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कोई गुलाम योद्धा यह ना पूछे- क्यों युद्ध हारे( दैनिक जागरण, रांची संस्करण)

बीहड़ों में बागी होते हैं, डाकू तो पार्लियामेंट में होते हैं। फिल्म पान सिंह तोमर का यह डायलॉग सबकी जुबान पर है। आठ बार नेशनल चैंपियन रह चुके एथलीट पान सिंह तोमर सरकारी व्यवस्था में घिसकर अंतत: हथियार उठा लेता है और चंबल के बीहड़ों का कुख्यात डकैत बन जाता है। पलामू में 2001 में एक नक्सली श्याम बिहारी उर्फ विनय जी उर्फ सलीम ने आत्मसमर्पण किया था। उसे अब तक सरकारी सरेंडर पॉलिसी का लाभ नहीं मिला। 11 सालों से वह सरकारी व्यवस्था में पिस रहा है। क्या उसकी मानसिक दशा फिर बगावत को उत्तेजित नहीं हो रही होगी? एसपी कार्यालय से जवाब आया कि सरेंडर नीति का लाभ देने के की प्रक्रिया चल रही है। लेकिन, 11 साल..। तो क्या झारखंड के बीहड़ों में सशस्त्र संघर्ष छेड़ने वाले सब के सब बागी हैं, जिन्होंने सरकारी व्यवस्था से कुपित होकर बगावत किया है। बीहड़ों में बागी होते हैं, पर क्या सभी बागी नक्सलवादी होते हैं, माओवादी होते हैं? झारखंड के लिए यह रहस्य है। आज ग्रामीण झारखंड में जो भी आपराधिक घटनाएं होती हैं, उनमें से अधिकतर को बड़ी बेबाकी के साथ नक्सल कार्रवाई घोषित कर दिया जाता है। इस तरह गांवों के अपराधीकरण की प्रक्रिया चल रही है। क्या यही वजह है कि झारखंडी त्रासदियों के बीच उत्पीड़न के खिलाफ तथाकथित हथियारबंद क्रांतिकारियों के कई समूह सक्रिय हैं। एक-दो नहीं बल्कि दर्जन भर क्षेत्रीय नक्सली संगठन राज्य के विभिन्न हिस्सों में सक्रिय हैं। केवल चतरा, रांची, पलामू के इलाके में ही छह नक्सल संगठन जनवादी संघर्ष का दावा कर रहे हैं। लेकिन हकीकत में इनके आपसी टकरावों से ग्रामीण इलाकों में काफी हिंसा हो रही है। लोग तीन-तरफ से युद्ध में पिस रहे हैं। पुलिस-नक्सलियों, नक्सली-नक्सली और अ‌र्द्धसैनिक बल-नक्सली के बीच खूनी जंग की आशंका हर वक्त बनी रहती है। ग्रामीण आबादी का अपराधीकरण ग्रामीण इलाकों में स्थिति यह है कि कई आपराधिक संगठन भी खुद को नक्सलवादी आंदोलनकारी कहने लगे हैं। इन संगठनों का एकसूत्री एजेंडा है- आंदोलन की आड़ में पैसे कमाना। भीषण गरीबी के बीच लोग जान गए हैं कि झारखंड में पैसे कमाने का सबसे नायाब और आसान रास्ता क्या है। 10-15 लोगों का समूह भी खुद को नक्सलवादी विंग घोषित कर इलाके से पैसे की उगाही करने लगता है। क्षेत्र में अपनी दबंगता साबित करने के लिए शुरू-शुरू में दो-तीन हत्याएं भी कर देते हैं, जिसे पुलिस वर्चस्व की लड़ाई घोषित कर संगठन के अस्तित्व पर मुहर लगा देती है। गांवों में बेरोजगार युवकों के लिए यह परिस्थिति के गर्भ से निकला आसान उपाय है, जिसे उन्होंने अपने अनुसार ढालने का कौशल सीख लिया है। बहरहाल, बड़े नक्सली संगठन बीच-बीच में घटनाओं को अंजाम देते हैं, जिनका लाभ इन क्षेत्रीय गिरोहों को भी मिल जाता है। कई इलाकों में तो बड़े ठेकेदार ही 10-12 युवकों को बंदूक देकर पैसे कमाने के लिए ऐसा खेल खेल रहे हैं। इन इलाकों के लोग बताते हैं कि पुलिस की ही मिलीभगत से लेवी वसूली जा रही है और माल में हिस्सेदारी बांटी जा रही है। खासकर, पश्चिम और पश्चिमोत्तर झारखंड में ऐसा हो रहा है। ऐसे संगठन आए दिन स्थानीय स्तर पर