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क्या झारखंड के आदिवासियों को खनन रोकने का अधिकार दे दें ?

तवलीन सिंह जानी-मानी पत्रकार हैं. वे समय-समय पर राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक विषयों पर लगातार विभिन्न अखबारों में कॉलम लिखती हैं. हाल ही में उड़ीसा के नियमगिरि में बॉक्साईट खनन को लेकर लंबे समय से चल रहे सघर्ष के बाद जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया है कि ग्राम सभा से बिना पूछे विकास कार्य के लिए जमीन नहीं ली जा सकती को एक ओर जहां लोकतंत्र के विजय के रूप में देखा जा रहा है, वहीं तवलीन सिंह सवाल उठाती हैं कि आखिर अर्धशिक्षित आदिवासियों को यह अधिकार कैसे दिया जा सकता है कि वे देश की खनिज संपदा को अपना बताते हुए खनन में अड़चन पैदा करें. प्रस्तुत है तवलीन सिंह द्वारा इंडियन एक्सप्रेस में लिखे गये आलेख का सतोष कुमार सिह द्वारा अनुवादित व संपादित अंश:

पिछले सप्ताह भारतीय औद्योगिक घरानों के बड़े पूंजीपतियों से मुलाकात हुई. इसमें कई तरह के लोग शामिल हुए, यहां तक कि वे लोग भी शामिल हुए जिन्होंने समाजवादी दौर में भी लाइसेंस राज को मैनिपुलेट करने की तरकीबें सीखकर पैसा बनाया. ये वही लोग हैं जो प्रत्येक वर्ष डावोस जाते हैं और खुले बाजार और अर्थव्यवस्था के पक्ष में अपनी राय रखते हैं, लेकिन वे चुपचाप सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा लिये गये उन नीतिगत निर्णयों के साथ खड़े रहें है जिनकी वजह से निवेशक भाग रहे हैं और लाइसेंस राज की वापसी हो रही है. उन्हें पता है कि जो हुआ वह गलत था, लेकिन या तो डरपोक बनकर या सावधानी बरतते हुए चुप्पी साधे रहे.

बैठक के बाद पहले की ही भांति फोटो सेशन में शामिल हुए, लेकिन मुङो यह देखकर आश्चर्य हुआ कि आखिर प्रधानमंत्री ने इनके बदले दलित एंटरप्रेन्योर से मुलाकात क्यों नहीं की. आखिर में उन्होनें दलित इंडियन चैंबर ऑफ कामर्स एंड इंडस्ट्री के सदस्यों को आमंत्रित किया और उनसे पूछा कि वे आर्थिक विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए क्या कदम उठा रहे हैं? अगर आर्थिक सुधार नहीं हुआ होता तो दलित इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स और इंडस्ट्री(डिक्की) का गठन न हुआ होता, यही कारण है कि खुली अर्थव्यवस्था और उदारीकृत अर्थव्यवस्था के सबसे बड़े सर्मथक दलित इंटरप्रेन्योर हैं.

कई बार यह कहा जाता है कि आर्थिक सुधार की प्रक्रिया ने दलित और आदिवासी समाज को विकास की प्रक्रिया से दूर कर दिया है, और यह भी कहा जाता है कि इसका लाभ इस समाज को नहीं मिला है, लेकिन  एक निजी चैनल को दिये गये इंटरव्यू मे खुद डिक्की के संस्थापक मिलिंद कांबले और इसके मेंटर चंद्रभान प्रसाद के वक्तव्यों से यह स्पस्ट है कि उनका यह तर्क सही नहीं है. चंद्रभान प्रसाद के एक वक्तवय को देखें तो उसमें कहा गया है कि ‘अब हम लोग देख रहे हैं कि आर्थिक प्रक्रियाएं चल रही हैं, इस पूंजीवाद ने जातिवाद की व्यवस्था को इतनी तेजी से बदला है कि कोई और व्यक्ति इसे इतनी तेजी से नहीं बदल सकता. इसलिए पूंजीवाद और जाति के बीच एक संघर्ष चल रहा है और दलितों को पूंजीवाद का उपयोग जाति के विरुद्ध संघर्ष में योद्धा के रूप में किया जाना चाहिए.’ इससे स्पष्ट है कि जो भी लोग यह कहते हैं कि आर्थिक सुधार की प्रक्रिया समावेशी नहीं है और भारत के गरीब नागरिकों से ज्यादा किसी भी व्यक्ति को आर्थिक सुधार की प्रक्रिया की जरूरत नहीं हो सकती.

अगर किसी व्यक्ति ने अपना दिमाग इस तरह से बना ही लिया है कि आम भारतीयों को आर्थिक सुधारों के नाम पर बेच लेना है तो ऐसा करना बहुत ही आसान होता. हाईवे के जरिए जो आर्थिक सुधार आया इसका विश्लेषण किसी के लिए भी करना आसान है. अधिकारियों को व्यावसायिक गतिविधियों से दूर रखने की बात को इस लिहाज से सही ठहराया जा सकता है कि क्योकि वे जनसेवाओं की गुणवत्ता को सुधारने के लिए काम करेंगे. इस तथ्य को भी सामने रखना आसान है कि आखिर कोयला और उर्जा क्षेत्र को निजी कंपनियों को देने के प्रयास क्यों किये गये. ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि इन क्षेत्रों को अधिकारियों ने इतने बुरे तरीके से संचालित किया कि देश की संसाधनों को आपराधिक तरीके से बर्बाद किया गया.


नियामगिरी के फैसले से ऐसी स्थिति बन गयी है कि जिसके तहत अर्धशिक्षित आदिवासियों को इस बात की अनुमति दे दी गयी है कि वे जहां रहते हैं और उस इलाके के बॉक्साईट भंडार जिन पर उनका अधिकार नहीं है, लेकिन वे इस आधार पर यह दावा कर सकते हैं कि उनका ऐसा विश्वास है  कि नियामगिरी पर्वत उनका भगवान है. कई लोग इसे लोकतंत्र की जीत का नाम दे रहे हैं, लेकिन इस तथ्य पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है कि किस तरह का प्रिसिडेंट अब स्थापित कर दिया गया है.  नियमगिरि में लंबे समय से कुछ लोग रेफरेनडम कराकर माइनिंग बंद करने की मांग कर रहे हैं.

इसके बिना पर आगे चलकर बिहार और झारखंड के आदिवासी यह कहते हुए कोयले के खनन गतिविधियों को रोक सकते हैं. ठीक इसी तरह से गैस और तेल जैसे प्राकृतिक साधनों को जमीन के अंदर या समुद्र के अंदर बनाये रखा जा सकता है वो भी यह कहते हुए कोई अर्धशिक्षित ग्रामीण यह निर्णय दे रहा है कि खनन से उनके भगवान का अपमान होता है. तब क्या होगा? वैसी स्थिति में क्या होगा जब हमारे पास चीज खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार नहीं होगा, और जिसके बिना पर कोई भी अर्थव्यवस्था चाहे वह वामपंथी प्रकार की ही क्यों न हो संचालित नहीं की जा सकती? आखिर हमलोग इतने उधेड़बुन में क्यों हैं? लंबे विमर्श के बाद मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंची हूं कि स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने दशक बीत जाने के बाद भी हमारे राजनीतिक नेता यह नहीं समझ पायें हैं कि नेतृत्व का मतलब क्या होता है. हालांकि ऐसी स्थिति के लिए डॉ मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी को तो निश्चित रूप से ब्लेम किया ही जा सकता है, लेकिन दिल्ली की सत्ता के कॉरीडोर में आने वाले सभी नेता इसके लिए दोषी हैं.