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क्या कागजी ही रहेगा बालश्रम कानून- किशोर

जनसत्ता 30 अप्रैल, 2013: मंत्रिमंडलीय समितिद्वारा बालश्रम (प्रतिबंधन एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 में संशोधन को मंजूरी दिए छह महीने से ज्यादा हो गए हैं, पर अभी तक यह संसद के दोनों सदनों में पास नहीं हो पाया है। इस संशोधन को राज्यसभा में पेश भी किया जा चुका है, पर मामला उससे आगे नहीं बड़ा है। इस अधिनियम में संशोधन के बाद चौदह वर्ष से कम आयु के बच्चों से किसी भी व्यवसाय में मजदूरी करवाने पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया जाएगा और चौदह से अठारह वर्ष तक के बच्चों से खतरनाक व्यवसायों में काम कराने पर रोक लग जाएगी।


इस संशोधन से पहले चौदह साल तक के बच्चों से केवल खतरनाक व्यवसायों में मजदूरी कराने पर प्रतिबंध था। खतरनाक और गैर-खतरनाक व्यवसायों का यह फर्क काफी विवादित है। बाल अधिकार संगठनों का मानना है कि किसी भी तरह की मजदूरी बच्चों के विकास में बाधक है, इसलिए व्यवसाय कोई भी हो, उसमें काम करना बच्चों के लिए खतरनाक और हानिकारक है। पर अब तक भारत सरकार का सोच कुछ अलग था और इसी सोच ने एक संवैधानिक विरोधाभास खड़ा कर रखा है।


एक तरफ तो शिक्षा के मौलिक अधिकार के अनुसार चौदह साल से कम उम्र के सभी बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार है और हर बच्चे को स्कूल में होना चाहिए। दूसरी तरफ मौजूदा बाल श्रम कानून इसी आयु वर्ग के बच्चों से कुछ व्यवसायों में काम कराने की इजाजत देता है। अब यह कैसे संभव है कि बच्चा स्कूल में भी दाखिल हो और काम पर भी जाए? इसी तरह के अंतर्द्वंद्व जेजे अधिनियम और बाल श्रम कानून में भी हैं और इन विरोधाभासों के खिलाफ कुछ बाल अधिकार संगठनों ने लोक हित याचिका भी दायर कर रखी है। सरकार को चाहिए कि बिना देर किए इस संशोधन को संसद के दोनों सदनों में पास कराए और एक संवैधानिक उलझन को खत्म करे।


यह संशोधन भारत को कुछ अन्य शर्मनाक स्थितियों से बचाने में भी मदद करेगा। पिछले कई सालों से भारत एक तरफ तो अपनी आर्थिक प्रगति का ढिंढोरा पीटता आ रहा है, तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था होने का दम भरता है, और दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय मंचों पर यह रोना रो रहा है कि हम एक गरीब देश हैं, हमारे पास बाल श्रम खत्म करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं और हमारी अर्थव्यवस्था बच्चों की मजदूरी के बिना नहीं चल सकती! देश के भीतर भी यही तर्क दोहराया जाता है जब जनकल्याण के मदों में खर्च बढ़ाने की मांग होती है। तब कहा जाता है कि इसके लिए पैसा कहां से आएगा।


सरकारी खजाने की दशा का हवाला देकर रसोई गैस से लेकर खाद तक, सबसिडी खत्म की जा रही है। मगर दूसरी ओर, जब हवाई अड््डों, राजमार्गों और फ्लाइओवरों पर खर्च करने की बात आती है, तब सरकार के पास पैसे की कोई कमी नहीं होती। पैसे की समस्या तब भी नहीं आती जब हथियारों का आयात बढ़ाना होता है। गौरतलब है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश हो गया है।


आज तक भारत ने संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौते की धारा 32 पर सहमति नहीं दी है, जिसमें वादा किया गया है कि सभी देश बाल मजदूरी को जड़ से खत्म करेंगे। अपने बच्चों के प्रति भारत जैसे अग्रणी राष्ट्र का यह रवैया बेहद अफसोसनाक है। इस संशोधन के बाद हम शान से कह सकेंगे कि अपने देश के बच्चों के अधिकारों को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।


