ्य इकाई] नहीं है, जो किसी मौके पर काम आ सके। इतना ही नहीं, अकेले प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर 1689 डॉक्टरों की कमी है। सूत्रों की मानें तो प्रदेश के सालाना बजट की मंजूरी के समय केंद्रीय योजना आयोग ने प्रदेश सरकार के सामने भी इस मसले को उठाया था।

सेहत के अन्य पहलुओं को भी देखें तो प्रदेश में मातृत्व मृत्यु दर अब भी 440 [प्रति एक लाख प्रसव पर] है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह 254 है। इसी तरह 15-49 आयु वर्ग में प्रदेश की लगभग 51 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी का शिकार हैं। गर्भवती महिलाओं में से 51.6 प्रतिशत में खून की कमी है। इसी तरह 12 से 23 महीने की आयु वर्ग में प्रदेश के सिर्फ लगभग 26 प्रतिशत बच्चों को ही जीवन रक्षक टीके लग पाते हैं, जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 46 प्रतिशत है।