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कृषि ऋण माफी के आईने में-- वरुण गांधी

साल 1865 में अमेरिकी गृहयुद्ध के खत्म होने के बाद अमेरिका में कपास उत्पादन को फिर से बढ़ावा मिलने का नतीजा यह हुआ था कि वहां भारतीय कपास की मांग काफी कम हो गयी. इसके चलते बंबई प्रेसिडेंसी में किसानों से कपास की खरीद में कमी आयी और भुगतान-संबंधी मांग बढ़ गयी. कर्जदाता इच्छुक किसानों को कर्ज देने में हिचकने लगे या फिर वे बहुत ज्यादा ब्याज पर कर्ज देने लगे. एक बड़े महाजन ने तो सौ रुपये के कर्ज पर दो हजार रुपये का सूद जोड़ दिया था. कर्ज की कमी के कारण पूरे देश में दंगे भड़के थे.

दक्कन में पुणे के निकट सुपा गांव में 1875 में ऐसा ही एक विद्रोह हुआ था. क्रुद्ध किसानों ने महाजनों पर हमला कर कर्ज के कागजात और लेखा-जोखा मांगा था. कई साहूकारों के घरों में आग लगा दी गयी थी. यह विद्रोह 30 से अधिक गांवों में फैल गया. पुलिस चौकियों का बंदोबस्त हुआ, पर देहातों में महीनों तक हालात खराब बने रहे. बंबई प्रेसिडेंसी की सरकार ने इन घटनाओं की जांच के लिए 1878 में दक्कन रॉयट्स कमीशन बनायी. उसकी रिपोर्ट के अनुसार, 'शादी जैसे आयोजनों के लिए लिये गये कर्ज की तुलना में भोजन और अन्य जरूरतों, बीज, भैंस, सरकारी आकलन आदि के लिए कर्ज दंगों के कारण बननेवाले कर्जों को बहुत अधिक बढ़ाते हैं.' किसानों का बोझ कम करने के लिए रिपोर्ट ने कर्जदारों को बंदी बनाने की व्यवस्था तथा कर्ज चुकाने के लिए छोटे आवास बेचने की छूट हटाने के साथ यह भी प्रावधान करने की सिफारिश की कि कर्जदारों से अत्यधिक धन की उगाही के लिए अदालती प्रक्रिया न हो. भारत में आज भी किसानों की स्थिति में शायद ही कोई बदलाव हुआ हो.

स्वतंत्र भारत में किसान हितैषी योजनाएं नयी बात नहीं हैं. 1989 में जनता दल सरकार ने कृषि ऋण माफी योजना पेश की थी और 10,000 रुपये तक के ऋण माफ कर दिये थे. 1992 तक इस ऋण माफी पर 6,000 करोड़ रुपये की लागत से 4.4 करोड़ किसानों को लाभान्वित किया गया था. 2008 में कृषि ऋण माफी एवं ऋण राहत स्कीम के अंतर्गत 3.96 लाख छोटे और सीमांत किसानों के साथ ही 59.7 लाख बड़े किसानों को लाभ पहुंचाया गया था. इस पर कुल 71,600 करोड़ रुपये की लागत आयी थी.

ऐसे कदम प्रदेश स्तर पर उठाये गये थे. तमिलनाडु ने हाल ही में छोटे और सीमांत किसानों के ऋण माफ कर दिये हैं. यूपी की अखिलेश सरकार ने जाते-जाते 50,000 करोड़ रुपये के वे फसली ऋण माफ कर दिये, जो किसानों ने सहकारी बैंकों से लिये थे. यूपी की नयी सरकार की जरूरतमंद किसानों की ऋण माफी की योजना स्वागतयोग्य है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं. ऐसी ऋण माफी देश के सभी छोटे और सीमांत किसानों को मिलनी चाहिए.

हमारे किसान अपनी फसलों का उचित बाजार मूल्य हासिल करने में विफल रहते हैं. 1972 में कोलकाता में हुए एक अध्ययन से खुलासा हुआ था कि ग्राहकों से संतरे का जितना पैसा वसूल किया जाता है, उसका केवल 2 प्रतिशत ही संतरा उत्पादकों तक पहुंचता है.

