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कैसे रुकेंगे ऐसे हादसे--- अमरनाथ सिंह

वाराणसी में बाबा जय गुरुदेव के अनुयायियों के एक कार्यक्रम में अचानक हुई भगदड़ ने एक बार फिर यह साबित किया है कि आज भी अपने देश में कारगर भीड़ प्रबंधन की कमी है। बात केवल वाराणसी की इस घटना की नहीं है। हर साल भीड़ के बेकाबू होने से हादसे होते हैं। हालांकि भगदड़ की घटनाएं केवल भारत में नहीं, विदेशों में भी होती हैं। लेकिन जहां विदेशों में भगदड़ से होने वाली मौतों की संख्या में निरंतर कमी आ रही है, वहीं भारत में ऐसे हादसों से होने वाली मौतों और घायलों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। अब भीड़ प्रबंधन को किस तरह से सशक्त किया जाए, इस पर न सिर्फ राज्य सरकारों, बल्कि केंद्र सरकार को भी गौर करने की जरूरत है। यह सच है कि भीड़ प्रबंधन की मुख्य जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है लेकिन केंद्र को भी इस दिशा में गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। भीड़ प्रबंधन को लेकर वर्ष 1999 में केंद्र के आदेश पर पर्यटन एवं संस्कृति मंत्रालय ने संयुक्त रूप से एक समिति का गठन किया था। समिति को पूरे देश के धार्मिक स्थलों के अध्ययन के बाद एक साल के अंदर रिपोर्ट देनी थी, लेकिन रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं की गई।

धार्मिक उत्सवों के दौरान भगदड़ को रोकने का कोई पुख्ता इंतजाम अपने देश में नहीं है। ऐसे में श्रद्धालुओं को खुद सतर्क रहने की जरूरत है। देश के धार्मिक मेलों और मंदिरों में जानलेवा हादसे लगातार बढ़ रहे हैं। खास-खास मौकों पर धार्मिक स्थलों पर उमड़ने वाली भीड़ के अनियंत्रित होने से सैकड़ों श्रद्धालु अचानक मौत की भेंट चढ़ जाते हैं। दरअसल, धार्मिक आयोजनों के विराट रूप लेने के साथ ही वहां भीड़ प्रबंधन के इंतजाम नहीं होने से भगदड़ जैसी घटनाएं होती हैं। इसमें मौत का आंकड़ा हर साल बढ़ता जा रहा है।

जब भी भगदड़ से जुड़ी मौतें होती हैं, राज्य सरकारें जांच समिति जरूर बना देती हैं या फिर आनन-फानन में कुछ छोटे-मोटे अधिकारियों को निलंबित करके खानापूर्ति कर देती हैं। लेकिन शायद ही किसी जांच-रिपोर्ट में किसी बड़े अधिकारी को सजा की सिफारिश की गई हो या दोषी करार दिया गया हो। 19 जुलाई 1993 को खंडवा जिले के ओंकारेश्वर नर्मदा में श्रद्धालु स्नान कर रहे थे, उसी समय करंट फैलने की अफवाह फैली। इससे भगदड़ मच गई और पल भर में ही तीन दर्जन से ज्यादा श्रद्धालुओं की मौत हो गई और एक सौ से अधिक श्रद्धालु जख्मी हो गए। उस दौरान वहां राष्ट्रपति शासन था। तत्कालीन राज्यपाल डॉ मोहम्मद शफी कुरैशी ने योजना और सांख्यिकी विभाग के प्रमुख सचिव को पंद्रह दिन के अंदर जांच रिपोर्ट पेश करने को कहा था। लेकिन तेईस साल बाद भी किसी को मालूम नहीं कि जांच रिपोर्ट का क्या हुआ।

