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कृषि क्षेत्र की लगातार उपेक्षा- पवन के वर्मा

सरकार की आर्थिक दृष्टि औद्योगिक गलियारों, राजमार्गों, बुलेट ट्रेनों और स्मार्ट शहरों तक ही सीमित है. भारत को इनकी जरूरत है, लेकिन सरकार एकतरफा ढंग से उस भारत को छोड़ इन लक्ष्यों के पीछे नहीं भाग सकती है जहां आत्महत्याओं की संख्या और लोगों की तकलीफें बेतहाशा बढ़ रही हैं. भाजपा को याद करना चाहिए कि सर्वाधिक 18,241 आत्महत्याएं 2004 में हुई थीं, जब पार्टी ‘शाइनिंग इंडिया' की बात करती थी.

दिल्ली के संकीर्ण राजनीतिक गलियारों में एक ‘हत्या का रहस्य' चर्चा का विषय बना हुआ है : राजस्थान के दौसा के किसान गजेंद्र सिंह की ‘हत्या' किसने की, जिसने कृषि संकट और भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरुद्ध 22 अप्रैल को जंतर-मंतर पर हो रही आप की रैली में एक पेड़ से फंदा डाल कर आत्महत्या कर ली थी.

पेड़ से उसके शरीर को उतारे जाने से पहले ही आरोप-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो गया था. हालांकि बाद में असाधारण राजनीतिक साहस दिखाते हुए आप के प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने अपनी कुछ जिम्मेवारी को स्वीकार किया, पर पहले उनकी पार्टी ने कहा था कि पुलिस ने तत्परता से अपना काम नहीं किया. जब एक आदमी खुद को मारने की धमकी दे रहा था, तब पुलिस चुपचाप खड़ी देख रही थी. दिल्ली पुलिस राज्य की निर्वाचित सरकार के अधीन नहीं है, इसलिए इस त्रसदी की जवाबदेही भारतीय जनता पार्टी पर आ गयी, जिसकी सरकार केंद्र में है और दिल्ली पुलिस उसे ही रिपोर्ट करती है.

भाजपा ने इससे भी ज्यादा अजीब आरोप लगाते हुए कहा कि गजेंद्र की मौत केंद्र सरकार को बदनाम करने की आप द्वारा रची एक ‘साजिश' है. दिल्ली सरकार ने घटना की मजिस्ट्रेटियल जांच की घोषणा की है. पुलिस का कहना है कि यह अवैध है और वह इस जांच में कोई सहयोग नहीं करेगी.

इस बड़े राजनीतिक महाभारत में गजेंद्र और उसकी मौत का कारण हाशिये पर चला गया है. सनसनीखेज तरीके से राजधानी में घटित होने के कारण इस मौत ने पूरे देश का ध्यान खींचा है. हालांकि किसानों की खुदकुशी पिछले कुछ समय से आम बात हो चली है. वर्ष 1995 के बाद से करीब तीन लाख किसानों ने खुदकुशी की है. ऐसे आंकड़े लगातार चिंताजनक बने हुए हैं.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, 2010 में 15,963; 2011 में 14,201; 2012 में 13,754; और 2013 में 11,772 किसानों ने खुदकुशी की थी. आज 46 किसान हर रोज अपनी जान दे रहे हैं यानी हर आधे घंटे में एक किसान आत्महत्या के लिए मजबूर है.

आमतौर पर विकसित राज्य माने जानेवाले महाराष्ट्र का रिकॉर्ड सबसे खराब है. कुल आत्महत्याओं में करीब 25 फीसदी घटनाएं यहां घटती हैं, और यह विगत 15 वर्षों से निरंतर होता चला आ रहा है. इस साल जनवरी से मार्च के बीच राज्य में 257 किसानों ने खुदकुशी की है.

इस त्रसदी स्थिति का असली अपराधी कृषि की दशकों से चली आ रही सांस्थानिक उपेक्षा है. कृषि क्षेत्र में देश की कामकाजी आबादी का 60 फीसदी हिस्सा संलग्न है, जिसमें सर्वाधिक गरीबों की अधिकांश संख्या भी शामिल है. हालांकि यह सकल घरेलू उत्पादन में 15 फीसदी से कम योगदान करता है. दरअसल, हमारी अर्थव्यवस्था की पूरी संरचना ही आड़ी-तिरछी हो गयी है.

सबसे कम रोजगार प्रदान करनेवाला सेवा क्षेत्र हमारे कुल घरेलू उत्पादन में 56 फीसदी तथा औद्योगिक क्षेत्र, जिसे आबादी के बड़े हिस्से को लाभप्रद रोजगार उपलब्ध कराना चाहिए, महज 28 फीसदी योगदान करता है. और, अधिकांश जनसंख्या का भरण-पोषण करनेवाला कृषि क्षेत्र इस मामले में सबसे नीचे है.

कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था में, खासकर 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद, औसतन उच्च वृद्धि बनी रही है, लेकिन खेती दशकों से दो से तीन फीसदी की बढ़ोतरी के साथ फिसड्डी बनी हुई है.