यानी की विपणन करनेवाले लोग ही कमाई का अधिकतर हिस्सा हड़प लेते हैं. जिन अर्थव्यवस्थाओं में कठोर नियामन का वातावरण मौजूद है, वहां मार्केटिंग करनेवालों की शृंखला छोटी होती है और कमाई में भागीदारों की संख्या भी कम होती है, इसलिए मूल उत्पादक को अधिक पैसा मिलता है. जैसे की मदुरै के किसान को अंतिम उपभोक्ता द्वारा खर्च किये गये पैसे का 95 प्रतिशत मिल जाता है. जम्मू, अमृतसर और दिल्ली की मंडियों के दलाल सामान्यतः 41 प्रतिशत कमाई बटोर ले जाते हैं.

ऐसे में किसानों को सस्ते दाम पर कृषि उपकरण किराये पर उपलब्ध करवाना एवं मशीनीकरण करना ही एकमात्र रास्ता है. भारत की कृषि उपकरण नीति को नये सिरे से गढ़ा जाना चाहिए. मेक इन इंडिया को इसके फोकस में रखते हुए जो उपकरण फिलहाल आयात किये जाते हैं, वे भारत में निर्मित होने चाहिए.

हमारी कृषि नीति में समुचित जांच प्रबंधन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. यानी ऐसी पहुंच अपनायी जाये, जिसमें जैव वैज्ञानिक, रासायनिक, यांत्रिक एवं भौतिक उपाय प्रत्युक्त करते हुए कीड़े-मकोड़ों के विरुद्ध दीर्घकालिक फोकस बना कर लड़ना चाहिए. मसलन, केन्या ने 'वुतु सुकुमू' यानी 'खींचो और धकेलो' की एक प्रयोगात्मक प्रणाली शुरू की है, जहां किसान मक्की के साथ फलीदार फसलों की खेती करते हैं और खेत की मेड़ के साथ-साथ कई किस्म के चारे की फसलें बोते हैं. यह प्रणाली बहुत ही लाभदायक सिद्ध हुई, क्योंकि फलीदार फसलें प्रकृतिक रूप में ऐसे रासायनिक पदार्थ छोड़ती हैं, जिनसे कई प्रकार के कीड़े-मकोड़े भाग जाते हैं.

इसी प्रकार वियतनाम के मिकोंग डेल्टा में लाखों धान उत्पादकों ने प्रारंभिक स्तर पर कोई स्प्रे ना करने का नियम अपना रखा है. यानी वहां धान की रोपाई के बाद 40 दिन तक किसी भी कीटनाशक का प्रयोग नहीं किया जाता.

भारत के बीज विशेषज्ञों को एक अजीब-सी बीमारी है कि वे गरीब किसानों को दिये जानेवाले वित्तीय प्रोत्साहनों की निंदा करते हैं, जबकि उद्योग जगत को प्रोत्साहन देने की वकालत करते हैं. आरबीआइ के अनुसार वर्ष 2000 से 2013 के बीच 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक के काॅरपोरेट ऋण माफ किये गये, जबकि इनमें से 95 प्रतिशत ऋण बहुत बड़े आकार के थे.

ट्रैक्टर और अन्य कृषि उपकरणों के ऋण आंशिक रूप में माफ करने पर एसबीआइ को मात्र 6,000 करोड़ रुपये की चपत ही बर्दाश्त करनी पड़ी थी. भरतीय बैंकों के गैरनिष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए) किसानों में ऋण संस्कृति की कमी का नतीजा नहीं है, बल्कि 50 प्रतिशत से अधिक एनपीए बड़े और मंझोले उद्योगों के कारण ही अस्तित्व में आये हैं. कृषि ऋण माफी की आलोचना करने से पहले आलोचक इसके इतिहास को अवश्य ही जांच लें.

देश के दूर-दराज के इलाकों में घूमते हुए मैंने देखा है कि लंबे समय से हो रही लूट-खसोट के फलस्वरूप किसानों के अनाथ बच्चों के शरीर ही विकृत हो चुके हैं. पता नहीं अभी हमारे किसानों के भाग्य में और कितने कष्ट लिखे हुए हैं.