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'क्या नोटबंदी ने एक नए भ्रष्टाचार को जन्म दिया?'--- क़मर वहीद नक़वी

नोटबंदी में देश क़तारबंद है. आज एक महीना हो गया. बैंकों और एटीएम के सामने क़तारें बदस्तूर हैं. जहाँ लाइन न दिखे, समझ लीजिए कि वहाँ नक़दी नहीं है!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि बस पचास दिन की तकलीफ़ है. तीस दिन तो निकल गए. बीस दिन बाद क्या हालात पहले की तरह सामान्य हो जायेंगे? क्या लाइनें ख़त्म हो जाएंगी?

और क्या 30 दिसंबर के बाद जवाब मिल जाएगा कि नोटबंदी से क्या हासिल हुआ? नहीं, ऐसा नहीं होगा. अब तो सरकार ही संकेत दे चुकी है कि एक-दो तिमाही या उससे भी आगे तक कुछ परेशानी बनी रह सकती है. उसके बाद ही हमें पता चल पाएगा कि नोटबंदी से फ़ायदा हुआ या नुक़सान? और हुआ तो कितना?

वैसे तो कहा जा रहा है कि इसका फ़ायदा लंबे समय बाद दिखेगा. कितने लंबे समय बाद? और क्या फ़ायदा दिखेगा? तरह-तरह के क़यास हैं. सच यह है कि अभी किसी को कुछ नहीं मालूम.

नोटबंदी क्यों हुई थी? प्रधानमंत्री के आठ नवम्बर के भाषण को याद कीजिए. उन्होंने चार बातें कहीं थीं- इससे भ्रष्टाचार मिटेगा, काला धन ख़त्म होगा, फ़र्ज़ी करेंसी ख़त्म होगी और चरमपंथ को मदद बंद हो जाएगी. और यह कहा था कि करेंसी में बड़े मूल्य के नोटों का हिस्सा अब एक सीमा के भीतर रहे, रिज़र्व बैंक यह देखेगा.

बड़े नोटों को क्यों एक सीमा के भीतर रखे जाने की बात कही गई? प्रधानमंत्री का कहना था कि 'कैश के अत्यधिक सर्कुलेशन का सीधा संबंध भ्रष्टाचार से है' और ऐसे भ्रष्टाचार से कमाई गई नक़दी से महंगाई बढ़ती है, मकान, ज़मीन, उच्च शिक्षा की क़ीमतों में कृत्रिम बढ़ोत्तरी होती है.

यानी नोटबंदी के पीछे की सोच यह थी. सवाल यही है कि यह हाइपोथीसिस सही है या ग़लत? अगर सही है तो नोटबंदी का फ़ैसला सही है, अगर हाइपोथीसिस ग़लत है, तो नोटबंदी का फ़ैसला ग़लत है.

एक महीने बाद कुछ बातें अब साफ़ हो चुकी हैं. एक, जैसा शुरू में सोचा गया था कि क़रीब ढाई-तीन लाख करोड़ रुपये की 'काली नक़दी' बैंकों में नहीं लौटेगी, वह ग़लत था.

अब ख़ुद सरकार का अनुमान है कि क़रीब-क़रीब सारी रद्द की गई करेंसी बैंकों में वापस जमा हो जाएगी. दो, विकास दर पर इसका विपरीत असर पड़ेगा, यह कोई विपक्षी तुक्का नहीं है. रिज़र्व बैंक ने मान लिया है कि विकास दर 7.6% से घटकर 7.1% ही रह सकती है.

'डिजिटल लेनदेन तो बढ़ा'

तीसरी बात यह कि एटीएम और बैंकों से पैसा पाने की लाइनें शायद अभी कुछ ज़्यादा दिनों तक देखने को मिलें. कितने दिन, कह नहीं सकते. क्योंकि एक तो नयी करेंसी छपने में जो समय लगना है, वह तो लगेगा ही, लेकिन सरकार की हाइपोथीसिस है कि ज़्यादा करेंसी से भ्रष्टाचार और महँगाई बढ़ती है, इसलिए वह 'लेस-कैश' इकॉनॉमी की तरफ़ बढ़ना चाहती है, यानी बाज़ार में नक़दी जानबूझकर कम ही डाली जायेगी.

जितनी पुरानी करेंसी थी, उतनी तो नयी करेंसी नहीं ही आयेगी, ताकि लोग डिजिटल लेनदेन के लिए मजबूर हों.

इसमें कोई शक़ नहीं कि लोग मजबूर तो हुए हैं. हम भी अख़बारों में तस्वीर देख रहे हैं कि किसी सब्ज़ीवाले ने या मछली बेचनेवाली ने पेटीएम से लेनदेन शुरू कर दिया है. तो डिजिटल लेनदेन बेशक बढ़ा है.

लेकिन इस सच का एक दूसरा पहलू भी है. वह चौंकानेवाला है.

आठ नवंबर के बाद से डेबिट-क्रेडिट कार्ड से होनेवाले लेनदेन की संख्या बढ़ कर दोगुनी हो गई, लेकिन प्रति डेबिट कार्ड ख़र्च का औसत 27 सौ रुपये से घट कर दो हज़ार रुपये ही रह गया. क्रेडिट कार्ड के मामले में यह गिरावट 25-30% तक है. क्यों? इसलिए कि लोग आटा-दाल-दवा जैसे ज़रूरी ख़र्चों के लिए कार्ड इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन शौक़िया ख़र्चे फ़िलहाल रोक रहे हैं.

