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क्या यही है पंचायती राज- पीयूष द्विवेदी

कई राज्यों में पंचायत चुनाव चल रहे हैं। कुछ राज्यों में हो चुके हैं तो कुछ में अभी उनकी प्रक्रिया चल रही है। पंचायत चुनाव के इस माहौल में अगर देश के गांवों में जाकर वहां का हाल जानने की कोशिश करें तो हर चौक-चौराहे पर इन चुनावों को लेकर चर्चा मिलेगी। हर सीट को लेकर गुणा-भाग करते ग्रामीण जन मिलेंगे। सीटों के सामान्य या आरक्षित रहने के विषय में कौतूहल है और प्रत्येक स्थिति के लिए न केवल संभावित प्रत्याशियों, बल्कि ग्रामीण मतदाताओं के पास भी अपनी एक योजना है कि किसके पाले में रहना है और किसे जिताना है।

मगर विडंबना है कि यह योजनाबद्धता स्थानीय मुद्दों या ग्रामीण समस्याओं के आधार पर कतई नहीं है। इसका आधार जाति और लोगों के अपने-अपने व्यक्तिगत स्वार्थ हैं। हर किसी का गणित है कि किस प्रत्याशी को जिताने पर उसे क्या और कितना लाभ मिल सकता है। अगर किसी पंचायत में एक ही जाति के दो-तीन लोग चुनाव में उतर गए, तो वहां व्यक्तिगत हितों के आधार पर मतदाताओं के कई खेमे बन जाते हैं, जैसे फलां प्रत्याशी से फलां व्यक्ति के संबंध अच्छे हैं तो परिवार समेत उसका वोट उसी प्रत्याशी को जाएगा। अब कौन कैसा है, किस छवि का है और उसका क्या एजेंडा है आदि बातें गौण हैं।

इसके अलावा धनबल इन चुनावों में भी सर्वोपरि हो गया है। पहले सामान्य तरीके से प्रचार करके प्रत्याशी मतदाता को अपने पक्ष में करने की कोशिश करता था, पर अब पंचायत चुनावों को भी लोकसभा और विधानसभाओं की चुनाव शैली की हवा लग गई है। पंचायत चुनावों पर काफी पैसा बहाया जाने लगा है। हर प्रत्याशी की पहचान किसी न किसी पार्टी से जुड़ गई है। पहले ऐसा नहीं था। आमतौर पर लोग उसी प्रत्याशी को विजयी बनाते थे, जो गांव के लिए कुछ कर सकने लायक था। हालांकि उसमें दबंगई भी काफी हद तक नजर आती थी, पर अब मामला काफी हद तक बदल चुका है।

धनबल का आलम यह है कि जो व्यक्ति अरसे से गांव में रहा तक न हो और जिसे गांव की समस्याओं-पीड़ाओं आदि का कोई अता-पता भी न हो, वह भी अगर पैसा खर्च करे तो बड़े आराम से चुनाव से चार दिन पहले गांव आकर एक सशक्त प्रत्याशी बन सकता है। वह पैसा बहा कर लोगों का मन बदलने में कामयाब होता है, फिर जाति का समीकरण बना कर चुनाव जीत भी जाता है। कुल मिला कर कहने का अर्थ यह है कि पंचायत चुनाव भी समस्याओं से इतर जातिगत समीकरणों और धनबल के चक्रव्यूह में उलझा हुआ है।

एक समस्या प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व की भी है। मसलन, महिला प्रतिनिधित्व के उद्देश्य से जहां ग्राम प्रधान की सीट महिला के लिए आरक्षित है, वहां महिला उम्मीदवारी महज प्रतीकात्मकता बन कर रह गई है। पत्नी के नाम से पर्चा दाखिला हुआ, लेकिन चुनाव से लेकर जीतने के बाद काम-काज तक सब पति को ही देखना है। और दुखद तो यह है कि इस स्थिति को ग्रामीण लोग बड़े सहज भाव से स्वीकार भी किए हुए हैं।

