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क्या ‘मिड डे मील’ शिक्षा में घुन है?-- मणीन्द्र ठाकुर

ग्रामीण विद्यालयों में शिक्षा की हालत कैसी है? यदि आप इस सवाल को लेकर नीतिकारों के पास जायेंगे, तो लगेगा कि अब भारत को विश्वगुरु बनने से कोई नहीं रोक सकता है. क्योंकि बिहार के गांवों में भी लगभग सौ फीसदी बच्चे विद्यालय जाने लगे हैं. लेकिन, धरातल पर कहानी कुछ और है. पिछले दिनों किसी गांव के एक विद्यालय में जाने का मौका मिला, जहां साठ-सत्तर के दशक तक मेरे जैसे ग्रामीण बच्चों ने भी अपनी पढ़ाई कर अच्छे भविष्य की कल्पना की थी. हालात में अंतर आ गया है.

तब भवन छोटे थे, लेकिन गांव के लोग विद्यालय की ओर आदर भाव से देखते थे. शिक्षक चाहे किसी भी जाति के हों, उन्हें ‘गुरु जी' या ‘पंडी जी' कहा जाता था. छात्र उनकी ओर सम्मान का भाव ही रखते थे. उनमें से कुछ तो पिटाई करने के लिए मशहूर थे. छड़ी को ‘दुःख हरण' कहा जाता था. लेकिन, ज्यादातर ऐसे शिक्षकों का नाम लोग सम्मान से लेते थे. उन्हें लगता था कि यह पिटाई उनकी भलाई के लिए थी.

मेरे जाते ही विद्यालय के आसपास रहनेवाले बड़े-बुजुर्ग जमा हो गये. पुराने शिक्षकों का नाम गिनवाने लगे. उनके आदर्श की कहानी सुनाने लगे. जिन लोगों ने वहीं पढ़ कर अपना भविष्य संवारा, उनकी शरारतों के अनुभवों को मजे लेकर सुनाते रहे.

अब इस बदले समय में शिक्षक को ‘मास्टर' कहा जाने लगा है. उनकी जाति पहले बतायी जाती है और उनका गुण-अवगुण का बखान इससे जोड़ कर किया जाता है. उनके भ्रष्ट होने के प्रमाण की जरूरत नहीं है. उनके लिए सम्मान अब शायद ही बचा हो. पास की दलित बस्ती के लोगों ने बताया कि विद्यालय में पढ़ाई के अलावा सब कुछ होता है. उनका मानना था कि विद्यालय भ्रष्टाचार का अड्डा है. मुझसे उनका आग्रह था कि किसी तरह से गांव में एक इंगलिश स्कूल खोल दूं. मुझे आश्चर्य तब हुआ, जब उन्होंने इन सबके लिए ‘मिड डे मील' को जिम्मेवार ठहराया. इस योजना को शिक्षा विस्तार के लिए सरकार का सबसे कारगर कदम बताया जाता है. लेकिन, बकौल उन दलित बुजुर्गों के इस योजना ने ‘विद्यालय' को ‘भोजनालय' में परिणत कर दिया है. छात्र भी भोजन-भाव से वहां पहुंचते हैं और शिक्षक का भी पूरा ध्यान भोजन व्यवस्था में लगा रहता है. इसके अलावे अधिकारियों का भी यह हराभरा चरागाह है.

मैंने इस प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया. बिहार के विद्यालयों में भोजन की व्यवस्था शिक्षकों को ही करनी होती है. छात्रों की संख्या गिनना, चावल, दाल, सब्जी, लकड़ी, मसाला के इंतजाम से लेकर उनके पकने और परोसने तक की प्रक्रिया पर पकड़ रखना उनका काम है. इस प्रक्रिया के हर स्टेज पर चोरी की संभावना है. लोग इस बात को मान कर ही चलते हैं कि आज के युग में सभी चोर हैं और शिक्षकों को मौका मिला है, तो चोरी करते ही होंगे. अब उन्हें देख कर जो पहली बात लोगों के मान में आती है, उससे ज्ञान या आदर्श का कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि उनके चोर होने का भाव रहता और ईर्ष्या का भाव प्रधान होता कि यह मौका उसे भी क्यों न मिला. लोग अब उनसे अपने बच्चों के भविष्य के बारे में नहीं पूछते हैं, बल्कि उनकी ओर इस प्रश्न के साथ देखते हैं कि ‘कितना कमा लिया मास्टर'.

