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कौन रुके, कौन देखे और तब चले!- रंजन कुमार सिंह

पैर अभी सड़क पर पड़े ही थे कि सामने से आती गाड़ी को देख कर ठिठक गये. गाड़ी जितनी तेजी से चली आ रही थी, उतनी ही तेजी से चालक ने ब्रेक लगा दी. मैं समझ नहीं पा रहा था कि मुङो रुकना चाहिए या सड़क पार कर लेनी चाहिए, लेकिन गाड़ी तब तक रुकी रही, जब तक कि मैं सड़क पार नहीं कर गया. यह वाकया जाहिर तौर पर भारत के किसी शहर का नहीं है और मैं यकीनन कह सकता हूं कि विदेश हो आये साथियों के लिए यह अनुभव कोई नया नहीं होगा.

यदि हमारे देश के चालकों में इतनी जिम्मेवारी का भाव जाग उठे, तो क्या हमारी सड़कें भी सुरक्षित नहीं हो जायेंगी? लेकिन यहां के वाहन चालकों में जिम्मेवारी का एहसास जागेगा कैसे, जबकि इन्हें वाहन चालक का प्रमाण-पत्र देनेवाले ही अपनी जिम्मेवारी को लेकर उदासीन हों! एक अनुमान के अनुसार देश भर में सालाना डेढ़ करोड़ ड्राइविंग लाइसेंस जारी होते हैं, जबकि इन्हें जारी करनेवाले कार्यालय एक हजार भी नहीं. यानी क्षेत्रीय यातायात कार्यालयों को प्रतिदिन औसतन 50 ड्राइविंग लाइसेंस जारी करने होते हैं. दिल्ली के 13 क्षेत्रीय यातायात कार्यालय तो साल में करीब पांच लाख ड्राइविंग लाइसेंस जारी करते हैं. यानी हरेक मोटर वाहन इंस्पेक्टर पर प्रतिदिन औसतन 75-80 ड्राइविंग लाइसेंस जारी करने का भार है. इतना करने के लिए या तो उसे अतिमानव होना होगा या फिर अपने फर्ज के प्रति बेईमान.

मोटर वाहन अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार किसी को ड्राइविंग लाइसेंस देने से पहले उसका टेस्ट और साक्षात्कार लेना आवश्यक है, लेकिन इतना करने की फुर्सत किसी मोटर वाहन इंस्पेक्टर को नहीं होती! ऐसे में कुछ ले-देकर औपचारिकताएं पूरी कर दी जाती हों, तो इसमें आश्चर्च कैसा? ऐसे में यह बात हमें हैरान ही क्यों करे कि देश भर में डेढ़ लाख लोग सालाना सड़क हादसों के शिकार हो जाते हैं! इनमें वे तो हैं ही जो औरों की गलतियों के शिकार होते हैं, पर ऐसे लोग भी हैं जो खुद अपनी गलतियों का खामियाजा भुगतते हैं. जिस देश में आदमी की जान की कीमत भेड़-बकरी सी आंकी जाती हो, वहां सड़क हादसे में मौत की खबर हैरान-परेशान नहीं करती. हां, जब-कभी किसी सड़क दुर्घटना में किसी अतिविशिष्ट व्यक्ति की मौत होती है, तो वह मीडिया की सुर्खियां जरूर बन जाती है. जब कभी किसी राजेश पायलट, साहिब सिंह वर्मा, ज्ञानी जैल सिंह या फिर गोपीनाथ मुंडे की मौत सड़क हादसे में होती है, तब हमारा ध्यान सड़कों की भयावहता पर जाता है. यदि इन हादसों से हम खुद सबक लेने लगें, तो सचमुच सड़क हादसों में कमी आयेगी.

सड़कों को असुरक्षित बनाने में हमारे यहां की वीआइपी संस्कृति कम दोषी नहीं. जब एक अदना सिपाही के इशारे पर अपनी गाड़ी रोक देना हमें आदतन अखरता है, और लाल बत्ती कूद कर निकल जाने में हमें अपनी इज्जत नजर आती है, तो फिर सड़कों की सुरक्षा की बातें करना फिजूल है. मुङो याद है, रेणुका चौधरी ने एक सिपाही को थप्पड़ सिर्फ इसलिए जड़ दिया था कि उसने उनकी गाड़ी रोकने की जुर्रत की थी! शायद तब वह मंत्री भी नहीं थीं. होतीं तो भी क्या उन्हें यातायात के नियम तोड़ने की आजादी मिल जाती है? इस तरह देखा-देखी में हम सब नियम भंग करने को अपनी शान से जोड़ने लगते हों, तो इसमें हैरानी कैसी? परीक्षा देकर ड्राइविंग लाइसेंस लेना जब हमारी शान के खिलाफ हो, तो पैसे लेकर ड्राइविंग लाइसेंस देने में वाहन इंस्पेक्टर को परहेज क्यों हो.

नियम तो तभी तक चलते हैं, जब वे सभी पर समान तौर पर लागू हों, नहीं तो उन्हें टूटने में देर नहीं लगती. राम भी मर्यादा पुरुषोत्तम तभी बन पाते हैं, जब वे अपने और पराये का भेद छोड़ कर अपनी पत्नी सीता को भी परीक्षा में उतार देते हैं. सड़कों को सुरक्षित बनाने के लिए नियमों का सख्ती से पालन आवश्यक है. जिन लोगों को हम नियम और कानून बनाने के लिए चुनते हैं, वही जब खुद को नियमों से ऊपर मान लें, तो फिर उनका पालन कोई और क्यों करेगा? नियम और कानून का पालन तो उन्हें बनानेवालों को ही सबसे पहले करना पड़ेगा, तभी यातायात-व्यवस्था में कुछ सुधार की उम्मीद की जा सकती है.

ऐसा नहीं कि विदेशों में सड़क दुर्घटनाएं नहीं होतीं. होती हैं, पर वहां कोई वीआइपी स्वयं को नियम और कानून से परे समझने की हिमाकत नहीं करता, इसी कारण वहां व्यवस्थाएं बनी रहती हैं. सड़कों को सुरक्षित बनाने के लिए जरूरी है कि नियमों का सख्ती से पालन हो और उसके घेरे में सभी आयें. अगर उसमें कोताही हुई, फिर तो हादसे होते ही रहेंगे. अगली सड़क दुर्घटना रोकी जा सकती है, बशर्ते हम सब खुद को पुलिस की जगह मान कर गलती करनेवालों पर नजर रखें, साथ ही समझने लगें कि किसी-न-किसी की नजर हम पर भी बनी हुई है. हमारी सड़कें तभी सुरक्षित हो सकती हैं, जब औरों से नियमों का पालन करने की उम्मीद छोड़ कर हम खुद नियमों का पालन करने लगेंगे.