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कैसे आए करोड़ों खर्च का नतीजा- प्रतीक्षा सक्सेना दत्ता

एक ओर बाढ़ और एक तरफ सूखा वाली बात हर किसी ने सुनी होगी। बर्बादी दोनों में ही तय है। कुछ ऐसी ही कार्यप्रणाली देखने को मिल रही है शासन की विभिन्न योजनाओं में जहां एक ओर तो रोजगार कार्यालय में पंजीकृत बेरोजगार रोजगार के लिए तरस रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ शिक्षकों व दूसरे महकमों के कर्मचारियों को उनका मूल कार्य छुड़वाकर जनगणना या अन्य राष्ट्रहित कार्य में लगा दिया जाता है। जानकार भी मानते हैं कि यदि इस कार्य के लिए होने वाले अतिरिक्त भुगतान को किसी बेरोजगार को दिया जाए तो उसे रोटी भी मिलेगी और काम भी अधिक निष्ठा से हो सकेगा। वहीं विभिन्न प्रशासनिक कामों में भी बाधा उत्पन्न नहीं होगी।

अगर बेसिक शिक्षा विभाग की ही बात करें तो उसका सालाना बजट 22 करोड़ रुपये है जिसमें से आधा बजट केवल शिक्षकों के वेतन का है। यानी करीब 11 करोड़ रुपये बच्चों को पढ़वाने के लिए खर्च किया जा रहा है।

लेकिन ये 11 करोड़ रुपये पानी में बह रहे हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि मौजूदा पूरे सत्र में शिक्षको ने स्कूल के अलावा अन्य तमाम जगहों पर डयूटी बजाई है। कभी बीएलओ डयूटी, कभी पंचायत चुनाव, कभी पोलियो और अब जनगणना कार्य। ऐसे में पढ़ाने का काम लगभग हाशिए पर ही रहा।

एक शिक्षक को जनगणना कार्य के लिए 5200 रुपये का मानदेय दिया जा रहा है। यही मानदेय यदि किसी बेरोजगार को दिया जाता तो उसे अंशकालिक ही सही, मगर रोजगार मिल जाता और वो उस काम को अधिक निष्ठा से करता।

जबकि आज स्थिति यह है कि शिक्षक न तो स्कूल का काम ही ठीक से कर रहे हैं और न ही जनगणना कार्य में ईमानदारी पूर्वक काम हो रहा है। सूत्रों की मानें तो जब उन्हें शैक्षिक काम में कोताही के लिए आड़े हाथों लिया जाता है तो वो जनगणना में व्यस्त होने की दुहाई देने लगते हैं और जबकि जनगणना काम के लिए घर-घर कुंडी बजाना उन्हें पहले ही नापसंद है।

इस सब में नुकसान तो आखिर बच्चों का ही हो रहा है जिन्हें स्कूल में भले ही खाना मिल जाए, फर्नीचर मिल जाए, पंखे की हवा मिल जाए लेकिन नहीं मिलता तो एक अदद शिक्षक। ऐसे में अगर वो स्कूल न छोड़े तो क्या करे?

बीएसए राजेश कुमार श्रीवास कहते हैं कि इस बार जनगणना निदेशालय ने स्पष्ट किया है कि जनगणना में लगे लोग पहले अपने मूल विभाग का काम करेंगे और उसके बाद इस काम को करेंगे।

अब अगर इस बात को ही सही माना जाए तो सवाल उठता है कि दस बजे से चार बजे तक स्कूल में पढ़ाने के बाद भला वो किस समय जनगणना के लिए निकलेंगे? जिस काम में महिला शिक्षिकाओं की डयूटी लगी है, वहां क्या कोई महिला दिन छिपने के बाद भी इस काम को करेगी? उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी कौन लेगा?

हालांकि इस बात से बीएसए राजेश कुमार श्रीवास्तव भी इनकार नहीं करते कि यदि इस काम को बेरोजगार स्नातकों से कराया जाए तो यह एक बेहतर विकल्प हो सकता है जिसके अच्छे परिणाम सामने आ सकते हैं।