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कोर्ट ही कोर्ट को बचा सकता है-- प्रो. फैजान मुस्तफा

भारत के विधि आयोग की 195वीं रिपोर्ट के आधार पर प्रस्तावित 'जजेज (इन्क्वाॅयरी) बिल, 2006' का उद्देश्य एक ऐसे न्यायिक मंच की स्थापना करना था, जो जजों के विरुद्ध शिकायतों से निबट सके. चार वरिष्ठ जजों का इसका सदस्य होना था.

इसके अंतर्गत यह प्रावधान किया गया था कि जिस मामले में महाभियोग की जरूरत न हो, उसमें चेतावनी, परामर्श, फटकार, न्यायिक कार्यों से अलगाव या निजी या सार्वजनिक निंदा जैसे सामान्य कदमों के विकल्प आजमाये जायें. मगर यह बिल पारित नहीं हो सका, क्योंकि तब विपक्ष ने संसद की कार्यवाही नहीं चलने दी और यूपीए सरकार एक सर्वसम्मति विकसित करने में कामयाब नहीं हो पायी. अब सुप्रीम कोर्ट की साख बचाने और भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) पर महाभियाेग का मसला सामने है. पार्टियां इस पर आमने-सामने हैं. हालांकि, यह मसला महाभियोग का नहीं था. सुप्रीम कोर्ट की साख का मामला है.

इसलिए, भारतीय न्यायपालिका के नेता के रूप में मुख्य न्यायाधीश को चाहिए कि वे सुप्रीम कोर्ट के उन वरिष्ठ जजों को संतुष्ट करें, जो सुप्रीम कोर्ट की साख बचाने को लेकर अपनी बात रख रहे हैं. जाहिर है, कोर्ट ही कोर्ट को बचा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जज (जस्टिस जे चेलामेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ) फुल कोर्ट की मीटिंग की मांग कर रहे हैं. यह मीटिंग कोई प्रशासनिक बैठक नहीं होती है कि जज बैठकर बातचीत कर लें, बल्कि यह मीटिंग अपने आप में सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच होगी, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के सारे जज (वर्तमान में जितने जज हैं) शामिल होकर बातचीत करेंगे.

उस मीटिंग की बातचीत में जज मिलकर जो फैसला लेंगे, वह सिर्फ प्रस्ताव नहीं होगा, बल्कि एक जजमेंट होगा. लेकिन, अगर सीजेआई फुल कोर्ट मीटिंग नहीं बुलायें, तो कुछ नहीं हो सकता. आर्बिट्रेरी डिसीजन लिये जाते रहेंगे. यही बात मौजूदा संकट की जड़ है.

इस पूरे मामले पर मुझे यहां अमेरिका के 32वें राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट का एक कथन याद आ रहा है. रूजवेल्ट ने कहा था- 'अब वक्त आ गया है कि संविधान को कोर्ट से बचाया जाये और कोर्ट को भी खुद कोर्ट से ही बचाया जाये.' इस वक्त हमारे देश में जो न्यायपालिका की साख को लेकर बहस चल रही है, तो मुझे लगता है कि न्यायपालिका आज ऐसे ही एक मोड़ पर आकर खड़ी हो गयी है, जहां वरिष्ठ जजों को यह लगने लगा है कि न्यायालय पर संकट आ पड़ा है और इसका भविष्य खतरे में है. इस संदर्भ में, इस साल 12 जनवरी को चार वरिष्ठ जजों का मीडिया के सामने आने को और बीते 11 अप्रैल को आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले को देखा जा सकता है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि भारत के मुख्य न्यायाधीश पर अविश्वास नहीं किया जा सकता.

बीते 11 अप्रैल के फैसले में, जो भारत के मुख्य न्यायाधीश की शक्तियों के बारे में था कि उन पर अविश्वास नहीं किया जा सकता, वहां सीजेआई भी मौजूद थे. जहां तक मैं मानता हूं, जब किसी व्यक्ति की शक्तियों के बारे में कोई मामला हो, तो उस व्यक्ति को उस बेंच में नहीं बैठना चाहिए.