पूरे शिक्षा विभाग में ‘मिड डे मील' को लेकर बड़ा उत्साह है. मैंने इसकी तह में जाने के लिए कुछ शिक्षकों से बात की, खास कर जिनके व्यक्तिगत चरित्र के बारे में प्रमाण की जरूरत नहीं है. उनकी परेशानी है कि इस ‘मिड डे मील' में सबको हिस्सा चाहिए. यदि आप ईमानदार हैं, तो आपके फंसने की ज्यादा संभावना है. उन्होंने बताया कि नीचे से ऊपर तक कमीशन बना हुआ है. प्रत्येक विद्यालय के भोजन कोष से एक हिस्सा उन अधिकारियों को नियमित रूप से दिये जाने की व्यवस्था है. यदि कोई नहीं देना चाहे, तो फिर इसकी शामत आ जाती है. फिर खोजी निगाह से उसके कागजों को खंगाला जाता है और थोड़ी भी गड़बड़ हो, तो फिर शुरू होती है उस प्रधानाचार्य (शिक्षक) पर कार्रवाई का सिलसिला. अंतत: लाचार होकर शिक्षक अपराधी हो जाता है.

‘मिड डे मील' में पैसा कमाने का सबसे आसान तरीका है छात्रों की संख्या में हेराफेरी करना. प्रति छात्र भोजन का बिल बनता है और यदि संख्या बढ़ा कर लिखा जाये, तो अच्छी आमदनी हो जाती है. भ्रष्टाचार के इस माहौल में शिक्षा की क्या स्थिति होगी, आप खुद ही समझ सकते हैं. शिक्षकों के लिए छात्र भोजन की गिनती में बदल जाते हैं और छात्रों के लिए शिक्षक भोजनालय व्यवस्थापक में. विद्यालयों के माहौल में न तो शिक्षा की बात को ही प्राथमिकता है, न ही पुस्तकों की.

मैं यह नहीं कहना चाहूंगा कि ‘मिड डे मील' का भारत के गरीब बच्चों के लिए कोई महत्व नहीं है. लेकिन, इससे शिक्षा नहीं हो सकती है. बच्चे शायद साक्षर भले ही हो जायें. जो आदर्श यहां प्रस्तुत होता है, उसमें जैसी नैतिक शिक्षा उन्हें मिलती है, उसका क्या प्रभाव समाज पर पड़ेगा, यह भी विचरणीय है. इसके बाद नैतिकता की बात करना भी बेमानी होगी. क्या यह संभव है कि शिक्षकों को इस भार से मुक्त किया जा सके? वैसे भी भारत में सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों के बारे में प्रसिद्ध है कि जानवर से लेकर आदमी तक की गिनती में उन्हें लगाया जाता है. यदि सरकार शिक्षा को लेकर चिंतित है, तो आवासीय सरकारी विद्यालय खोले, जहां आवास और क्लास की अलग-अलग व्यवस्था हो. इसमें शक नहीं है कि ‘मिड डे मील' स्कीम अपराध का ट्रेनिंग प्रोग्राम है. यदि बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा न मिले, तो इसके लिए सरकार ही जिम्मेवार है. इस जिम्मेवारी को पूरा नहीं करना एक गुरुतर अपराध है और समाज को सरकार से इसका हिसाब पूछना चाहिए. क्योंकि यहां शिक्षा केवल ज्ञान प्राप्ति का साधन नहीं है, बल्कि सामाजिक संबंध और सामाजिक सरोकार के प्रति जागरूकता के लिए भी जरूरी है. गौर करने की बात है कि गैरसरकारी अंगरेजी विद्यालयों की ओर लोगों का आकर्षण तो मिड डे मील के लिए नहीं है. शायद ‘मिड डे मील' गरीब छात्रों को विद्यालय की ओर आकर्षित भी करता हो, तो मेरा आग्रह होगा कि शिक्षकों को इस प्रभार से मुक्त कर दिया जाना चाहिए. उनको उनके हक का सम्मान जरूर मिलना चाहिए. शिक्षा के स्तर का सीधा संबंध समाज में शिक्षकों के सम्मान से जुड़ा है.

मणींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com