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कृषि को लाभकारी बनाना अपरिहार्य-- विवेक त्रिपाठी

भारत में किसान को अन्नदाता की उपाधि दी गई। पर आज वह निराश नजर आ रहा है। कृषि उपज का वाजिब मूल्य न मिलने से वह परेशान है। किसान को कर्ज लेना पड़ रहा है। वही उसके लिए जानलेवा साबित होता जा रहा है। किसानों की आत्महत्याओं में दिन-प्रतिदिन इजाफा हो रहा है। भारत में किसान आत्महत्या 1990 के बाद पैदा हुई स्थिति है, जिसमें प्रतिवर्ष दस हजार से अधिक किसानों के आत्महत्या करने की रिपोर्ट दर्ज की गई है। 1995 से 2011 के बीच सत्रह वर्षों में 7 लाख 50 हजार 860 किसानों ने आत्महत्या की है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, किसान आत्महत्याओं में बयालीस प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। आत्महत्या के सबसे ज्यादा मामले महाराष्ट्र में सामने आए। 30 दिसंबर 2016 को जारी एनसीआरबी की रिपोर्ट ‘एक्सिडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया 2015' के मुताबिक साल 2015 में 12,602 किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों ने आत्महत्या की। एनसीआरबी की इस रिपोर्ट को देखें तो साल 2014 में 12,360 किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों ने खुदकुशी कर ली। यह संख्या 2015 में बढ़ कर 12,602 हो गई।


किसानों की आत्महत्या के मामले में सबसे बुरी हालत महाराष्ट्र की है। सूखे की वजह से साल 2014 और 2015 खेती के लिए बेहद खराब साबित हुए। इसका सबसे ज्यादा असर महाराष्ट्र में दिखा। 2015 में महारष्ट्र में 4,291 किसानों ने आत्महत्या की। किसानों की आत्महत्या के मामले में महाराष्ट्र के बाद कर्नाटक का नंबर आता है। कर्नाटक में साल 2015 में 1,569 किसानों ने आत्महत्या कर ली। तेलंगाना (1400), मध्यप्रदेश (1290), छत्तीसगढ़ (954), आंध्र प्रदेश (916) और तमिलनाडु (606) भी इसमें शामिल है।


2004 से लेकर 2012 के बीच एक लाख 42 हजार 373 किसानों ने आत्महत्या की है। यानी इस दौरान औसतन सालाना 16 हजार 263 किसानों ने आत्महत्या की है और इस तरह औसतन रोजाना पैंतालीस किसानों ने जान दी। 19 दिसंबर, 2011 को राज्यसभा में तत्कालीन कृषिमंत्री ने बयान दिया था कि 1999 से लेकर 2011 के बीच 2 लाख 90 हजार 740 किसानों ने आत्महत्या की। हाल में हुई किसानों की मौतों पर नजर डालें तो मध्यप्रदेश में कर्ज से परेशान किसानों ने आत्महत्या का रास्ता चुना है। आठ जून से लेकर अब तक किसानों की खुदकुशी की सबसे अधिक घटनाएं मध्यप्रदेश में हुई हैं। मंदसौर, नीमच के बाद छतरपुर, सागर, छिंदवाड़ा से भी ऐसी खबरें मिली हैं जो सच में भयावह हैं। केरल में एक किसान ने जमीन का कर न चुका पाने के कारण ग्राम प्रशासनिक कार्यालय के बाहर ही फांसी लगा ली। महाराष्ट्र के नाशिक में भी कुछ ऐसे हालात देखने को मिले। दरअसल, कृषि उपज की कीमत को लेकर आंदोलन पहले महाराष्ट्र में ही शुरू हुआ, फिर मध्यप्रदेश। इसी के साथ किसान कर्जमाफी का मुद््दा भी जुड़ गया।


महाराष्ट्र सरकार ने तो कृषिऋण माफ करने का एलान किया, पर मध्यप्रदेश में इतने किसानों की खुदकुशी और कई किसानों के पुलिस फायरिंग में मारे जाने के बाद भी कर्जमाफी की घोषणा नहीं हुई है। कर्जमाफी की घोषणा सबसे पहले उत्तर प्रदेश में हुई, मगर उस पर अमल अब तक शुरू नहीं हुआ है।