नेचुरल जस्टिस का यह बहुत ही पुराना सिद्धांत है कि न्याय भले न हो, लेकिन न्याय होते दिखना चाहिए यानी लोगों को यह तो लगना ही चाहिए कि हां न्याय हुआ है. मसलन, कोई व्यक्ति अपनी ही शक्तियों के बारे में कोई फैसला करेगा, तो जाहिर है कि न्याय होने को लेकर लोगों के मन में शक बना रहेगा.

सुप्रीम कोर्ट में बेंच बनाने का काम एक न्यायिक कार्य (जुडिशियल वर्क) नहीं है, प्रशासनिक कार्य है. इसलिए जब सीजेआई कोई बेंच बनाते हैं, तो वह न्यायिक कार्य नहीं करते हैं, बल्कि वह प्रशासनिक कार्य करते हैं.

अनुच्छेद 14 के मुताबिक, एक प्रशासनिक कार्य करनेवाला व्यक्ति सभी मौलिक अधिकारों से बंधा हुआ होता है, इसलिए वह कोई ऐसा फैसला अपने मन से नहीं ले सकता कि वह जिस जज को चाहे, जिस बेंच में रख दे, या फिर जिस जज को चाहे जिस बेंच से हटा दे. यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट पर मौजूदा संकट आया हुआ है. क्योंकि बेंच कंस्टीट्यूशन के कई जजों को लगा कि इसमें मनमाने फैसले लिये जा रहे हैं.

मेरे ख्याल में यह मसला इतना बड़ा नहीं था और इसे आपस में ही सुलझाया जा सकता था. लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ, तब इस साल के शुरुआत में 12 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने मीडिया के सामने आकर सीजेआई को लिखे खत दिखाये थे, जिसमें कहा गया था कि भारतीय लोकतंत्र खतरे में है. खत में था कि अगर सुप्रीम कोर्ट को नहीं बचाया गया, तो लोकतंत्र नाकाम हो जायेगा.

जब सुप्रीम कोर्ट अपने किसी फैसले से किसी मौलिक अधिकार का हनन कर दे या कोई मनमाना फैसला दे दे, तो एक नागरिक के पास सिवाय अपील करने के कोई अधिकार नहीं है. लेकिन, जब सुप्रीम कोर्ट एक प्रशासनिक संस्था की तरह व्यवहार करे, तब सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ अदालत जाया जा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट के रूल्स अपने आप में कानून हाेते हैं. अगर उस कानून में किसी के पास आॅर्बिट्रेरी पावर (मनमानी शक्ति) है, तो इससे जाहिर है कि वह कानून मौलिक अधिकारों का हनन कर रहा है. ऐसे में अगर सुप्रीम कोर्ट किसी को आर्बिट्रेरी पावर वाले रूल्स देता है, तो यह अपने आप में असंवैधानिक होगा. वहीं सुप्रीम कोर्ट के जजों के पास सीजेआई को फोर्स करने का अधिकार भी नहीं है. इसलिए वे फुल कोर्ट मीटिंग की मांग कर रहे हैं.

एक लोकतंत्र में जहां संघात्मक शासन प्रणाली काम करती है, वहां एक स्वतंत्र न्यायपालिका की जरूरत होती है और यह दो बातों के लिए जरूरी है- पहली बात तो यह कि न्यायपालिका केंद्र और राज्यों के आपसी झगड़ों, या फिर दो राज्यों के आपसी झगड़ों को सुलझाये. वहीं दूसरी बात यह है कि न्यायपालिका हमारे मौलिक अधिकारों को हमें दिलाती है.

दरअसल, हमारे मौलिक अधिकार सरकार की शक्तियों पर रोक लगाने के लिए हैं, इसलिए सरकारें हमेशा लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन करती रहती हैं. सरकारें यह चाहती हैं कि वे लोगों के अधिकार क्षेत्र को सीमित कर अपनी शक्तियों को बढ़ाती जाये.

इसलिए जब किसी देश में जज सरकार के नियंत्रण में काम करते हैं, तो जनता का विश्वास न्यायपालिका से उठने लगता है. आज देशभर में जो लोग भी कानून की पढ़ाई कर रहे हैं या अदालतों में प्रैक्टिस कर रहे हैं, उन सबको फिक्र है कि जल्दी ही सुप्रीम कोर्ट इस संकट से बाहर आ जाये. इसके लिए सीजेआई को ही कोई पहल करनी होगी.