इसी तरह रतलाम के जावरा में चेहल्लुम के मौके पर अंगारों पर चलने के लिए बड़ी संख्या में मुसलिम समुदाय के लोग पहुंचे थे। वहां भी एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में बारह लोग मारे गए। जांच समितिबनाई गई, लेकिन रिपोर्ट का आज तक पता नहीं चल पाया। वर्ष 2014 में पटना के गांधी मैदान में रावण के पुतले के दहन के बाद बिजली का तार गिरने की अफवाह के बाद मची भगदड़ में करीब तीन दर्जन लोगों की मौत हुई। अगस्त 2014 में मध्यप्रदेश के सतना जिले में स्थित कामतनाथ मंदिर में भगदड़ से दो दर्जन लोगों की मौत हुई व पचास से ज्यादा घायल हुए। 10 फरवरी 2013 को इलाहाबाद के कुंभ मेले में मची भगदड़ के दौरान भी चालीस लोगों की मौत हुई थी। वर्ष 2013 में दतिया स्थित रतनगढ़ माता मंदिर में दर्शन करने जा रहे श्रद्धालुओं की भीड़ में मची भगदड़ में करीब सवा सौ लोग मारे गए थे। सितंबर 2012 में झारखंड के देवघर में ठाकुर अनुकूल चंद की 125वीं जयंती पर एक आश्रम परिसर में भीड़ जमा होने और सभागार में दम घुटने से नौ लोगों की मौत हो गई और करीब सवा सौ लोग बेहोश हो गए थे।

कुछ अन्य घटनाएं देखें: 14 जनवरी, 2011 को केरल के इदुक्की जिले में स्थित प्रसिद्ध धार्मिक स्थल सबरीमाला के नजदीक पुलमेदु में मची भगदड़ में तिरसठ लोगों की मौत, 4 मार्च 2010 में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में कृपालु महाराज के आश्रम में तिरसठ लोगों की मौत, 3 जनवरी 2008 को आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा के दुर्गा मल्लेश्वर मंदिर में पांच लोगों की मौत, ओड़िशा के पुरी में जगन्नाथ यात्रा के दौरान छह लोगों की मौत, तीन सितंबर 2008 को राजस्थान के जोधपुर शहर के चामुंडा मंदिर में 228 लोगों की मौत और महाराष्ट्र के सतारा जिले में मंदारदेवी मंदिर में सीढ़ियों से कुछ लोगों के गिरने के बाद मची भगदड़ में तीन सौ चालीस लोगों की मौत हुई थी। हिमाचल के नैना देवी मंदिर में भगदड़ और दक्षिण भारत के एक देवी मंदिर में पटाखों के विस्फोट से सैकड़ों लोगों की मौत की घटनाएं आज भी लोगों के जेहन में चिपकी हुई हैं।

विशेषज्ञों के एक अध्ययन के अनुसार, देश में वर्ष 2000 से वर्ष 2015 तक भगदड़ में चार हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। ऐसी घटनाओं की फेहरिस्त काफी लंबी है। इंटरनेशनल जर्नल आॅफ डिजास्टर रिस्क रिडक्शन के मुताबिक, भारत में 79 फीसद हादसे धार्मिक आयोजनों में भगदड़ मचने और अफवाहों के चलते ही होते हैं। अपने देश में धार्मिक भीरुता भी हादसों का बड़ा कारण है। देखा जा रहा है कि धार्मिक आस्था अधिक हावी होने के कारण भूखे और मजबूर की सहायता करने के बजाय लोग धार्मिक उत्सवों में दिल खोलकर दान करते हैं। दान करना कोई गलत बात नहीं है, लेकिन कम से कम बुनियादी आवश्यकताओं को भी समझने की जरूरत है।

यह सच है कि धर्म लोगों की आस्था से जुड़ा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम अंधश्रद्धा में अपनी और अपने परिवार की जिंदगी ही दांव पर लगा बैठें। सबसे जरूरी है हादसों पर रोक लगाना। यदि धार्मिक आयोजनों की बाबत बेहतर प्रबंधन और भीड़ नियंत्रण की नीति नहीं बनाते हैं तो हादसों में बेगुनाह लोग मरते रहेंगे और हम हाथ पर हाथ धरे मौत का तांडव देखते रहेंगे। इस तरह के आयोजनों पर प्रतिबंध लगाना काफी मुश्किल है, लेकिन सुरक्षा व्यवस्था और अन्य दूसरे इंतजाम तो किए ही जा सकते हैं ताकि इस तरह के हादसों से बचा जा सके। इस तरह के हादसे होते हैं तो राजनीति शुरू हो जाती है। इससे बचने की जरूरत है।

