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कैसे रुकेंगे सड़क हादसे-- देवेन्द्र जोशी

एक आकलन के मुताबिक आपराधिक घटनाओं की तुलना में पांच गुना अधिक लोगों की मौत सड़क हादसों में होती है। कहीं बदहाल सड़कों के कारण तो कहीं अधिक सुविधापूर्ण अत्याधुनिक चिकनी सड़कों पर तेज रफ्तार अनियंत्रित वाहनों के कारण ये हादसे होते हैं। दुनिया भर में सड़क हादसों में बारह लाख लोगों की प्रतिवर्ष मौत हो जाती है। इन हादसों से करीब पांच करोड़ लोग प्रभावित होते हैं। भारत में 2015 में 2014 की तुलना में सड़क हादसों में मरने वालों की संख्या में पांच प्रतिशत की वृद्धि हुई। वर्ष 2014 में देश में 4.89 लाख सड़क दुर्घटनाएं हुई थीं। 2015 में यह आंकड़ा पांच लाख को पार कर गया। सड़क दुर्घटनाओं के चलते हर घंटे सत्रह मौतें होती हैं। योजना आयोग के अनुसार, सड़क दुर्घटनाओं के कारण हर साल लगभग तीन फीसद जीडीपी का नुकसान होता है।


विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने 2009 में सड़क सुरक्षा पर अपनी पहली वैश्विक स्थिति रिपोर्ट में सड़क दुर्घटनाओं की दुनिया भर में ‘सबसे बड़े कातिल' के रूप में पहचान की थी। भारत में होने वाली सड़क दुर्घटनाओं में 78.7 प्रतिशत हादसे चालकों की लापरवाही के कारण होते हैं। इसकी एक प्रमुख वजह शराब व अन्य मादक पदार्थों का सेवन कर वाहन चलाना है। ‘कम्यूनिटी अगेन्स्ट ड्रंकन ड्राइव' (कैड) द्वारा सितंबर से दिसंबर 2017 के बीच कराए गए ताजा सर्वे में यह बात सामने आई है कि दिल्ली-एनसीआर के लगभग 55.6 प्रतिशत ड्राइवर शराब पीकर गाड़ी चलाते हैं। यह बात उन्होंने खुद स्वीकार की है। इसके अलावा सड़क दुर्घटनाओं की प्रमुख वजहों में क्षमता से अधिक सवारी बैठाना, तेज गति से वाहन चलाना, ड्राइवर का थका हुआ होना और लापरवाही से वाहन चलाना आदि शामिल हैं।


सड़क दुर्घटनाओं की संख्या में वृद्धि की एक प्रमुख वजह सड़क सुरक्षा के व्यापक कानूनी ढांचे का अभाव और 1988 में बने मोटर वाहन अधिनियम का व्यावहारिकता से परे होना भी है। पिछले तीन दशकों में सड़क परिवहन में आए बदलाव के अनुरूप मोटर अधिनियम बदलाव की दरकार है। न मौजूदा न पूर्ववर्ती सरकारें सड़क दुर्घटनाओं को नियंत्रित करने की दिशा में गंभीर नजर आर्इं। इसी का नतीजा है कि कोई सुस्पष्ट प्रणाली हमारे सामने नहीं है। ज्यादातर दुर्घटनाओं में मौत की वजह तुरंत प्राथमिक चिकित्सा उपलब्ध न हो पाना है। सामान्यत: दुर्घटना के बाद घायलों को अस्पताल ले जाने में एक घंटे या उससे भी अधिक का समय लग जाता है। तब तक अधिक खून बह जाने या अन्य कारणों से इतनी देर हो चुकी होती है कि घायल को बचा पाना मुश्किल होता है। भारत में मोबाइल फोन और वाहनों की संख्या में एक जैसी वृद्धि हो रही है। एक अनुमान के अनुसार भारत में इतनी कारें हैं कि उन्हें एक कतार में खड़ा किया जाए तो कतार दिल्ली से न्यूयार्क तक पहुंच जाएगी।


अगर सरकार नए वाहनों को लाइसेंस देना बंद नहीं कर सकती तो कम से कम राजमार्गों पर हर चालीस-पचास किलोमीटर की दूरी पर एक ट्रॉमा सेंटर तो खोल ही सकती है ताकि इन हादसों के शिकार लोगों को समय पर प्राथमिक उपचार मिल सके। राजमार्गों को तेज रफ्तार वाले वाहनों के अनुकूल बनाने पर जितना जोर दिया जाता है उतना जोर फौरन आपातकालीन सेवाएं उपलब्ध कराने पर दिया जाता तो स्थिति कुछ और होती। विडंबना यह है कि जहां हमें पश्चिमी देशों से कुछ सीखना चाहिए वहां हम आंखें मूंद लेते हैं और पश्चिम की जिन चीजों की हमें जरूरत नहीं है उन्हें सिर्फ इसलिए अपना रहे हैं कि हम भी आधुनिक कहला सकें।


