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कोर्ट की फटकार कितनी असरदार? - राजीव सचान

पिछले दिनों काले धन के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से केंद्र सरकार को कड़ी फटकार लगाने के चलते देश को यह संदेश गया, मानो पिछली सरकार की तरह नई सरकार भी इस मसले पर ढिलाई बरत रही है। लेकिन अब स्थिति यह है कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में काम कर रहे विशेष जांच दल (एसआईटी) और सरकार का स्वर एक ही है। दोनों ही कह रहे हैं कि वे काले धन संबंधी अंतरराष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन नहीं कर सकते और काले धन के कथित खातेदारों के जो नाम मिले हैं, उन्हें बिना किसी छानबीन के उजागर नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने काले धन के संदिग्ध खातेदारों की सरकार से मिली सूची को जिस तरह बगैर खोले एसआईटी को सौंपा उससे उसकी सीमाओं का तो पता चला ही, यह भी जाहिर हुआ कि उसने सरकार को बेवजह ही फटकारा। सुप्रीम कोर्ट 2009 से काले धन के मामले की सुनवाई कर रहा है। तमाम डांट-फटकार और दबाव के बावजूद उसे आंशिक सफलता तब मिली, जब नई सरकार काले धन पर एसआईटी के गठन के लिए राजी हुई। कोई नहीं जानता कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से वह सूची क्यों मांगी, जो एसआईटी के पास पहले से ही थी? आखिर जो सूची एसआईटी को इसी वर्ष जून में मिल गई थी, उसे सरकार से फिर मांगकर बिना खोले एसआईटी को सौंपने से क्या हासिल हुआ? सुप्रीम कोर्ट ने यह सूची एसआईटी को सौंपकर उसे मार्च 2015 तक जांच पूरी करने का जो आदेश दिया, वह तो जून-जुलाई में ही दिया जा सकता था।

पुलिस सुधारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट 2006 से ही सक्रिय है। उसने पुलिसिया तंत्र में सुधार लाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को सात सूत्रीय निर्देश दिए थे, लेकिन उन पर पूरी तौर पर अमल अभी भी शेष है। पिछले आठ सालों में सुप्रीम कोर्ट पुलिस सुधारों संबंधी अपने दिशा-निर्देशों के पालन में हीला-हवाली कर रहे राज्यों को न जाने कितनी बार फटकार लगा चुका है, लेकिन नतीजा करीब-करीब ढाक के तीन पात वाला है। राज्य सरकारें हर बार कोई न कोई बहाना लेकर आ खड़ी होती हैं। उन्हें नए सिरे से फटकार लगती है, लेकिन वे फिर-फिर नए बहानों के साथ लौटकर आती हैं। इस सिलसिले को देखते हुए कहना कठिन है कि पुलिस सुधारों संबंधी सभी दिशा-निर्देशों पर पूरी तौर पर अमल कब होगा? पुलिस सुधारों की तरह ही सुप्रीम कोर्ट सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने का काम अपने हाथ में लिए हुए है। उसकी निगरानी में 2006 से एक वाधवा समिति काम कर रही है। उसकी सक्रियता के चलते काफी कुछ ठीक हुआ है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ दुरुस्त होना बाकी है।

संभवत: इससे सभी अवगत होंगे कि गंगा को साफ करने का अभियान करीब तीस साल पहले शुरू हुआ था। राजीव गांधी ने जनवरी 1986 में गंगा को निर्मल बनाने के अभियान का श्रीगणेश जोर-शोर से किया था, लेकिन हालात जस के तस हैं। मोदी सरकार गंगा को साफ करने का अभियान नए सिरे से छेड़ने जा रही है। अभी इस अभियान की रूपरेखा सामने आना शेष है। इस अभियान के इंतजार के बीच हमें इससे अवगत होना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट भी करीब 30 साल से गंगा की सफाई के मामले की सुनवाई कर रहा है। अभी हाल में उसने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और राज्यों के बोर्डों को इसके लिए फटकार लगाई कि वे गंगा में विषाक्त कचरा उड़ेलने वाले उद्योगों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं कर पा रहे हैं? शायद किसी को स्मरण हो कि उसने करीब-करीब ऐसी ही नाराजगी 1985 में भी व्यक्त की थी और गंगा में गंदगी डालने वाले उद्योगों के खिलाफ कार्रवाई को कहा था। पिछले दिनों उसे एक तरह से फिर वही आदेश जारी करना पड़ा, जो उसने 1985 में जारी किया था। यदि उसके तब के आदेश पर अमल हो गया होता तो आज हालात बदले हुए होते। चूंकि ऐसा नहीं हुआ इसलिए पिछले 29 सालों में गंगा में बहुत पानी बहने के साथ ही न जाने कितना औद्योगिक कचरा भी बह गया।

इसी तरह का एक और मामला देखें : पिछले हफ्ते जब सुप्रीम कोर्ट से वेश्यावृत्ति और मानव तस्करी से मुक्त कराई गई महिलाओं के पुनर्वास को लेकर दिशा-निर्देश देने की मांग की गई तो यह पाया गया कि शीर्ष अदालत तो 24 साल पहले ही ऐसा कर चुकी है। इस पर संबंधित पीठ ने सरकार से 24 साल पहले जारी अपने आदेश पर अमल की सूरत पूछी। देखना है कि अगली सुनवाई में सरकार क्या जवाब दाखिल करती है?

यह ठीक नहीं कि सुप्रीम कोर्ट कोई मसला अपने हाथ में ले और सालों-दशकों बाद भी यह देखने को मिले कि स्थितियों में मामूली या न के बराबर ही सुधार आया है। जिन मामलों में सरकारी तंत्र सुस्ती बरतता है, उन्हें सुप्रीम कोर्ट को अपने हाथ में लेना ही चाहिए, लेकिन कुछ इस तरह से कि उसे बार-बार फटकार लगाने की जरूरत न पड़े और अगर ऐसा करना भी पड़े तो फिर स्थितियों में संतोषजनक सुधार दिखना चाहिए। इसी के साथ यह भी जरूरी है कि किसी को बेवजह फटकार न लगे। गंगा की गंदगी पर मोदी सरकार को तब तक फटकार लगाने का कोई मतलब नहीं, जब तक वह अपने अभियान को लेकर आगे नहीं आती और उस पर काम शुरू नहीं होता।

यह सुप्रीम कोर्ट की मजबूरी है कि वह मुकदमों के तमाम बोझ के बावजूद जनहित के उन मसलों की अनदेखी नहीं कर सकता, जो सरकारों की शिथिलता के कारण उस तक आते हैं, लेकिन इसका कोई औचित्य नहीं कि ऐसे मामलों में दशकों तक कोई उल्लेखनीय प्रगति न हो। जो मामले सुप्रीम कोर्ट ने अपने हाथ में ले रखे हैं उनमें तेजी से सुधार होता हुआ नहीं दिखा तो आम जनता के बीच यह भाव घर कर सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बावजूद स्थितियां सुधर नहीं रही हैं।

-लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं। ये उनके निजी विचार हैं।