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कैसे रुके शिशु मृत्यु दर-- रमेश सर्राफ धमोरा

किसी भी समाज की खुशहाली का अनुमान उसके बच्चों और माताओं को देख कर लगाया जा सकता है। पर जिस समाज में हर साल तीन लाख बच्चे एक दिन भी जिंदा नहीं रह पाते और करीब सवा लाख माताएं हर साल प्रसव के दौरान मर जाती हैं, उस समाज की दशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। जब देश में आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं की कोई कमी नहीं है, तब ऐसा होना शर्मनाक ही नहीं, एक घृणित अपराध है। कुपोषण के मामले में भारत दक्षिण एशिया का अग्रणी देश बन गया है। राजस्थान के बारां और मध्यप्रदेश के बुरहानपुर में एक नए अध्ययन से पता चला है कि देश के गरीब इलाकों में बच्चे ऐसी मौतों का शिकार होते हैं, जिन्हें रोका जा सकता है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कुपोषण के कारण पांच साल से कम उम्र के करीब दस लाख बच्चों की हर साल मौत हो जाती है। सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि कुपोषण को चिकित्सीय आपातकाल करार दिया जाए, ये आंकड़े अति कुपोषण के लिए आपातकालीन सीमा से ऊपर हैं। कुपोषण की समस्या हल करने के लिए नीति बनाने और उसके क्रियान्वयन के लिए पर्याप्त बजट की आवश्यकता है।


रिपोर्ट में कहा गया है कि कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या भारत में दक्षिण एशिया के देशों से बहुत ज्यादा है। भारत में अनुसूचित जनजाति (28 फीसद), अनुसूचित जाति (21 फीसद), अन्य पिछड़ा वर्ग (20 फीसद) और ग्रामीण समुदायों (21 फीसद) में कुपोषण के सर्वाधिक मामले पाए जाते हैं। यह रिपोर्ट दो जिलों में कुपोषण की स्थिति पर रोशनी डालती है। इसमें उन स्थितियों का विश्लेषण किया गया है, जिन्हें रोका जा सकता है, पर इसके कारण भारत में नवजात शिशुओं और बच्चों की मौत होती है। नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे की तीसरी रिपोर्ट के अनुसार चालीस प्रतिशत बच्चे ग्रोथ की समस्या के शिकार हैं, साठ फीसद बच्चों का वजन कम है। इस समस्या के समाधान के लिए युद्ध स्तर पर रणनीति बनाना जरूरी है। राजस्थान में नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे की तीसरी रिपोर्ट के अनुसार पांच साल से कम आयु के बीस फीसद बच्चों की मौत हो गई, जो नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे की दूसरी रिपोर्ट से 11.7 फीसद ज्यादा थी। चौबीस फीसद बच्चों की ग्रोथ रुकी हुई है, जबकि नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे की दूसरी रिपोर्ट में यह बावन फीसद थी। चौवालीस फीसद बच्चों का वजन कम पाया गया है। नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे की तीसरी रिपोर्ट में भी राजस्थान में अनुसूचित जनजाति के पांच साल से कम आयु के बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार पाए गए।


राजस्थान में हर साल जन्म लेने वाले करीब अठारह लाख शिशुओं में से पहले ही साल अस्सी हजार की मृत्यु हो जाती है। इसके पीछे मुख्य कारण उचित पोषण और स्वास्थ्य की सही देखरेख न होना है। सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे के अनुसार अभी प्रदेश में प्रति हजार जीवित जन्म पर सैंतालीस बच्चे दम तोड़ देते हैं। माताओं की मौत के मामले में भी कुछ अच्छे आंकड़े नहीं हैं। अभी प्रदेश में हर साल करीब चार हजार तीन सौ महिलाएं प्रसव के दौरान या उसके बाद दम तोड़ देती हैं। फिलहाल प्रदेश में यह अनुपात प्रति एक लाख पर दो सौ चौवालीस महिलाओं की मौत का है।