पश्चिमी देशों में सड़क दुर्घटना में घायल लोगों को अस्पताल पहुंचाने के लिए एयर एम्बुलेंस की सुविधा उपलब्ध रहती है। इस मामले में हम अब भी पिछड़े हुए हैं। भारत में इस मामले में एक भी एयर एम्बुलेंस नहीं है। जो निजी एम्बुलेंस हैं वे महंगे होने से आम आदमी की पहुंच से बाहर होते हैं। इस कारण सड़क दुर्घटना में घायल होने वाले बहुत-से लोग अस्पताल पहुंचने से पहले दम तोड़ देते हैं। एयर एम्बुलेंस न सही, कम से कम रोड एम्बुलेंस ही, उपलब्ध हो जाए तो कई जानें बच सकती हैं। इसके साथ ही शिक्षा, प्रवर्तन, अभियांत्रिकी के जरिए जागरूकता का प्रसार कर भी इन मौतों को रोका जा सकता है।


आंकड़े बताते हैं कि देश में सबसे ज्यादा सड़क दुर्घटनाएं दोपहिया वाहन चालकों की मनमानी से होती हैं। युवाओं के हाथों में बाइक आते ही वे हवा से बातें करने लगते हैं। मोबाइल पर बात करते हुए वाहन चलाना, सीट बेल्ट व हेलमेट आदि का प्रयोग न करना, यातायात नियमों की अनदेखी करना भी सड़क दुर्घटनाओं की बड़ी वजह है। सड़कों पर बढ़ते वाहनों के दबाव के कारण सड़कें आकस्मिक रूप से दम तोड़ने लगती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि सड़क दुर्घटनाओं में हर साल साढ़े बारह लाख लोगों की मौत होती है। 2015 की रिपोर्ट के अनुसार, सड़क दुर्घटना विश्व में अकाल मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है। सड़क हादसों में मरने वालों में गरीब देशों के गरीब लोगों की संख्या में हैरतअंगेज बढ़ोतरी हो रही है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि एक विशाल अंतर उच्च आय वाले देशों को कम और मध्य आय वाले देशों से अलग करता है।


सड़क हादसों में मरने वालों की बढ़ती संख्या ने आज मानो एक महामारी का रूप ले लिया है। इस बारे में राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकडेÞ दिल दहलाने वाले हैं। पिछले साल सड़क दुर्घटनाओं में औसतन हर घंटे सोलह लोग मारे गए। दिल्ली सड़क हादसों से होने वाली मौतों में सबसे आगे है जबकि उत्तर प्रदेश इस मामले में घातक प्रांत रहा है। एनसीआरबी के अनुसार, सड़क दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या के लिहाज से पहले स्थान पर उत्तर प्रदेश, फिर महाराष्ट्र और तमिलनाडु हैं।


विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया के अट्ठाईस देशों में ही सड़क हादसों पर नियंत्रण की दृष्टि से बनाए गए कानूनों का कड़ाई से पालन होता है। भारत की गिनती ऐसे देशों में होती है जहां कानून के पालन में काफी ढिलाई बरती जाती है। जानलेवा टक्कर के बावजूद ज्यादातर मामलों में पुलिस लापरवाही से मौत का प्रकरण दर्ज करती है, जिससे आरोपी तत्काल जमानत पर छूट जाता है। ऐसे प्रकरण में सजा का प्रावधान भी सिर्फ दो वर्ष का है। जबकि कई देशों में दस वर्ष की सजा तथा आजीवन लाइसेंस-प्रतिबंध जैसे कड़े प्रावधान हैं। अंतत: सड़क दुर्घटनाओं से संबंधित कानून का फायदा वाहन चालक को ही मिलता है। इसी तरह के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय कह चुका है कि लापरवाही से वाहन चलाने के कारण किसी इंसान की जान जाती है तो उसे गैर-जमानती अपराध मान कर हिरासत में लिया जाए और दस साल की सजा दी जाए। सड़क परिवहन की इसी खौफनाक हालत पर चिंता जताते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने देश की सड़कों को ‘राक्षसी हत्यारे' (जायंट किलर) कहा था। लाइसेंस-प्रक्रिया को पूर्णतया डिजिटल और भ्रष्टाचार-मुक्त करके, सड़कों के बेहतर रखरखाव, यातायात नियमों के कड़ाई से पालन, सड़कों पर प्रकाश की समुचित व्यवस्था, राजमार्गों पर गश्त बढ़ाने और शराब पीकर गाड़ी चलाने या निर्धारित सीमा से अधिक रफ्तार से गाड़ी चलाने जैसी प्रवृत्तियों पर कड़ी निगरानी आदि के जरिए सड़क हादसों को काफी हद तक कम किया जा सकता है।