ऐसे मामलों में अक्सर वही लोग अपनी पत्नियों को उम्मीदवार बना कर चुनाव जिताने में सफल होते हैं, जिनका गांव में दबदबा है, जो खूब पैसे खर्च करने की क्षमता रखते हैं। अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि अपनी पत्नियों को चुनाव जिता कर ये लोग खुद पंचायतों के कामकाज संचालित करते हैं। इसका मुख्य कारण यही है कि आज आजादी के साढ़े छह दशक से ऊपर का समय बीत जाने के बाद भी ग्रामीण समाज में पंचायती राज के प्रति जागरूकता का संपूर्ण विकास नहीं हो पाया है। ग्रामीण लोग आज भी इसकी आवश्यकता और महत्त्व दोनों से अनभिज्ञ हैं।

इसी संदर्भ में अगर पंचायती राज व्यवस्था के इतिहास पर दृष्टि डालते हुए इसे समझने का प्रयास करें तो भारत में प्राचीन काल से ही पंचायती राज व्यवस्था अस्तित्व में रही है। भले विभिन्न कालों में इसके नाम अलग रहे हों। पंचायती राज व्यवस्था को कमोबेश मुगल काल और ब्रिटिश काल में भी जारी रखा गया। ब्रिटिश शासकों ने स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं की स्थिति पर जांच करने और उसके संबंध में सिफारिश करने के लिए 1882 और 1907 में शाही आयोग का गठन किया। इस आयोग ने स्वायत्त संस्थाओं के विकास पर बल दिया, जिसके कारण 1920 में संयुक्त प्रांत, असम, बंगाल, बिहार, मद्रास और पंजाब में पंचायतों की स्थापना के लिए कानून बनाए गए।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संवैधानिक रूप से यह व्यवस्था महात्मा गांधी की इच्छा के कारण लागू हुई। उनका मानना था कि ‘‘आजादी नीचे से शुरू होनी चाहिए। सच्चे प्रजातंत्र में नीचे से नीचे और ऊंचे से ऊंचे आदमी को समान अवसर मिलने चाहिए। इसलिए सच्ची लोकशाही केंद्र में बैठे हुए दस-बीस आदमी नहीं चला सकते, वह तो नीचे से हरेक गांव के लोगों द्वारा चलाई जानी चाहिए।'' गांधीजी की इसी अवधारणा को फलीभूत करने के उद्देश्य से आजादी के बाद संविधान में पंचायती राज की व्यवस्था करते हुए अनुच्छेद-40 में राज्यों को यह निर्देश दिया गया कि वे अपने यहां पंचायती राज का गठन करें।

गांधीजी की इच्छा की पूर्ति के नैतिक दबाव के कारण तत्कालीन सरकार द्वारा पंचायती राज की दिशा में गंभीरता दिखाते हुए 2 अक्तूबर, 1952 को सामुदायिक विकास कार्यक्रम आरंभ किया गया, जिसके तहत सरकारी कर्मियों के साथ सामान्य लोगों को भी गांव की प्रगति में भागीदार बनाने की व्यवस्था की गई। लेकिन इस व्यवस्था में लोग सिर्फ अपनी बात कह सकते थे, उसके लागू होने या करवाने के संबंध में उनके पास कोई विशेष अधिकार नहीं था, लिहाजा यह व्यवस्था शीघ्र ही विफल सिद्ध हो गई।

कुछ यही हश्र 1953 में आरंभ में राष्ट्रीय प्रसार सेवा का भी हुआ। इन नीतियों के विफल होने के बाद पंचायती राज व्यवस्था को सशक्त करने के लिए सुझाव देने के लिए 1957 में बलवंत राय मेहता समिति का गठन किया गया। समिति ने ग्राम समूहों के लिए प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली के तहत निर्वाचित पंचायतों, खंड स्तर पर निर्वाचित और नामित सदस्यों वाली पंचायत समितियों और जिला स्तर पर जिला परिषद् गठित करने का सुझाव दिया। इसके बाद अशोक मेहता समिति, डॉ राव समिति, डॉ एलएम सिंघवी समिति, थूंगन समिति आदि का समय-समय पर गठन किया गया और इनके द्वारा दिए गए सुझावों पर कमोबेश अमल भी हुआ।