बंद का आ ान भी करते हैं। चतरा, पलामू, लातेहार, गढ़वा, गुमला, सिमडेगा, हजारीबाग जिले स्वघोषित नक्सली संगठनों के बीच आपसी टकराव के गढ़ बन गए हैं। आंदोलन की इस प्रक्रिया के बीच अक्सर ग्रामीणों को पुलिस का मुखबिर कह हत्या की जाती रही है। ऐसे में उत्पीडि़त आबादी भी असमंजस में है कि वह आखिर किसके साथ जाए। ऊहापोह में ग्रामीण आबादी की विद्रोही चेतना भी अब तटस्थ हो गई है और सबको चुपचाप स्वीकार कर ही है। झारखंड बनने के बाद अगर ग्रामीण आबादी की राजनीतिक चेतना का शून्य पैदा हुआ तो वह इसी असमंजस के गर्भ से। राजनीतिक रूप से तो लोकतांत्रिक सरकार भी दबे-कुचलों और गरीबों की बात करती है, लेकिन उसके वास्तविक चरित्र का लोग विरोध करते हैं, आक्रोश जताते हैं। नक्सल आंदोलन के प्रति भी लोगों का अब यही नजरिया हावी होने लगा है। नक्सल कार्रवाइयों में पुलिस सत्ता पर तो विजय पाने का उपक्रम तो दिखता है, लेकिन राजनीतिक सत्ता पर नहीं। टूट से उभरे कई आपराधिक संगठन 21 सितंबर, 2004 को माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर, सीपीआइएमएल और पीपुल्स वार ग्रुप का विलय हो गया। इससे एक बेहद ही संगठित नक्सलवादी संगठन का उदय हुआ- कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी)। इसके बाद नक्सल आंदोलन को एक संगठित और बेहद ही ताकतवर दिशा मिली। उस वक्त एमसीसी में करीब 3500 कैडर लड़ाकू दस्ते में थे। करीब इतनी ही संख्या में कैडर पीपुल्स वार ग्रुप के गुरिल्ला आर्मी में भी थे। दोनों संगठनों के मिलन के बाद करीब 10 हजार हथियारबंद लड़ाके सीपीआइ (माओवादी) की संगठित सेना में नक्सल आंदोलन को तेज करने में जुट गए। लेकिन यह राष्ट्रीय स्तर का मिलन था, जिसे झारखंड के नक्सल आंदोलनकारी आसानी से स्वीकार नहीं कर पाए। वर्ष 2002 में झारखंड के दलितों ने संगठन में प्रभावशाली पदों पर यादव जाति के वर्चस्व का आरोप लगाते हुए अपना अलग संगठन बना लिया। इसी मतभेद के आधार पर टूट हुआ, जिससे तृतीय प्रस्तुति कमेटी यानी टीपीसी का जन्म हुआ। झारखंड के तुरी, गैंझू, भोगता जैसी पिछड़ी जातियों ने टीपीसी के बैनर तले अपने संघर्ष को आगे बढ़ाने का फैसला किया। तब से चतरा, पलामू, रांची और लातेहार के इलाकों में माओवादियों और टीपीसी के बीच वर्चस्व की लड़ाई छिड़ी है, जिसमें इलाके की बड़ी आबादी पिस रही है। हालांकि, कुछ लोग (टीपीसी के प्रभाव वाले क्षेत्र के) मानते हैं कि टीपीसी का गठन पुलिस ने अपनी रणनीति के तहत कराया था। यह संगठन पुलिस के लिए काम करती है। इलाके से माओवादियों के सफाये में टीपीसी ने पुलिस का भरपूर साथ दिया था। दबी जुबान में लोग यह भी कहते हैं कि टीपीसी द्वारा वसूली जा रही लेवी का बड़ा हिस्सा पुलिस के पास जाता है। यही वजह है कि पुलिस और टीपीसी में मुठभेड़ की बातें शायद ही कभी सुनने को मिलती हैं। झारखंड लिबरेशन टाइगर (जेएलटी) और पीएफएलआइ (पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया) ने भी पश्चिमोत्तर और पश्चिम झारखंड में अपना सशक्त वर्चस्व कायम करने की कोशिश की। जेएलटी इसमें कामयाब नहीं हो सकी, लेकिन पीएफएलआइ ने कई बार अपनी मजबूत मौजूदगी को साबित किया है। बहरहाल, पांच मार्च को पिपरवार के अशोक कोल प्रोजेक्ट क्षेत्र में माओवादियों के हमले ने एक बार फिर