बाल मजदूरी पर पूरी तरह रोक लगाने में एक लंबा समय लगा, पर आखिरकार भारत इस सही फैसले के नजदीक है और अब सरकार को इस संशोधन को और लटकाना नहीं चाहिए। यह एक प्रगतिशील कदम होगा जिसकी मांग बाल अधिकार सगठन लंबे समय से करते आ रहे हैं।


चौदह वर्ष तक की आयु तक पूर्ण प्रतिबंध के साथ-साथ प्रस्तावित संशोधन में बच्चों को मजदूरी पर रखने को संज्ञेय अपराध बना दिया है और इसके अंतर्गत तीन साल की कैद और पचास हजार रुपए तक का जुर्माना हो सकता है। संशोधन के बाद हम कह सकेंगे कि अब हमारे पास बाल मजदूरी के खिलाफ ज्यादा सख्त और कारगर कानून है। लेकिन हम सभी जानते हैं कि कानून होना एक बात है और उसका क्रियान्वयन दूसरी बात। माना कि बाल मजदूरी के खिलाफ पुराने कानून में कुछ खामियां थीं, पर ज्यादा समस्या उसे लागू करने में नजर आती है।


यह कानून 1986 से लागू हुआ था और पिछले लगभग पचीस सालों में पूरे देश में इसके अंतर्गत चालीस हजार केस दर्ज किए गए। इनमें से मात्र 4700 को सजा हो सकी और उसमें भी अधिकतर सजाएं सौ या दो सौ रुपए के मामूली जुर्माने की थीं। बाल मजदूरी के सरकारी गैर-सरकारी आंकड़े लाखों-करोडंÞों में हैं और उसके मुकाबले में कानून तोड़ने वालों को मिलने वाली सजा न के बराबर रही है। कानून के क्रियान्वयन का यही हाल रहा तो नया कानून भी बस किताबों में रह जाएगा।

कानून के पालन के लिए कानून को लागू करने वाली संस्थाओं को सशक्त करना, उनका क्षमतावर्धन और उन्मुखीकरण बहुत जरूरी है। उदाहरण के तौर पर, दिल्ली जैसे बड़े शहर में मात्र बाईस लेबर इंस्पेक्टर हैं जिन पर बाल मजदूरी के साथ-साथ श्रम से संबंधित सात अन्य कानूनों के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी है।
अगर ऐसी ही स्थिति रही तो नए कानून के बाद भी हालात में शायद ही कोई बदलाव आ पाए। श्रम विभाग के साथ-साथ पुलिस का उन्मुखीकरण और उन्हें संवेदनशील बनाना भी जरूरी है ताकि बच्चों को बालश्रम से छूटने के बाद थानों और न्यायालयों में फिर से परेशान न होना पड़े। अक्सर बाल मजदूरों को मुक्त कराने के अभियान कुछ इस तरह चलाए जाते हैं कि आरोपी, बच्चों से काम कराने वाले न होकर, खुद बच्चे ही हों।


समेकित बाल संरक्षण कार्यक्रम के अंतर्गत हर जिले में बाल सुरक्षा समितियां और हर थाने में किशोर कल्याण पदाधिकारी की नियुक्ति अनिवार्य है, पर देश के अधिकतर जिलों और थानों में या तो ये समितियां बनी ही नहीं हैं, या उनका अस्तित्व कागजों तक सीमित है। जिला स्तर पर बाल कल्याण समितियों और राज्य स्तर पर बाल संरक्षण आयोगों की भी इस कानून को लागू करने और बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निर्धारित की गई है। पर देश के कई जिलों और राज्यों में ये संस्थाएं गठित ही नहीं हो पाई हैं। आज भी देश के चौदह राज्यों में बाल सुरक्षा आयोग का गठन नहीं हुआ है और लगभग ढाई सौ जिलों में बाल कल्याण समिति गठित नहीं हो पाई है। बहुत-से जिलों में बाल कल्याण समितियां ओर जेजे बोर्ड केवल कागजों पर हैं ओर ऐसे लोगों से भरे पड़े है जिन्हें बाल अधिकारों से कोई वास्ता नहीं है।