स्वास्थ्य विभाग के पास मौजूद वार्षिक सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक मां को उचित पोषण न मिलने के कारण बच्चे कमजोर पैदा हो रहे हैं। जन्म के समय बच्चे का औसत वजन ढाई किलो होना चाहिए, लेकिन अड़तीस फीसद बच्चों का वजन जन्म के समय इससे काफी कम होता है। प्रदेश में शिशु और मातृ मृत्यु दर के ग्राफ में लगातार कमी आ रही है। अभी एसआरएस के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में हर साल करीब अस्सी हजार शिशुओं और चार हजार से ज्यादा माताओं की मौत हो जाती है। सेव दि चिल्ड्रन द्वारा एडिंग न्यू-बॉर्न डेथ्स शीर्षक से जारी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में हर साल दस लाख से अधिक बच्चे एक दिन से ज्यादा जीवित नहीं रह पाते। रिपोर्ट ने प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मियों और जन्म से जुड़ी जटिलताओं को इन मौतों की सर्वाधिक प्रमुख वजह माना है। जन्म के समय उचित देखभाल और प्रशिक्षित स्वास्थ्य कार्मिकाओं की जरूरत तमाम स्वास्थ्य और सामाजिक कार्यकर्ता रेखांकित करते रहे हैं।


इस बात को रिपोर्ट में भी स्वीकार किया गया है कि अगर जन्म के समय प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मी मौजूद हों, तो लगभग आधी मौतों को टाला जा सकता है।


खासकर गरीब देशों की तस्वीर ज्यादा भयावह है। सूडान और दक्षिण अफ्रीकी देशों के इक्यावन प्रतिशत मामलों में किसी प्रशिक्षितकर्मी के मौजूद न होने की बात सामने आई है। इन इलाकों में एक करोड़ की आबादी पर सिर्फ तीन सौ स्वास्थ्य कर्मिकाएं मौजूद रहती हैं। हर साल चार करोड़ महिलाएं किसी प्रशिक्षित कर्मचारी की मदद के बिना बच्चों को जन्म देती हैं। इथोपिया में सिर्फ दस फीसद जन्म प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मचारी की मदद से होते हैं, वहीं ग्रामीण अफगानिस्तान के कुछ इलाकों में तो दस हजार लोगों पर सिर्फ एक स्वास्थ्य कार्मिका होती है।


स्वास्थ्य सेवाओं के जानकार मानते हैं कि अधिकतर गरीब देशों में, जहां ये सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पातीं, शिशुओं के लंबे समय तक जीवित रहने की संभावना भी बहुत कम होती है। भारत की स्थिति भी इस मामले में बहुत अच्छी नहीं है। यूनिसेफ द्वारा जारी स्टेट आॅफ द वर्ल्ड चिल्ड्रन 2012 रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रतिवर्ष लगभग सोलह लाख बच्चे पांच वर्ष की आयु पूरी करने से पहले ही दम तोड़ देते हैं, जबकि एक लाख में से लगभग चार हजार आठ सौ बच्चों की मौत जन्म के एक वर्ष के भीतर हो जाती है। 2011 में दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की सबसे ज्यादा मौतें हुर्इं। भारत में प्रतिदिन चार हजार छह सौ पचास से ज्यादा पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु होती है। यूनिसेफ की नई रिपोर्ट बताती है कि बच्चों के स्वास्थ्य के मामले में अभी बहुत कुछ किया जाना है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट लेवल्स ऐंड ट्रेंड्स इन चाइल्ड मोरटैलिटी-2014 में कहा गया है कि 2013 में भारत में 13.4 लाख से अधिक बच्चों की मौत दर्ज की गई। 1990 में भारत में शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार बच्चों के जन्म पर अट्ठासी थी, जो 2013 में घट कर इकतालीस हो गई। जाहिर है कि स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन मौजूदा हालात भी संतोषजनक नहीं हैं।


रिपोर्ट में कहा गया है कि यों लोगों की सेहत के लिए काफी इंतजाम किए गए हैं और मानवाधिकारों की स्थिति में भी सुधार हुआ है, लेकिन अब भी बहुत से इलाकों और समुदायों में गहरी असमानता बनी हुई है। इनमें से भी करीब एक चौथाई मौतें सिर्फ भारत में होती हैं। नाइजीरिया में करीब दस फीसद मौतें होती हैं। दुनिया भर में जन्म के पांच साल के भीतर ही करीब एक करोड़ सत्ताईस लाख बच्चों की मौतें होती हैं। उनमें से आधी यानी करीब तिरसठ लाख बच्चों की मौत सिर्फ पांच देशों में होती है। सरकार का रवैया इस दिशा में कोई खास उत्साहजनक नहीं है। देश के सकल घरेलू उत्पाद का 1.4 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाता है, जो कि काफी कम है। इसे बढ़ाने की जरूरत है। देश में स्वास्थ्य सेवाओं को दूरस्थ गांव-देहात तक पहुंचाना होगा और देश के हर नागरिक को समय पर पर्याप्त चिकित्सा सुविधा सुनिश्चित हो, तभी भारत में नवजात शिशुओं की मौत पर रोक लगाई जा सकती है।