आयोजनों को वोट बैंक से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए। ऐसी घटनाओं के बाद धन और जन दोनों की ही क्षति होती है। साथ ही, कई परिवारों के लिए यह सदमा जिंदगी भर का गम दे जाता है। राजनीतिक रैलियों में भी भगदड़ और उसकी वजह से मौतें हुई हैं। हाल ही में बसपा की रैली में भगदड़ के कारण तीन व्यक्ति मारे गए। राजनीतिक पार्टियां के लिए भीड़ जुटाना शक्ति-प्रदर्शन का पर्याय है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि भीड़ को नियंत्रित करने का कोई सुव्यवस्थित तंत्र नहीं है। व्यवस्था से जुड़े लोगों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे भीड़ प्रबंधन पर प्राथमिकता से गौर करें। लापरवाही ही बार-बार हादसों के लिए जिम्मेदार बनती है। वाराणसी की घटना के बारे में बताया जा रहा है कि अनुमति मात्र तीन हजार लोगों की थी, लेकिन लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचे थे। वैसे भी यहां उल्लेख करना उचित होगा कि वर्ष 1996 में जब जय गुरुदेव श्रद्धालुओं के सामने मुखातिब हुए थे, उस समय पूरे देश से करीब बीस लाख श्रद्धालु पहुंचे थे। लिहाजा पुलिस और वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों को अतीत के रिकार्ड देखना चाहिए था।

यदि जमीनी स्तर पर आवाजाही की व्यवस्थित योजना तैयार की गई होती शायद इतना बड़ा हादसा नहीं होता। जब इस तरह के भव्य आयोजन होते हैं तो पुलिस और जिला प्रशासन मिलकर योजना बनाते हैं। भारी तादाद में लोगों के जुटने से उत्पन्न होने वाली परिस्थिति के एक-एक पहलू पर गौर करते हैं। लेकिन लगता है इस तकाजे का पूरा खयाल नहीं रखा गया। एंबुलेंस और पेयजल की व्यवस्था भी खास-खास स्थानों पर की जाती है लेकिन वाराणसी में ऐसा नहीं देखा गया। हेल्पलाइन नंबर भी काम नहीं कर रहे थे, जिससे मृतकों के परिजनों को भी सटीक जानकारी नहीं मिल पा रही थी।

विशेषज्ञों के मुताबिक, भीड़-भाड़ वाली जगहों के प्रति लोगों में उच्च सहनशीलता होना ही इन घटनाओं को बढ़ावा देता है। किसी समारोह में लोग एक जगह ठसाठस भर न जाएं, तब तक लोग असहज महसूस नहीं करते हैं। फिर लोग हड़बड़ा कर प्रतिक्रिया देना शुरू कर देते हैं। इसी तरह से अफवाहें फैलती हैं जिसके बाद भगदड़ जैसी घटनाएं हो जाती हैं। कई बार त्योहारों में, धार्मिक यात्राओं और चुनावी रैलियों के दौरान लोगों के रांैदकर मारे जाने की खबरें आती हैं।
आज जरूरत इस बात की है कि भीड़ प्रबंधन को ज्यादा से ज्यादा सशक्त किया जाए। साथ ही, आयोजन स्थल की सूक्ष्मता से पड़ताल की जाए। इसके अतिरिक्त वैज्ञानिक तरीके से आकलन किया जाना चाहिए कि यदि लक्ष्य से भीड़ ज्यादा बढ़ जाती है तो उसे किस तरह से नियंत्रित किया जाएगा। भीड़भाड़ वाले आयोजनों के लिए नियमावली तो बननी ही चाहिए। वरना इस तरह के हादसों को रोकना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं होगा।