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कुशासन और सुशासन का मेल - प्रदीप सिंह

बीस साल बाद लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार एक मंच पर। कुशासन और सुशासन का मेल! क्या ऐसा हो सकता है? शायद इसीलिए राजनीति को संभावनाओं का खेल कहते हैं। राजनीति में वह भी संभव हो जाता है, जो जीवन के दूसरे हिस्सों में असंभव लगता है। सवाल यह नहीं है कि कौन किससे मिला। सवाल इस बात का है कि इस मेल का नतीजा (चुनाव परिणाम की बात नहीं) क्या निकला। नीतीश कुमार ऐसे नेता हैं, जिन्होंने बिहार के विकास को असंभव मानने वालों को अपनी बातों से नहीं, अपने काम से गलत साबित किया था। एक ऐसा नेता, जिसमें भविष्य का प्रधानमंत्री देखने वालों की कमी न थी। जो नेताओं की भीड़ में सबसे अलग नजर आता था। सवाल है कि उसने क्यों तय किया कि वह भीड़ का हिस्सा बन जाएगा?

आज बिहार जहां है, उसमें अगर किसी एक व्यक्ति का सर्वाधिक योगदान है तो वे नीतीश कुमार हैं। जनतंत्र और गठबंधन की राजनीति की तमाम कमियों, वर्जनाओं, सीमाओं और खामियों के बावजूद उन्होंने बिहार को पिछड़ेपन की अंधेरी गली से ही नहीं निकाला, निराशा के गर्त से निकालकर आत्मविश्वास से लबरेज भी कर दिया। फिर क्या हुआ कि नीतीश ने रास्ता बदल दिया? उनके कहे को ही मान लें तो उन्हें नरेंद्र मोदी में दानव नजर आ गया। 2002 के गुजरात दंगों के बाद जब पूरे देश में नरेंद्र मोदी का विरोध हो रहा था, तब नीतीश अकेले ऐसे नेता थे, जिन्हें उनकी राष्ट्रीय भूमिका नजर आ रही थी। और जब मोदी में देश को सचमुच ऐसा नेता नजर आया, जो बदलाव ला सकता है तो नीतीश विरोधी खेमे में खड़े हो गए।

नीतीश कुमार उन सब बातों के लिए जाने जाते हैं, जिनके लिए लालू प्रसाद नहीं जाने जाते। नीतीश के ही शब्दों में लालू-राबड़ी राज ने बिहार को जंगलराज की ओर धकेल दिया। नीतीश कुमार लालू के जंगलराज के तूफान से किश्ती निकालकर लाए और फिर खुली आंखों से उसी तूफान के भंवर में चले गए। नरेंद्र मोदी में उन्हें अचानक ऐसा क्या नजर आया कि वे अपने किए को ही मिटाने पर आमादा हो गए? यह तो वे ही जानें। भाजपा से अलग होने पर उन्हें 17 सालों का हिसाब देना था। अब राजद के साथ आने पर उन्हें बीस साल का भी हिसाब देना पड़ेगा। उन्हें बिहार के लोगों को बताना पड़ेगा कि 17 साल तक जो भाजपा सांप्रदायिक नहीं थी, वह अचानक कैसे सांप्रदायिक हो गई। उन्हें इसका भी जवाब देना पड़ेगा कि बीस साल तक वे जिस लालू यादव को जातिवादी, भ्रष्ट और परिवारवाद की राजनीति का प्रतीक मानते थे, अचानक उनके सारे दाग कैसे धुल गए।

नीतीश और लालू का मिलन बिहार के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता। इन दोनों नेताओं और पार्टियों के लिए हो सकता है, शुभ हो। जो लोग इसमें मंडल राजनीति की वापसी, धर्मनिरपेक्ष ताकतों की एकता और समाजवाद खोज रहे हैं, दरअसल वे खुद को धोखा दे रहे हैं। वे या तो समझ नहीं रहे या समझना नहीं चाहते कि देश मंडल-कमंडल की राजनीति से आगे बढ़ गया है। देश का युवा इन दोनों को विकास के रास्ते की बाधा मानता है। विकास के रास्ते की किसी बाधा को दूर करने के लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है। इस बात को नरेंद्र मोदी ने बहुत पहले ही समझ लिया था।

