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क्या विरोध का ढंग बदल सकता है- गिरिराज किशोर

जनसत्ता 5 मार्च, 2013: इक्कीस-बाईस फरवरी का भारत-बंद लगभग सफल हुआ। उसके लिए श्रमिक संगठनों को बधाई। लेकिन इस महाबंद ने मन में कई सवाल उठा दिए। बंद होते रहते हैं। दो मुख्य तर्क इनके पीछे हैं। एक, मजदूरों या कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा, और दूसरा, अपने अधिकारों की शांतिपूर्ण और सामूहिक अभिव्यक्ति। दोनों बातें अपनी जगह सही हैं। मजदूर के अधिकार का संरक्षण होना जरूरी है। लेकिन असंगठित मजदूर का कितना लाभ हो पाता है, कहना आसान नहीं।
आंदोलनों के कारण ही मजदूरी में निरंतर वृद्धि होती गई। यह बात सही है कि महंगाई को देखते हुए वह वृद्धि पर्याप्त न हो। लेकिन मेरे बचपन में जब रुपए की क्रयशक्ति ज्यादा थी, दस रुपए प्रतिदिन मजदूरी मिलती थी। अब मनरेगा के अंतर्गत वह डेढ़ सौ रुपए प्रतिदिन हो गई है। असंगठित मजदूर वर्ग में भी सरकार की ओर से मजदूरी का मानकीकरण हो गया।
मनरेगा में भ्रष्टाचार के बावजूद, जहां ईमानदारी से काम दिया जा रहा है और जहां एक परिवार में पांच आदमी हैं, उनमें अगर तीन लोग भी एक समय में कमाते हैं तो डेढ़ सौ के हिसाब से वे प्रतिदिन इतना पैसा पा जाते हैं कि परिवार का पालन समुचित रूप से हो सकता है। वैसे भी इस तरह की कोई बंदिश नहीं कि एक परिवार के सब सदस्यों को एक साथ काम नहीं मिल सकता। अगर हो भी तो दो-दो तीन-तीन सदस्य बारी-बारी से काम कर सकते हैं। एक सामाजिक सच्चाई भी है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
पूंजीपतियों को छोड़ कर, जिनके पास काला-सफेद धन है, हर वर्ग के नौकरीपेशा के लिए महंगाई की मार बराबर है। यह बात अलग है कि कुछ नौकरशाहों के पास काले धन की सुविधा है, जिन्हें जमीर इजाजत देता है उन्हें चोट का अहसास न के बराबर होता है। जुबानी तौर पर वे महंगाई की दुहाई देकर अपनी छवि की मरम्मत करते रहते हैं।
इस बार महा-बंद में राष्ट्र-स्तर पर, अखबारों के अनुसार, दो दिन में छब्बीस हजार करोड़ रुपए की हानि हुई। नोएडा में भयानक हिंसा हुई जो हैदराबाद की त्रासदी से कम नहीं है। जब बाहरी लोग करते हैं तो आतंकवाद है, जब अपने स्वार्थों के लिए अपने ही लोगों के साथ यह सब होता है तो वह क्या है? कितनी ट्रेड यूनियनें उसके लिए शर्मिंदा होती हैं? क्या धर्म, स्वार्थ और कर्मकांड के लिए खूनखराबा करना हमारा अधिकार है? जो लोग मारे जाते हैं वे धनपति या राजनेता नहीं होते। तोड़ी गई गाड़ियां भी सामान्य मध्यवर्ग की होती हैं। पुलिस या सरकारी वाहन भी जनता की मेहनत से कमाए गए धन के होते हैं।
कई बार लगता है कि हम अपने अलावा बाकी सबको हवि समझते हैं। वह जन-धन आंदोलनों के नाम पर स्वाहा होता है। न परिवारों और न देश के काम आता है। एक के बाद एक होने वाले आंदोलनों में घटित होने वाले हादसे और जन-धन की हानि देश को सुरंग की तरह खोखला करती जाती है। दरिद्रता और गरीबी उन्हीं सुरंगों के सहारे घर-घर में अपना स्थायी आवास उसी तरह बना लेती है जैसे देश में होने वाले राजनीतिक घोटले और प्रशासनिक अपव्यय बनाते हैं।