आगे इस संबंध में संविधान संशोधन भी किए गए, जिनमें 1993 में लागू हुआ तिहत्तरवां संविधान संशोधन बेहद महत्त्वपूर्ण रहा। इसके तहत त्रिस्तरीय पंचायती राज की व्यवस्था की गई। त्रिस्तरीय पंचायती राज, जिसमें सबसे निचले स्तर पर ग्राम पंचायत, मध्यवर्ती स्थिति में खंड स्तरीय क्षेत्र पंचायत और सबसे ऊपर जिला पंचायत के गठन का प्रावधान किया गया। हालांकि जिन राज्यों की आबादी बीस लाख से कम है, वहां यह मॉडल द्विस्तरीय हो जाता है। इसके अलावा संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची में पंचायतों के लिए अधिकार और कार्य क्षेत्र भी सुनिश्चित किए गए हैं।

इन कार्य क्षेत्रों में कृषि विस्तार, पेय जल, सड़क-पुलिया और संचार के अन्य माध्यमों का विकास, शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, समाज कल्याण, गरीबी निवारण कार्यक्रमों का निर्माण और संचालन, लोक वितरण प्रणाली, नवीन ऊर्जा स्रोतों का विकास, सांस्कृतिक क्रिया-कलापों का निर्वाह आदि कुछ प्रमुख कार्य क्षेत्र हैं। कुल मिलाकर ऐसे उनतीस कार्य क्षेत्र हैं, जिन्हें पंचायतों के लिए चिह्नित किया गया है।

इन कार्यक्षेत्रों के अनुसार ही पंचायतों को अधिकार भी प्राप्त हैं। सरकार की तरफ से आर्थिक मदद भी प्राप्त होती है। लेकिन समस्या वही है, ग्रामीण लोगों में जागरूकता का अभाव। नतीजतन, सरकार की तरफ से आया धन पंचायत के लिए चिह्नित कार्यों में लगने की बजाय ग्राम प्रधान और उसके निकटवर्ती लोगों के बीच बंदरबांट करके समाप्त कर दिया जाता है। मनरेगा जैसी योजनाओं का भ्रष्टाचार इसका सबसे सशक्त उदाहरण है। चंूकि पंचायतों में विकास कार्यों के मद में पैसा सीधे मिलता है और उसे खर्च करने का अधिकार सरपंच को होता है, पंचायतों में भ्रष्टाचार को काफी बढ़ावा मिला है। यही वजह है कि पंचायत चुनावों में धनबल और बाहुबल का बोलबाला बढ़ा है। हालांकि इस बंदरबाट को तमाम लोग समझते भी हैं, मगर आवाज कोई नहीं उठाता।

इन्हीं दिक्कतों के मद्देनजर भारत सरकार ने पंचायतों के डिजिटलीकरण की बात की है। इस मामले में कुछेक कदम भी उठाए गए हैं, लेकिन यह अभी बहुत दूर की कौड़ी है। डिजिटलीकरण जब होगा तब होगा, फिलहाल आवश्यकता यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को जागरूक करने की तरफ ध्यान दिया जाए। जागरूकता आने पर लोग पंचायत के कार्यों को समझेंगे और प्रधान पर उनके लिए दबाव बना सकेंगे और उसके आनाकानी करने पर ऊपर तक अपील भी कर सकेंगे। मत की ताकत समझ जाने पर वे जाति और व्यक्तिगत हितों से ऊपर उठ कर मतदान करने की तरफ भी अग्रसर होंगे।

इसके अलावा पंचायत चुनाव प्रणाली में सुधार की भी दरकार है। खासकर चुनाव खर्च की एक सीमा तय की जाए और उसका कड़ाई से अनुपालन कराया जाए। जातीय समीकरणों पर पंचायत चुनाव जीतने की रणनीति को भेदने के उपाय जुटाने भी जरूरी हैं। जातीय आधार पर गोलबंदी के चलते न सिर्फ ग्रामीण समाज में विद्वेष पनपता है, बल्कि पंचायतों के फैसले भी पक्षपाती होने लगते हैं। गांवों के समग्र विकास के बजाय खास जाति के लोगों को लाभ पहुंचाने की कोशिश होने लगती है। इन चीजों पर अगर ध्यान दिया जाए तभी हम निकट या दूर भविष्य में सत्ता को विकेंद्रीकृत करके आमजन तक पहुंचा सकते हैं, जो कि गांधी का अधूरा सपना है।