नई हिंसक लड़ाई के संकेत दे दिए हैं। टीपीसी के इलाके में डेढ़-दो सौ की संख्या में माओवादियों का आना यही संकेत देता है कि सीपीआइ (माओवादी) फिर से पूरे झारखंड में अपनी लड़ाई तेज करने जा रही है। ऐसा होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि जिस तरह माओवादियों के नाम पर झारखंड के हर इलाके से लेवी वसूली जा रही है और हिंसा को अंजाम दिया जा रहा था, इसके बीच माओवादियों को अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाए रखने के लिए उन क्रियाकलापों का खंडन करना है, जिसे कई विचारधाराविहीन आपराधिक संगठन और निजी सेनाएं माओवाद के नाम पर अंजाम दे रहे हैं। बहरहाल, टीपीसी और झारखंड जन मुक्ति परिषद जैसे संगठनों का इस्तेमाल कौन कर रहा है, इसे इलाके के लोग भी जानते हैं। इस खेल का अंजाम यह हुआ है कि इन इलाकों का सामाजिक-राजनीतिक माहौल बेहद ही जटिल और अराजक स्थिति में पहुंच गया है। युवा बंदूक थामने को लेकर रोमांचित हो गए हैं और हथियार के दम पर छोटे स्तर पर कई आपराधिक घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। खुद को नक्सलवादी संगठन घोषित करने से आय का आसान रास्ता इन आपराधिक संगठनों के लिए खुल जाता है। मसलन, झारखंड में नक्सलवाद के नाम पर एक बड़ी आबादी का अपराधीकरण कर एक बेहद ही जटिल समस्या को जन्म दिया जा रहा है। इस प्रक्रिया में किसकी भागीदारी है, इसे समझा तो जा सकता है, लेकिन समाधान नहीं किया जा सकता, क्योंकि जब रोम जल रहा था, तब नीरो चैन की बंसी बजा रहा था, क्योंकि आग लगाने वाला भी नीरो ही था। बहुआयामी फैक्टर इसे समझ लेना होगा कि नक्सलवाद झारखंड के लिए अब बहुआयामी फैक्टर बन चुका है। चारू मजूमदार ने अपने जीवन के आखिरी दौर में कहा था कि हमने खुली हवा में सांस लेने के लिए क्रांति का दामन थामा है। 2010 के बसंत में कानू सांन्याल भी चल बसे, उनके खत का एक ही सार था- यह मैंने क्या कर दिया..! ये दोनों नक्सलवादी आंदोलन के हीरो थे, जिन्होंने जनता की सत्ता का सपना देखा था, सरकार को तानाशाह कह विद्रोह छेड़ा था, बागियों की सेना बनाई थी और आजादी के बाद देश में सबसे बड़े जनसंघर्ष की नींव डाली थी। लेकिन, क्रांति के नाम पर इन्होंने कभी भी अंधहिंसा का आ ान नहीं किया था। इसलिए सरकार प्रतिवाद की इस प्रक्रिया को समझे, उसका राजनीतिक-आर्थिक रणनीति बनाकर सामना करे। खुली हवा का मतलब व्यापक है, जिसमें ढेरों राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संदर्भ छुपे हैं। जब तक नक्सलियों से निपटने का सारा जिम्मा केवल जीएस रथ (डीजीपी) और जेबी तुबिद (गृह सचिव) को सौंपा जाता रहेगा, तब तक हिंसा और जवाब में प्रतिहिंसा का दौर जारी रहेगा। यह बचकानी सोच है, जिसमें सरकार की ओर से कोई गंभीर रणनीतिक पहल नहीं दिखती। अगर नक्सल सेना को परास्त करना है तो अर्जुन मुंडा, सुदेश महतो, हेमंत सोरेन समेत सभी मंत्रियों की सेना बनाई जाए, जिनके नेतृत्व में विभागों के सचिव, जिलों के उपायुक्त, बीडीओ, सीओ, मुखिया, ग्राम प्रधान गरीबी-भुखमरी, पिछड़ेपन, बेरोजगारी, शोषण जैसी स्थितियों से जंग लड़ने मैदान में उतरें। तब कोई डेविड सा गुलाम योद्धा यह नहीं पूछेगा कि - स्पार्टकस हम युद्ध क्यों हारे, जबकि हमने लोगों की रक्षा के लिए युद्ध छेड़ा था।