स्वाभाविक है कि जब इसकी चिंता राजनीतिक, प्रशासनिक कैडरों और नेताओं को नहीं तो आखिरी पायदान पर जी रहे शोषित वर्ग से कैसे आशा कर सकते हैं। वह वर्ग तो मोहरे की तरह इस्तेमाल किया जाता है, कभी वोट के रूप में कभी झंडाबरदार के रूप में। क्या वे एक दूसरे पर दोषारोपण करके अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होते रह सकते हैं?  आज हम देश के ऐसे उच्छृंखल बच्चे हैं जिन्हें कुछ भी नष्ट करने में किसी तरह का हिजाब नहीं होता।
सरकार और प्रबंधनों की जिम्मेदारी है कि वे समय रहते अपने कर्मियों की आर्थिक समस्याओं का समाधान निकालते रहें, इस तरह की स्थिति से देश को बचाएं, हिंसा और अशांति की नौबत आने से रोकें। इसका एक ही तरीका है कि कर्मचारियों के प्रतिनिधियों और प्रशासन के बीच थोड़े अंतराल पर संवाद होता रहे।
हम देश को संसार की महान आर्थिक शक्ति बनाने का सपना देख रहे हैं। क्या इन घोटालों, आंदोलनों और स्वार्थों की खेती के चलते ऐसा संभव है? पिता अगर अपने आर्थिक संसाधनों की चिंता किए बिना अपने अखराजात बढ़ाता जाता है, जो हमारी सरकारें कर रही हैं, तो परिवार को नष्ट होने से कौन बचा सकता है! इसी तरह अगर संतति आर्थिक स्रोतों की पर्याप्तता या अपर्याप्तता का अंदाजा लगाए बिना अपनी मांगें बढ़ाती जाती है और पूरी न होने पर घर के संसाधनों और सदस्यों को हानि पहुंचाती है, तो क्या उस घर के बचने की कोई संभावना है?
घर के लोग घर के विकास के प्रति उदासीन बने रहे तो फिर सुविधाओं और संसाधनों की वद्धि कैसे होगी? ये सवाल देश पर भी यथावत लागू होते हैं। जब एक व्यसनी या अपव्ययी पिता को माफ नहीं किया जा सकता तो संसाधनों की पर्याप्तता की चिंता किए बिना सुख-सुविधाओं की वृद्धि की मांग और उसके लिए की जाने वाली हिंसा को कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है। मैंने अपने परिवार में देखा है, उसके लिए कठिनाइयां भी उठाई हैं। ज्यादातर जमींदार परिवार ऋणं कृत्वा घृतं पीबेत वाली परंपरा पर चलते थे। झूठी शान और व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं के लिए वे दो काम करते थे। जमीन-जायदाद, घर का सोना-चांदी आदि बेचना या कर्ज लेते जाना।
भारत भी यही सोच-सोच कर कर्ज लेता है कि हम संसार की मजबूत आर्थिक शक्ति हैं। साहूकार देश या विश्व बैंक आदि आर्थिक एजेंसियां भी इसलिए कर्ज देती हैं कि कि वे इतने बड़े देश को अपने दबाव में रख सकें। हमारी आंखें कर्ज में मिलने वाले धन पर उसी तरह टिकी रहती हैं जैसे जमींदारों के घरों के बच्चों की नजरें कर्ज में मिलने धन को देख कर फैल जाती थीं। काम करने की जगह कर्ज के बल पर वे अपनी सुख-सुविधाओं का नियोजन करते थे।
हमारे कामगार संगठनों या राजनीतिक नेताओं ने आजादी के बाद किसी भी पर स्तर पर कार्य-संस्कृति (वर्क कल्चर) विकसित नहीं की। अधिकार को तो महत्त्व दिया, कर्तव्य को दरकिनार करते गए। नतीजा हुआ कि उत्पादन में कमी आई और व्यय बढ़ता गया। देश की आर्थिक व्यवस्था के प्रति मजदूरों का भी नकारात्मक रुख बनता गया। वही आज भी है। सच पूछिए तो देश की आर्थिक व्यवस्था कमजोर होती गई, बल्कि होती जा रही है। वैश्वीकरण के वातावरण में हम दूसरे देशों की आर्थिक स्थिति सुधारने में अधिक सहयोग दे रहे हैं।