बिहार में नीतीश के रास्ते में कई अड़चनें हैं। लालू यादव जब भाजपा के खिलाफ बोलेंगे तो भाजपा विरोधी उन्हें सुनेंगे और यकीन भी करेंगे, लेकिन नीतीश को जो लोग 17 साल से सुन रहे हैं, उन्हें झटका लगेगा। वे कैसे यकीन कर लें कि पिछले 17 साल से नीतीश जो बोल रहे थे, वह गलत था। इसी तरह जिन लोगों ने लालू प्रसाद यादव के जंगलराज के खिलाफ खड़े होने का जोखिम लेकर नीतीश का समर्थन किया, वे खुद को ठगा गया क्यों न महसूस करें? शायद यही कारण है कि हाजीपुर की जनसभा में जब बड़े भाई छोटे भाई से गले मिल रहे थे, तो बमुश्किल पांच हजार लोग इस घटना के साक्षी बने।

भाजपा से गठबंधन तोड़ते समय नीतीश कुमार ने इसे सिद्धांत का मामला बताया था। बहुत-से लोगों ने इसे मान भी लिया था, लेकिन वे सिद्धांत की राजनीति पर ज्यादा देर टिक नहीं पाए। उनकी सिद्धांत की राजनीति बदले की राजनीति में बदल गई है। लालू प्रसाद यादव से उनकी दोस्ती को इसके अलावा और कोई नाम नहीं दिया जा सकता, क्योंकि सिद्धांत के साथ-साथ नीतीश कुमार के पास सुशासन का ऐसा तमगा था, जो बिहार के किसी नेता के पास नहीं था। लेकिन भाजपा की एक आंख फोड़ने के लिए उन्होंने अपनी दोनों आंखें फोड़ लीं। क्या होता अगर नीतीश कुमार भाजपा और लालू यादव दोनों से अलग रहते? ज्यादा से ज्यादा यही तो होता कि वे चुनाव हार जाते, सत्ता से बाहर हो जाते। तो भी उनका आत्मसम्मान, सैद्धांतिक आधार और साख तो बची रहती। लालू के साथ जाकर भी अगर वे हार गए (जिसकी आशंका ज्यादा है) तो उन्हें क्या हासिल होगा? न खुदा ही मिलेगा न विसाले सनम।

नीतीश भाजपा और मोदी का कुछ नुकसान कर पाएंगे कि नहीं यह तो पता नहीं, लेकिन फिलहाल उन्होंने लालू यादव का भला तो कर ही दिया है। उन्होंने लालू यादव को वैधता प्रदान कर दी है, जिसकी उन्हें बहुत जरूरत थी। ऐसा करके उन्होंने बिहार का बहुत नुकसान किया है। उन्होंने अपने बदले की राजनीति की वेदी पर बिहार के लोगों की उम्मीदों की बलि चढ़ा दी है। बिहार के लोगों को नीतीश के बारे में अब नए सिरे से धारणा बनानी पड़ेगी, क्योंकि इस समय वे कुछ भी हों, पर बिहार को जंगलराज से उबारने वाले तो नहीं ही नजर आते। कोढ़ में खाज यह कि अब उन्हें कांग्रेस का भी बचाव करना पड़ेगा। नीतीश का राजनीतिक वजूद जिन खंभों पर टिका है, उनमें से एक गैर कांग्रेसवाद था। उन्होंने उस खंभे को भी गिरा दिया है। लालू यादव पिछले नौ साल से सत्ता से बाहर हैं और अब भ्रष्टाचार के मामले में जमानत पर जेल से बाहर आए हैं। कांग्रेस व लालू को कंधे पर बिठाकर नीतीश किस सिद्धांत की लड़ाई लड़ने जा रहे हैं? चुनाव के मैदान में यह गठबंधन जीत भी जाए तो भी नीतीश की तो हार ही होगी, क्योंकि कुशासन की जीत सुशासन की हार ही होती है।