यह समझने की बात है. जो करेंसी निकाल रहा है, वह ख़र्च नहीं कर रहा है, इस डर से कि लाइन में लगना पड़ेगा. तो यह ख़र्च न करना कहीं उसके मन में गहरे तक बैठ गया है. इसलिए वह कार्ड से भी 'ग़ैर-ज़रूरी' ख़र्च नहीं कर रहा है. इसीलिए 'डिजिटल इकॉनॉमी' की रीढ़ कहे जानेवाले मोबाइल फ़ोन तक की ख़रीद में इस महीने भारी गिरावट देखी गई है!

यह 'कम ख़र्ची' का सिन्ड्रोम कितने दिन रहेगा, कह नहीं सकते. उधर भारत की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र का है, जो नक़दी पर ही चलता है.

इसमें करोड़ों मज़दूर हैं, रेहड़ी-पटरीवाले, छोटे दुकानदार और कारख़ानेदार, किसान और छोटी-मोटी सेवाएँ देनेवाले तमाम लोग हैं.

उनकी कमाई पर असर अब साफ़-साफ़ दिख रहा है. अब उनको बैंकिंग से जोड़ने की बात हो रही है. लेकिन वह इतना आसान है क्या?

विश्व बैंक के अनुमानों के अनुसार भारत में 43% खाते 'डारमेंट' हैं यानी इस्तेमाल में नहीं हैं. तो इतने सारे लोगों को बैंकिंग से जोड़ना, उन्हें बैंकिंग लेनदेन और डिजिटल इकॉनॉमी का अभ्यस्त बनाना एक बड़ा लंबा काम है, जिसमें बड़ा समय लगेगा.

तो लोग जब तक सामान्य तौर पर ख़र्च करना नहीं शुरू करेंगे, असंगठित क्षेत्र में जब तक कामकाज पटरी पर नहीं लौटेगा, तब तक अर्थव्यवस्था पर दबाव बना रहेगा. यह कितने दिन रहेगा, अभी कोई नहीं कह सकता.

अब काले धन की निकासी की बात. पहली बात तो नोटबंदी से काला धन ख़त्म होगा, यह एक भ्रामक जुमला है.

काला धन नहीं, सिर्फ़ काली नक़दी ख़त्म हो सकती है. काले धन का तो चुटकी भर हिस्सा ही नोटों में रहता है. बाक़ी सारा काला धन तो ज़मीन-जायदाद, सोने-चाँदी, हीरे-मोती और न जाने किस-किस रूप में रहता है.

अब तो सारी पुरानी नक़दी बैंकों में लौटने का अनुमान है. यानी सारी काली नक़दी बैंक में वापस पहुँचेगी. तो सरकार काला धन कैसे पकड़ेगी? इतनी बड़ी क़वायद के बाद उसे कुछ काला धन तो पकड़ना ही है, वरना बड़ी भद पिटेगी.

इसलिए इनकम टैक्स विभाग ने एक बड़ा डेटा एनालिटिक्स साफ़्टवेयर तैयार किया है, जो बैंकों में जमा की गयी हर संदिग्ध रक़म को पकड़ेगा, फिर लोगों को नोटिस भेजे जाएंगे, फिर पेशी और आप जानते हैं कि उसके बाद क्या होता है.

नोटबंदी के बाद काले को सफ़ेद करने के लिए कैसा भ्रष्ट जुगाड़ तंत्र तैयार हुआ, कैसे कुछ बैंकों में कुछ 'ख़ास' लोगों को नोट बदले गए, कैसे कुछ लोगों तक लाखों-करोड़ों के दो हज़ार के नए नोट पहुँच गए. यह सब हमारे सामने है. यानी नोटबंदी ने एक नए भ्रष्टाचार को जन्म दिया और नए नोटों का काला धन रातोंरात पैदा कर दिया. तो इससे भ्रष्टाचार और काला धन कैसे रुकेगा?

दूसरे यह भी चीज़ों का अति सरलीकरण है कि 'कैशलेस लेनदेन' के बाद न टैक्स चोरी हो सकती है, न घूसख़ोरी. स्वीडन में तो सिर्फ़ दो प्रतिशत ही नक़द लेनदेन होता है. लेकिन टैक्स चोरों को पकड़ने के लिए वहाँ भी सरकार जूझती ही रहती है. इसी तरह से भ्रष्टाचार की बात. बड़ी-बड़ी घूस तो आजकल कंपनियाँ बना कर ही ली जा रही है, बाक़ायदा चेक से.

एक महीने बाद लगता है कि यात्रा अभी लंबी है और मुश्किल भी. उधर, प्रधानमंत्री ने मुरादाबाद में 'फ़क़ीर' वाली बात क्यों बोली? उसके पहले तो उन्होंने दावा किया था कि जनता उनके इस क़दम के भारी समर्थन में है. फिर वह डोरा-डंडा छोड़ कर चले जाने की बात से किस तक पहुँचाना चाहते थे?

मोदी जी क्यों दुःखी हैं? आलोचनाओं से? उसकी उन्होंने कब परवाह की है. क्या उन्हें शंका है कि उनका जुआ कहीं उलटा न पड़ जाये? वह तो भविष्य के गर्भ में हैं. फिर क्या वह विपक्ष के हमले से दुःखी हैं? हाँ, संघ से जुड़े कई पत्रकार नोटबंदी के ख़िलाफ़ ख़ूब लिख रहे हैं. और 'परिवार' में रहस्यमयी चुप्पी है. क्या 'फ़क़ीर' का तीर उसी लिए था?

(ये लेखक के निजी विचार हैं)