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कृषि कर्ज-माफी का दलदल-- नवीन जोशी

दस दिन के किसान-आंदोलन के बाद महाराष्ट्र सरकार ने छोटी जोतवाले (लघु एवं सीमांत) करीब 31 लाख किसानों का लगभग तीन खरब रुपये का कर्ज माफ करने का ऐलान कर दिया. उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने अपनी पहली ही कैबिनेट बैठक में वादे के मुताबिक पांच एकड़ से कम जोतवाले किसानों का तीन खरब, 69 अरब रुपये का कृषि-कर्ज माफ करने का निर्णय किया था. मध्य प्रदेश में खूनी बन गये किसानों के आंदोलन की एक प्रमुख मांग कर्ज-माफी है. अन्य राज्यों के किसानों में भी सुगबुगाहट है और ऐसा भी नहीं कि कर्ज-माफी वाले राज्यों के किसान खुश हो गये हैं. महाराष्ट्र के 77 फीसदी किसान अभी इस फैसले से बाहर हैं.

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने साफ कहा है कि राज्य कर्ज माफी के फैसले के लिए अपने संसाधन खुद जुटायें. केंद्र सरकार इस खर्च की भरपाई में मदद नहीं करेगी. बीते सोमवार को ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी ने प्रधानमंत्री के सामने तीन खरब, 69 अरब रुपये की किसान कर्ज-माफी का मुद्दा उठाया था. हाल में संपन्न विधानसभा चुनावों में भाजपा, कांग्रेस, आप समेत सभी दलों ने किसानों का फसली-ऋण माफ करने के वादे किये थे.

छोटे एवं मझोले किसानों की हालत सचमुच खराब है. फसलों के दाम लागत खर्च भी नहीं निकाल पा रहे. कुछ राज्यों में मुख्य फसलें सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम दामों पर बेचनी पड़ रही हैं. कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा आतंककारी बनता जा रहा है. कृषि एवं अर्थव्यवस्था का भट्टा बैठ रहा है और ऋण-माफी हमारी राजनीति का बड़ा मुद्दा बन गयी है.

राजनीतिक दलों ने कर्ज-माफी के वादे को समस्या से बचने और सत्ता पाने का सबसे आसान रास्ता बना लिया है. यह रास्ता कृषि ही नहीं, संपूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए बहुत खतरनाक है, ऐसी चेतावनी रिजर्व बैंक से लेकर तमाम अर्थशास्त्री देते आ रहे हैं. वित्तीय घाटा बढ़ता है यानी सरकार की कमाई सीमित और खर्च बेतहाशा बढ़ जाते हैं. जाहिर है तब विकास-कार्यों के लिए सरकार के पास धन नहीं बचता. इन चेतावनियों के बावजूद पिछले एक दशक से यह प्रवृत्ति तेज होती गयी है.

साल 2009 के लोकसभा चुनाव से कुछ माह पहले जब देश के कुछ हिस्सों से किसान-असंतोष की खबरें आने लगी थीं, तब यूपीए सरकार ने किसानों का छह खरब रुपये का कर्ज माफ कर दिया था. केंद्र की सत्ता में यूपीए की पहले से बेहतर वापसी में इस फैसले का भी निश्चय ही योगदान रहा होगा, लेकिन इसने बैंकों की कमर तोड़ दी. बैंकों का एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स यानी डूबा धन) तीन गुना तक बढ़ गया.

इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यूट का 2013 का एक अध्ययन बताता है कि ऋण-माफी की परंपरा बन जाने के बाद कर्ज चुका सकनेवाले किसान भी अब जान-बूझकर किश्तें अदा नहीं करते. कर्ज लेने के बाद अदायगी टालते रहते हैं और अगले चुनावों का इंतजार करते हैं कि नयी सरकार ऋण माफ कर देगी. इस दुष्चक्र में बैंक पिस रहे हैं. खेती-किसानी की हालत में भी इससे कोई सुधार नहीं आता, बल्कि स्थिति बिगड़ती जाती है.

जिस दिन योगी ने किसान-कर्ज-माफी का फैसला किया, उसके अगले ही दिन रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने कहा था कि यह वित्तीय अनुशासन को ध्वस्त करनेवाला और साफ-सुथरी ऋण-नीति के विरुद्ध है. स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की चेयरपर्सन अरुंधती भट्टाचार्य ने भी चंद रोज पहले इसे बैंकों और अर्थव्यवस्था के लिए प्रतिगामी कदम बताया है.

सत्तर साल की नाकामयाबियों का हिसाब मांगने और आमूल-चूल बदलाव की बात करनेवाले प्रधानमंत्री मोदी भी कृषि और किसानों के लिए दीर्घकालीन, बेहतर नीतियां बनाने और कर्ज-माफी के दलदल से निकलने के उपाय करने में नाकाम रहे हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में वे चुनाव सभाओं में स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों के अनुरूप फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य लाभदायक बनाने के वादे करते थे. लेकिन, पिछले विधानसभा चुनावों में वे भी ऋण-माफी के वादे पर उतर आये. उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने पर पहली ही कैबिनेट बैठक में फसली ऋण माफ करने का वादा मोदी ने ही किया था.

कृषि-विकास के उद्देश्य से यूपीए सरकार ने 2004 में कृषि-विज्ञानी एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में समिति गठित की थी, जिसने 2006 में अपनी अंतिम सिफारिशें सरकार को सौंपी थी. मुख्य सिफारिशों में फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य औसत लागत से पचास फीसदी लाभ देनेवाला बनाने की थी. कहना न होगा कि इन सिफारिशों पर कोई ठोस पहल नहीं हुई. तब की यूपीए और अब एनडीए सरकारों को भी कर्ज-माफी के दलदली फैसलों का ही सहारा लेना पड़ा.

कर्ज-माफी से किसानों को वास्तविक लाभ होता है, यह भी नहीं कहा जा सकता. आम तौर पर सिर्फ फसली श्रेणी का ही कर्ज माफ होता है, जबकि किसान कई तरह के कर्ज लिये रहते हैं. बाद में वे खुद को ठगा-सा महसूस करते हैं. भारत कृषक समाज के एक पदाधिकारी स्वीकार करते हैं कि कर्ज माफी से सिर्फ एक-तिहाई किसानों ही की तात्कालिक मदद हो पाती है. कोई स्थायी समाधान तो यह है नहीं. इंडिया रेटिंग रिपोर्ट कहती है कि किसान-कर्ज माफी का असर अर्थव्यवस्था पर देर तक रहता है. उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र का ताजा फैसला फड़नवीस सरकार का चालू वर्ष का वित्तीय घाटा 1.53 प्रतिशत से बढ़ा कर 2.71 प्रतिशत कर देगा.

इसे इसी वर्ष झेलें या आगे के वित्तीय वर्षों तक ले जायें, सरकार के हाथ तंग होने ही हैं. अरुण जेटली ने कह तो दिया है कि राज्य खुद इस बोझ को वहन करें, लेकिन राज्यों के पास इसकी क्षमता ही नहीं है. प्राकृतिक आपदा हो या कर्ज-माफी, सभी राज्य सरकारें केंद्र का मुंह ताकती हैं.

औद्योगिक ढांचे की तरह कृषि क्षेत्र के लिए बेहतर तंत्र का विकास, ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर फोकस, खेती को प्रतियोगी बनाने और देशव्यापी मजबूत विपणन-व्यवस्था की स्थापना जैसे बुनियादी काम आज भी उपेक्षित हैं. कर्ज-माफी का यह दलदल गहरा और बड़ा होता जा रहा है.