बड़ा बाजार होना हमारे लिए एक मुसीबत होता जा रहा है। हम विश्व के बड़े उपभोक्ता तो हो गए पर उत्पादक नहीं हो पाए। यूरोप, चीन और अन्य देशों के उत्पादों से हमारा बाजार पटा पड़ा है। हम उससे आधा भी, अपने उत्पाद दूसरों देशों को नहीं बेच पाते। जो बेचते हैं वे अधिकतर जमीन से पैदा होने वाले उत्पाद हैं, जैसे खनिज पदार्थ।
मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि हमारा किसान आज भी देश भर के लोगों का पेट पालता है और दूसरे देशों की जरूरत पूरी करने में भी आंशिक रूप से सहायक होता है। वह कभी हड़ताल पर नहीं जाता, अपने खेत में काम करना धर्म समझता है। उसके बावजूद सरकारें और नेता उसे दूसरे नंबर पर रखते हैं। समाज की इस उपेक्षा के कारण वह खेती से विमुख होता जा रहा है।
किसान कल-कारखानों से अधिक समर्पित है। कल-कारखानों को विदेशी कार्यपद्धति का अनुसरण करने की आदत है। वह खांटी देसी पद्धति का अनुसरण करके देश की सेवा करता है। पीएल-480 की शर्मनाक स्थिति से किसान ही देश को उबार कर वर्तमान स्थिति तक ला पाया। जबकि राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते कल-कारखाने बंद होते गए। उदाहरण के लिए, देश का मैनचेस्टर कहा जाने वाला कानपुर आज कपड़ा कारखानों की कब्रगाह है। यही नहीं, ये हड़तालें आम जनता के लिए मुसीबत बन जाती हैं। हिंसा तो होती ही है, क्योंकि त्याग की लड़ाई न होकर स्वार्थ और आत्महित की लड़ाई बन जाती है। इसके अलावा आम जनता की असुविधाएं इतनी बढ़ जाती हैं, लोगों का चलना-फिरना तक दूभर हो जाता है। उसका फायदा उठा कर पुलिस निर्दोषों को भी प्रताड़ित करती है।
आम लोगों और असंबद्ध मजदूरों को अपनी लड़ाई में समिधा की तरह इस्तेमाल करना कहां तक न्यायोचित है? संघर्ष के औपनिवेशिक और साम्यवादी उपकरणों में परिवर्तन करना जरूरी है। नकारात्मक तरीकों को छोड़ कर सकारात्मक तरीकों को अपनाना होगा, वरना देश विश्व की एक प्रमुख आर्थिक शक्ति की जगह निरर्थक शक्ति बन जाएगा।
उदाहारण के लिए, यूनियनों को अपने सदस्यों को सड़कों पर लाने की जगह संस्थाओं के परिसरों में ही रह कर सत्याग्रह करना चाहिए। अगर काम बंद करने के स्थान पर परिसर में रह कर उत्पादन बढ़ाएंगे तो मालिकान पर दबाव बढ़ेगा, उस माल को बेचने, बजार को संतुलित रखने की जिम्मेदारी उन पर ही आयद होगी। बाजार में कालाबाजारी की संभावना भी कम होगी। जनता का सहयोग भी मिलेगा। देश का आर्थिक आधार मजबूत होगा। सड़क पर आकर मजदूर जनता को बंधक बनाते हैं और शोषण के स्रोतों को साजिशों के लिए मुक्त छोड़ देते हैं।
परिसरीय विरोध में मालिक सचेत रहेगा और समय-समय पर संवाद द्वारा कामगारों की कठिनाइयों का समाधान निकालने के लए बाध्य होगा। इस तरह अनेक सकारात्मक उपाय समाधान के लिए निकाले जा सकते हैं। संघर्ष के वर्तमान ढंग से कामगारों को भी हानि उठानी पड़ती है। कानपुर के मजदूर इसके उदाहारण हैं। पूंजीपति फायदे में रहते हैं। वे अपनी इकाइयों को दूसरी जगहों पर स्थानांतरित करके, सरकार से अतिरिक्त मदद लेकर उसका विस्तार कर लेते हैं। मजदूरों के लिए यह आसान नहीं होता। उन्हें बदतर जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इस बारे में हर स्तर पर गहन विचार करने की जरूरत है।