हमारे पास दुनिया की सबसे अधिक उपजाऊ जमीन है, परंतु हमारा खाद्यान्न उत्पादन बहुत कम है. चीन में चावल उत्पादन की दर हमारी तुलना में दुगुनी है तथा वियतनाम और इंडोनेशिया में हमसे 50 फीसदी अधिक पैदावार होती है. यहां तक कि पंजाब जैसे सफल कृषि उत्पादक राज्य में चावल उत्पादन का औसत 3.8 टन प्रति हेक्टेयर ही है, जबकि वैश्विक औसत 4.3 टन का है. कई दशकों से भारी निवेश और सुधारों के द्वारा कृषि उत्पादन में जोरदार बढ़ोतरी की महती आवश्यकता को रेखांकित किया जा रहा है.

इन सुधारों में किसानों की ऊपज का अधिक मूल्य, खरीद की बेहतर प्रक्रिया, अच्छे बीज, खाद और कीटनाशकों की उपलब्धता, सिंचाई की व्यापकता, भरोसेमंद ¬ण की सुलभता, भंडारण की समुचित व्यवस्था, सेटेलाइट मैपिंग और शोध आदि शामिल हैं. उदाहरण के लिए, ब्राजील अपने कुल घरेलू उत्पादन का 1.7 फीसदी कृषि शोध पर खर्च करता है. हमारे देश में ऐसे खचरें का कोई लेखा-जोखा नहीं रखा जाता है.

मौजूदा सरकार के खिलाफ सबसे गंभीर आरोप यह है कि इसने कृषि और सिंचाई क्षेत्र को और अधिक हाशिये पर धकेल दिया है. दुर्भाग्यवश, यह सोची-समझी वैचारिकी का हिस्सा मालूम पड़ता है.

सीधे तौर पर कहें, तो सरकार पहले से ही सुविधाप्राप्त तबके को खुश रख यांत्रिक तरीके से सकल घरेलू उत्पादन को बढ़ाने पर ध्यान दे रही है, जिसका खामियाजा मध्य वर्ग, गरीबों, वंचितों और हाशिये पर पड़े लोगों को भुगतना पड़ रहा है.

तर्क यह दिया जा रहा है कि अगर ‘आर्थिक केक' बड़ा होता है, जिसे कॉरपोरेट क्षेत्र को अधिक सुविधाएं देकर बड़ा करने की कोशिश की जा रही है, तो उसमें से कुछ टुकड़ा किनारे खड़े जरूरतमंदों की झोली में भी गिरेगा. आखिर और किस तरह से इस सरकार द्वारा तैयार दो बजटों के आवंटन का विश्लेषण किया जा सकता है?

अपने पहले बजट में वित्त मंत्री ने राष्ट्रीय राजमार्गों के लिए 37,880 करोड़ दिया था, जबकि कृषि में नयी योजनाओं के लिए सिर्फ 550 करोड़ का आवंटन हुआ था! बंदरगाहों को 11,635 करोड़ दिये गये और सिंचाई को मात्र 1000 करोड़ रुपये मिले, जबकि कृषि क्षेत्र का 64 फीसदी हिस्सा मॉनसून की कृपा पर निर्भर है, तथा सिंचाई की स्वीकृत परियोजनाओं में एक-तिहाई से भी कम वास्तविकता में लागू की जा सकी हैं!

हालिया बजट के आंकड़े भी कोई बेहतर नहीं हैं. ज्यादातर धन ग्रामीण ¬ण के मद में रखा गया है, जबकि सच्चाई यह है कि अधिकतर किसान इसलिए खुदकुशी के लिए मजबूर हो रहे हैं, क्योंकि उनके ऊपर पहले से ही भारी कर्ज है. न्यूनतम समर्थन मूल्य में खर्च का 50 फीसदी अधिक जोड़ने का चुनावी वादा भी भुला दिया गया है. यूरिया की भारी किल्लत है. पिछले महीनों की बेमौसम की बरसात और ओलावृष्टि ने लाखों हेक्टेयर में खड़ी फसल को तबाह कर दिया है.

इस बर्बादी की आखिरी कड़ी के रूप में सरकार ने जल्दबाजी में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को ला पटका है. सरकार की आर्थिक दृष्टि औद्योगिक गलियारों, राजमार्गो, बुलेट ट्रेनों और स्मार्ट शहरों तक ही सीमित है.

भारत को इनकी जरूरत है, पर सरकार एकतरफा ढंग से उस भारत को छोड़ इन लक्ष्यों के पीछे नहीं भाग सकती है जहां आत्महत्याओं की संख्या और लोगों की तकलीफें बेतहाशा बढ़ रही हैं. भाजपा को याद करना चाहिए कि सर्वाधिक 18,241 आत्महत्याएं 2004 में हुई थीं, जब पार्टी ‘शाइनिंग इंडिया' की बात कर रही थी.