पंजाब को हमारे देश का अनाज का कटोरा भी कहा जाता है, फिर भी वहां के किसान कर्ज में डूबे हुए हैं। गेहूं और धान की पैदावार पंजाब में काफी होती है। पंजाब में प्रति हेक्टेयर गेहूं की पैदावार 4,500 किलो के आसपास है जो कि अमेरिका में प्रति हेक्टेयर गेहूं की पैदावार के बराबर है, जबकि धान उगाने के मामले में पंजाब के किसान चीन को टक्कर देते हैं। फिर भी ये किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। ज्यादातर छोटे किसान कर्ज लेकर खेती करते हैं। कर्ज वापस करने के लिए यह जरूरी है कि फसल अच्छी हो। साथ ही फसल का उचित दाम भी मिले। हमारे देश में सिंचाई की सुविधा बहुत कम किसानों को उपलब्ध होती है। ज्यादातर किसान खेती के लिए वर्षा पर निर्भर रहते हैं। अब ऐसे में यदि मानसून ठीक से न बरसे तो फसल बरबाद हो जाती है। किसान की सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है। वर्ष भर खाने के लिए भी कुछ नहीं रहता, साथ में कर्ज चुकाने का बोझ अलग से। मानसून की विफलता, सूखा, ओलावृष्टि, उपज की लागत में बढ़ोतरी, उपज का लाभकारी मूल्य न मिलना, ऋण का अत्यधिक बोझ आदि परिस्थितियां किसानों के लिए मुसीबत का दुश्चक्र बन जाती हैं। पैदावार न हो, तो किसान के पास बेचने के लिए कुछ नहीं होता, और वह ऐसी सूरत में एकदम असहाय रहता है। विडंबना यह है कि जब पैदावार अच्छी होती है तब भी उसके दिन नहीं फिरते, तब भी वह खुद को ठगा हुआ पाता है क्योंकि उसकी उपज का वाजिब दाम नहीं मिलता, कई बार लागत तक नहीं निकल पाती है।


आजादी के बाद से कृषि पर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए था नहीं दिया गया। उलटे कृषि की उपेक्षा और बढ़ती ही गई है। जबकि कृषि आज भी देश में आजीविका का सबसे बड़ा स्रोत है और सत्तर प्रतिशत आबादी इसी पर निर्भर है। लेकिन कृषि के लाभकारी न रह जाने के कारण यह मजबूरी का धंधा बन गई है। खुद केंद्रीय कृषि मंत्रालय का एक सर्वे बताता है कि लोग मजबूरी में ही इससे चिपके हुए हैं और विकल्प मिले तो चालीस फीसद लोग इसे फौरन छोड़ना चाहेंगे। यह स्थिति खेती के लिए तो बेहद चिंताजनक है ही, हमारी खाद्य सुरक्षा के लिए भी बहुत खतरनाक संकेत है।किसानों की खुदकुशी रोकने के लिए कुछ कारगर उपाय किए जाने चाहिए। यह तो जाहिर हो चुका है कि किसानों की खुदकुशी की घटनाओं के पीछे दो मुख्य कारण हैं। एक यह कि किसान कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। दूसरा, कृषि उपज की संतोषजनक कीमत नहीं मिल पा रही है। लिहाजा, किसानों को संकट से उबारने के लिए दो बड़े कदम बहुत जरूरी हैं। एक, किसानों को कर्ज से छुटकारा मिले, उनके कर्ज माफ किए जाएं। दूसरा, कृषि उपज की ऐसी कीमत मिले जो पुसाने लायक हो। जब भी किसानों की कर्जमाफी की बात उठती है तो अनेक अर्थशास्त्री और रिजर्व बैंक के गवर्नर से लेकर सरकारों के आर्थिक सलाहकार तक यह कह कर उस पर एतराज करते हैं कि इससे गलत संदेश जाएगा, ऋण न चुकाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा, सरकारी खजाने पर बोझ पड़ेगा, राजकोषीय घाटा और बढ़ जाएगा, आदि-आदि। लेकिन जब कंपनियों को बेलआउट पैकेज दिया जाता है, करों में रियायत दी जाती है, उनके कर्जों का पुनर्गठन कर उनकी ऋण-राशि घटा दी जाती है, तब यही लोग खामोशी अख्यितार कर लेते हैं। तब सरकारी खजाने पर बोझ पड़ने और राजकोषीय घाटा बढ़ने की चिंता कहां चली जाती है? कर्जमाफी अच्छी बात नहीं है। इसलिए हमारी चिंता यह होनी चाहिए कि किसान कर्ज चुकाने में समर्थ हों, और यह तभी हो सकता है जब खेती घाटे का धंधा न रहे, पुसाने लायक बने। सीड एक्ट लागू किया जाए। किसानों को मिलने वाला न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत का डेढ़ गुना किया जाए और उस मूल्य पर खरीद का मुकम्मल इंतजाम हो। किसान, फसल और पशुओं का मुफ्त बीमा हो। किसानों को चार फीसद की दर पर ऋण मिले, साथ ही प्राकृतिक आपदा की स्थिति में बैंक कर्ज माफ हो। राज्यों में किसान आयोग बनाए जाएं। स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों को लागू किया जाए, जिसका वायदा सरकार ने कर रखा है।