हाल ही में मिर्जापुर के जेजे बोर्ड के अध्यक्ष के घर पर बाल मजदूर रखने और उसके यौन शोषण की घटना सामने आई। और यह घटना कोई अपवाद नहीं है। आए दिन सरकारी मुलाजिमों और पढ़े-लिखे तबके के लोगों के यहां बाल मजदूरी कराए जाने और ऐसे बच्चों के साथ होने वाले दुराचारों की घटनाएं सामने आती रहती हैं।


अगर बाल मजदूरी पर बने इस नए कानून को सही मायनों में लागू करना है तो बाल सुरक्षा के लिए बनी संवैधानिक संस्थाओं को कारगर ढंग से काम करना होगा। इस कानून को प्रभावी बनाने में दूसरी बड़ी चुनौती समस्या के आकार को ठीक-ठीक जानने की है अर्थात यह पता लगाने की है कि आखिर बाल मजदूरों की संख्या कितनी है। जब तक समस्या के आकार का पता नहीं होगा, उसके हल के लिए योजना बनाना संभव नहीं है। 2001 की जनगणना के अनुसार, बाल मजदूरों की संख्या 12 करोड़ 60 लाख (केवल प्रतिबंधित व्यवसायों में) थी जो 2011 की जनगणना में भी लगभग उतनी ही है। यह किसी से छिपा नहीं है कि लाखों ऐसे बच्चे हैं जिनका नाम स्कूल में दर्ज है (और वे बाल श्रमिकों की गणना में नहीं आते), पर वे स्कूल न जाकर विभिन्न किस्म के व्यवसायों में मजदूर के तौर पर लगे हैं। कृषि क्षेत्र में बड़ी संख्या में बच्चे लगे हैं, पर उनकी कोई गिनती नहीं है।


सरकारी आंकड़ों को गैर-सरकारी आंकड़े लगातार चुनौती देते रहते हैं और उनके हिसाब से बाल मजदूरों की संख्या तीन करोड़ से छह करोड़ तक है। यह जरूरी है कि सरकार बाल मजदूरों की संख्या का सही-सही पता लगाए और उसके अनुसार योजना बनाए। बाल श्रमिक पुनर्वास के लिए एनसीएलपी जैसे कुछ आधे-अधूरे कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, वह भी बहुत छोटे स्तर पर। अगर सरकारी आंकड़ों को ही मानें तो भी बाल मजदूरों की संख्या एक करोड़ बीस लाख है, जबकि पुनर्वास के लिए चल रहा कार्यक्रम मात्र छह लाख बच्चों के लिए है। जाहिर है, इस तरह के कार्यक्रमों के बूते इस समस्या को दूर नहीं किया जा सकता।


बाल श्रम को जड़ से दूर करने के लिए जरूरी है कि बाल श्रमिक के पुनर्वास के लिए पर्याप्त कार्यक्रम हो और ऐसे हर बच्चे के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराए जाएं ताकि उसे बाल मजदूर बनने से रोका जा सके। साथ ही परिवार के बड़े सदस्यों के लिए उचित मजदूरी वाले रोजगार उपलब्ध हों जिससे वे अपने परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी निभा सकें और घर-खर्च चलाने के लिए बच्चों की मजदूरी पर निर्भर न रहें।


इसके लिए जरूरी है कि एक तरफ तो कानून को लागू करने के लिए आवश्यक आधारभूत ढांचा उपलब्ध हो और दूसरी तरफ शिक्षा और रोजगार के पर्याप्त अवसर मौजूद हों। इन दोनों के लिए जरूरी है कि सरकार बजट में पर्याप्त प्रावधान करे। कानून में बदलाव की तरफ कदम बढ़ा कर सरकार ने बाल मजदूरी को खत्म करने की मंशा तो दिखाई है, पर अब यह भी जरूरी है कि सरकार इस कानून को लागू करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाए और बच्चों के प्रति अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी को पूरा करे।